यह लेख भारत और नेपाल के सीमा विवाद का गहन विश्लेषण करती पुस्तिका ‘कालापानी और लीपूलेख: एक पड़ताल‘ का सार प्रस्तुत करता है। पुस्तिका के लेखक शेखर पाठक पूर्व प्रोफेसर तथा ललित पन्त पूर्व प्राचार्य रहे हैं। दोनों ने हिमालय के अन्तर्वती क्षेत्रों की अनेक यात्राएँ तथा अध्ययन किए हैं। दोनों ‘पहाड़‘ के सम्पादक मण्डल के सदस्य हैं।
भारत-नेपाल के बीच कालापानी-लीपूलेख-लिम्पिया सीमा विवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है। नेपाल के सभी दल उस नक़्शे से सहमत हैं, जो 20 मई 2020 को नेपाल के सर्वे विभाग ने जारी किया और जिसमें कालापानी-लीपूलेख-लिम्पिया धूरा के बीच के 335 वर्ग किमी. क्षेत्र को अपना दिखाया है। नेपाल के अनुसार यह क्षेत्र भारत ने कब्ज़ाया हुआ है और भारत के अनुसार यह क्षेत्र सिगौली संधि के समय से ही उसके पास है। बहरहाल नेपाल की संसद ने 10 जून 2020 को इस नए नक़्शे को स्वीकृति दे दी है।
दुर्भाग्य से इधर के सालों में किसी मुद्दे की गहराई में जाने का विवेक कम होता जा रहा है। बड़े देश का हो या छोटे देश का, राष्ट्रवाद वास्तव में मुद्दों को ठीक से देखने नहीं देता। यह नजरिया ना तार्किक होता होता है और ना ही दूरदर्शी, इसलिए ग़लतफ़हमियों को जन्म देता है। भारत-नेपाल सीमा विवाद भी इसी तरह की ‘टालो और राज करो’ प्रवृत्ति (भारत) तथा तथ्यों की वास्तविकता न जानने की जल्दबाजी (नेपाल) का ताजा उदाहरण है।
जरा पीछे चलें
विवादास्पद बनाया गया क्षेत्र भारत-नेपाल-चीन सीमा पर कुमाऊँ (भारत) के पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील की ब्यांस पट्टी में है। इसके पूर्व में नेपाल के सुदूर पश्चिमी अंचल के दार्चुला जिले का ब्यांस क्षेत्र है। पहले यह क्षेत्र डोटी कहलाता था। उत्तर दिशा में तिब्बत का ताकलाकोट (पुलन) क्षेत्र है। काली नदी के साथ उसकी सहायक नदियां कुटी यांगती और टिंकर इसी क्षेत्र में संगम बनाती हैं।
भारत-नेपाल के सीमा विवाद का वर्तमान संदर्भ नेपाल युद्ध के बाद 4 मार्च 1816 को सम्पन्न हुई सिगौली की संधि से जुड़ा है। अधिकांश संधियों की तरह यह संधि भी बराबरी पर आधारित नहीं थी। कम्पनी शासन ने विजेता की हैसियत से अपने निर्णय नेपाल पर थोपे थे। औपनिवेशिक सत्ता ने ब्यांस क्षेत्र को न्यायपूर्ण तरीके से विभाजित नहीं किया। 9 धाराओं और 2-3 पन्नों में सिमटी इस संधि की पांचवीं धारा में काली नदी और उसके उद्गम को परिभाषित किये बिना उसे नेपाल और ब्रिटिश भारत के बीच सीमा बनाया गया। पेरिस ब्रैडशॉ, गजराज मिश्र और चन्द्रशेखर उपाध्याय द्वारा 2 दिसम्बर 1815 को बिहार-नेपाल सीमा पर स्थित सिगौली (मकवानपुर, चम्पारण) नामक स्थान पर हस्ताक्षरित यह संधि दोनों पक्षों के परीक्षण के बाद 4 मार्च 1816 को लागू हुई।
इस तरह पश्चिम में काली नदी (जिसे नेपाल में महाकाली के नाम से जाना जाता है) को भारत और नेपाल की सीमा मानी गई, बिना यह जाने कि उस क्षेत्र का वास्तविक भूगोल क्या है। बाद में कालापानी से बरमदेव (टनकपुर) तक काली नदी भारत-नेपाल की सीमा बन गई। सिगौली की संधि के तहत अवध के तराई क्षेत्र () तथा सिक्किम से जुड़े कुछ क्षेत्र नेपाल को खोने पड़े थे।
