समाज, संस्कृति और इतिहास

अस्कोट आराकोट अभियान 2024: दानपुर से नीती घाटी की ओर

बिर्थी फॉल का आकर्षण स्थानीय अर्थव्यवस्था का रूप से ले रहा है। गाँव में सामुदायिकता

तिलाड़ी काण्ड – उत्तराखण्ड का जालियाँवाला बाग

तिलाड़ी काण्ड की पृष्ठभूमि वनों के सीमांकन के साथ ही बन चुकी थी जब स्थानीय ग्रामीणों को उन्हे उन्हीं के जंगलों की सीमा पर बाँध दिया गया। टिहरी राजदरबार द्वारा लगातार ब्रिटिश साम्राज्यवादी माडल को इन क्षेत्रों में लागू किया जा रहा था, जिसमें वनों को अकूत संपत्ति अर्जित करने का स्रोत मान लिया गया था।

शेरपाओं का सागरमाथा

शेरपा, जिन्हें कि बरफीले क्षेत्रों का बाग कहा जाता है और 1920 से अब तक के ऐवरेस्ट अभियानों में जिनके 23 पुरूष दिवंगत हो चुके हैं, यहाँ के पुराने निवासी हैं। उनकी चारे और ईधन की जरूरत से सैकड़ों सालों में भी प्राकतिक सन्तुलन नहीं टूटा।

सागरमाथा और एडमंड हिलेरी

चोमोलंगमा या सागरमाथा पर चढ़ने वाले वाले शेरपा तेनजिंग नोरगे और एडमंड हिलेरी ने शिखर पर पहुँचने  के बाद ही एहसास किया कि इतना आकर्षक पर्वत शिखर बहुत नाजुक और संवेदनशील तो है ही, इसके चारों रहने वाला वाला समाज भी उतना ही बाहरी दबावों के खतरों से घिरा है। एडमंड हिलेरी ने अपने अनुभवों और चिंताओं को नेशनल ज्योग्राफिक में प्रकाशित किया।

सामी आदिवासी

यह लेख 2016 में ‘सामी आदिवासी’ नाम से प्रकाशित पुस्तिका के अंशों को जोड़ कर बनाया गया है। पहाड़ पोथी के इस प्रकाशन के लेखक श्री सईद शेख़ हैं।

उत्तराखंड में रामलीला की परंपरा

उत्तराखंड में रामलीला मंचन में समसामयिक विषयों एवं घटनाक्रमों को भी शामिल करना इसकी प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है। 1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उल्लास एवं उत्साह की अभिव्यक्ति रामलीला के मंच में प्रमुख देवताओं के छायाचित्रों के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का छायाचित्र रखे  जाने और  देशभक्ति के गीतों का रामलीला में समावेशन किया जाना  इस बात का प्रमाण है कि समसामयिक विषयों अथवा प्रसंगों को लेकर रामलीला आयोजक किस तरह संवेदनशील थे।

पूर्वोत्तर और नागा समस्या

भारत की आजादी के समय तक नागा जीवन उनके समाज के नियमों द्वारा संचालित होता था। वे उन्हीं को आधार बना उसे चलाना चाहते थे। आज भी नागा एक शासन व्यवस्था के अन्दर नहीं लाये जा सके हैं। नागा भूमि तो देशों और भारत के अन्दर अनेक प्रदेशों में बंटी है।

सविनय अवज्ञा, पेशावर कांड और गढ़वाल राइफल्स: सामूहिक चेतना की समद्ध विरासत

भारत की आजादी के संघर्ष में 90 साल पहले 1930 के अप्रैल माह की 23 तारीख को पेशावर के किस्साखानी बाज़ार में हुई एक घटना भारतीय जन की सामूहिक समझ और राष्ट्रीय एकता की एक ऐसी मिसाल पेश करती है जो आज भी अपने अतीत के गौरवशाली पलों को गहराई से समझने के लिए प्रेरित करती है. आजादी की लड़ाई के अलग-अलग पहलुओं, खासकर राजनीति की गांधीवादी रणनीति को देखें तो हमें 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में घटित घटना की व्यापकता और सामूहिक स्वीकार्यता में इसके गहरे और दूरगामी प्रभाव साफ़ झलकते हैं.

कुमाऊँ में बेगार आंदोलन

बेगार का सामान्य अभिप्राय मजदूरी-रहित जबरन श्रम था। औपनिवेशिक कुमाऊँ में इसका अभिप्राय मजदूरी-रहित या अल्प मजदूरी देकर कराये गये जबरिया श्रम और जबरन सामग्री लिये जाने की प्रक्रिया से था। बेगार देने के लिए स्थानीय काश्तकारों को बंदोबस्ती इकरारनामों के अनुसार बाध्य किया जाता था।

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