पुराने रास्ते और रिश्ते
काली नदी किसी भी और हिमालयी नदी की तरह अपने जलागम के समाजों, संस्कृतियों और आर्थिकी से जुड़ी थी। कुछेक बार कुमाऊँ के चन्द शासकों ने काली पार में शासन किया था और कभी बम और मल्ल राजा काली के इस पार राज करते रहे थे। इनसे पहले कत्यूरी राज्य पश्चिमी नेपाल के कुछ हिस्सों तक फैला था। अभी भी कुमाऊँ के अस्कोट तथा नेपाल के उकू बाकू के रजबार एक ही परिवार से हैं। इस क्षेत्र के अधिकांश वासियों के बीच सदियों से व्यापारिक आदान-प्रदान तथा सामाजिक मेल मिलाप था। काली के इस पार के लोग अपने देवताओं को पूजने आज भी उस पार जाते हैं।
हिमालय में गोरखा साम्राज्य के विस्तार से पहले अनेक छोटी-छोटी राजशाहियाँ थीं। उनमें कुछेक सिगौली की संधि के बाद भी बनी रहीं। स्थानीय सामन्तशाहियों के बीच काली नदी के दोनों ओर सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आदान प्रदान की प्रक्रिया चलती रही।
कुमाऊं का ऊपरी ब्यांस क्षेत्र भू-राजनैतिक और सामरिक दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और संवेदनशील त्रिकोण में स्थित है और यहाँ तीन देशों (भारत, नेपाल तथा चीन) की सीमाएं ही नहीं, काली, करनाली और सतलज नदियों के सबसे प्रारम्भिक जलागम भी मिलते हैं। लीपूलेख सीमान्त व्यापार का एक मुख्य दर्रा होने के कारण सदियों से तीन राज व्यवस्थाओं की नजर में रहा था – कुमाऊँ के चन्द/अस्कोट के रजबार, पश्चिमी नेपाल के जुमली और तिब्बत के बौद्ध शासक। यह क्षेत्र कुछ समय तिब्बत और कुछ समय जुमला राज के अन्तर्गत प्रत्यक्ष रूप से भी रहा। स्थानीय समाज को अपनी और अपने व्यापार की सुरक्षार्थ तीनों सामन्ती व्यवस्थाओं से सम्बंध बनाये रखने पड़ते थे।
उत्तराखंड के उत्तरी भागों में स्थित जेलूखागा, माणा, नीती, सलसल, कुंग्रीबिंग्री,दारमा, लम्पियाधूरा, न्यूवे धूरा, लीपूलेख व टिंकर जैसे दर्रों से व्यापारी द्वारा हर साल व्यापार के लिये तिब्बत जाते थे। पश्चिमी तिब्बत में उनकी निर्धारित मण्डियां थीं। आन्तरिक मण्डियों में कुटी के पास निकर्चू, दारमा में बिदांग तथा ताकलाकोट मार्ग में कालापानी मुख्य थीं।
उक्त दर्रों में से कुछ को पार कर तीर्थयात्री कैलास मानसरोवर की यात्रा करते थे। बीसवीं सदी में यह यात्रा अधिक व्यवस्थित हुई। लीपूलेख और टिंकर दर्रो से ताकलाकोट मण्डी और कैलास-मानसरोवर का सीधा-सरल रास्ता था। लीपूलेख को नीती दर्रे के बाद सबसे सरल व सुरक्षित माना जाता था।
कम जाना गया इलाका
लीपूलेख से काली नदी की घाटी के तमाम निवासी तिब्बत जाते थे और देश के विभिन्न भागों से आये तीर्थयात्री भी। मानसखण्ड में लीपूलेख व काली नदी का वर्णन है। मानसखण्ड में जिसे कम से कम मध्यकालीन ग्रंथ तो माना ही जा सकता है, लीपूलेख को ‘लिपि पर्वत’ कहा गया है। काली नदी को ‘सत्यवाहिनी’ या ‘श्यामा’ कहा गया है।
लिपि पर्वत भारत से कैलास मानसरोवर की यात्रा का सबसे पुराना और सुगम मार्ग था। ब्यांसवासियों का मानना है कि कुटी में पाण्डवों का किला (कुन्ती खर) था और कुटी नदी का नाम कुन्ती से जुड़ा बताया जाता है। यह संभव है कि ब्यांस रिखी (ऋषि) गुफा या पर्वत और पाण्डव किला या कुन्ती ये नाम मध्यकाल में कभी इस क्षेत्र से जोड़े गये हों।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन के बाद वैब ने कुमाऊँ का नक़्शा बनाने के लिये 1816-18 में कुमाऊँ का व्यापक भ्रमण किया। 1819 में उसके द्वारा तैयार पहला नक़्शा प्रकाशित हुआ, जिससे काली घाटी के अन्तरवर्ती क्षेत्र का प्रारम्भिक परिचय मिलता है। इसमें कालापानी तथा ब्यांस रिखि शिखर का नाम दिया है पर लीपूलेख, लिम्पिया और अन्य दर्रों का नहीं।
1829 में इस नक़्शे के संशोधित संस्करण में न्यूवे धूरा या ऊँटाधूरा दर्रों का नाम तो दिया है पर अन्य दर्रों पर सिर्फ ‘घाटा’ लिखा है। लीपूलेख बिना नाम के ही चीनी टार्टरी को खुल रहे दर्रे के रूप में 17670 फीट की ऊँचाई के साथ दिखाया गया है। गुन्जी से ऊपर कुटी नदी को काली नाम दिया गया है। इससे पहले 1 फरवरी 1827 के जेम्स हौर्स्ट सुर्घ, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाइड्रोग्राफर द्वारा बनाये नक़्शे में भी कुटी नदी को काली लिखा गया है। कुछ और नक्शों में भी ऐसा हो सकता है पर सामान्यतया दोनों नदियों को गुन्जी में संगम से पहले उनके नामों से ही दिखाया गया है। यह हो सकता है कि बड़ी होने के कारण कुटी यांगती को काली लिखा गया हो।
ट्रेल ने कुमाऊँ का व्यापक दौरा कर 1830 में एक नक़्शा बनाया था। प्री म्यूटिनी रिकार्ड्स में मौजूद इस नक़्शे में कुमाऊँ के दक्षिणी प्रवेश द्वार तथा उत्तरी दर्रे दिखाये गये हैं, जिनमें निलंग, माणा, नीती के साथ अन्य दर्रों को जोहार, दारमा तथा ब्यांस दर्रें के रूप में दिखाया है। 1846 के नक़्शे में पहली बार लीपूलेख तक काली नदी के साथ कुमाऊँ की सीमा को दर्शाया गया था।
1850 के नक़्शे में लीपूलेख नाम पहली बार आया है और इसके साथ मंगसंग, बल्चा, सलसल, ऊँटाधूरा, जयन्ती, लाखुर, नीती, माणा आदि दर्रे पहली बार दिखते हैं। 1851 में रिचर्ड स्ट्रैचीके रॉयल ज्योग्रेफिकल सोसायटी के जॉर्नल में प्रकाशित लेख के साथ छपे नक़्शे में अधिक स्पष्टता और विस्तार है। इस नक़्शे में तिब्बत में उत्तराखण्ड से खुलने वाले दर्रे, उस क्षेत्र की सभी नदियां और जल विभाजक पहाड़ बड़ी स्पष्टता से प्रदर्शित हैं।
1879 के नक़्शे में सीमा में एकबड़ा बदलाव यह था कि कालापानी से लीपूलेख के दक्षिण-पूर्व की धार का टिंकर नदी के जलागम से पहले तक का हिस्सा भारतीय क्षेत्र में दिखाया गया है। इस तरह कालापानी से नीचे ही काली नदी सीमा रेखा रही, इससे ऊपर यानी कालापानी से लीपूलेख की ओर सीमा पहले टिंकर की जल विभाजक धार और फिर करनाली की जल विभाजक धार के साथ सीधे लीपूलेख तक जाती है। कालापानी के पारम्परिक स्रोत को तभी से ज्यादा प्रशासनिक और सामरिक प्रामाणिकता मिली और फिर बाद के समय में लगातार यही सीमा नक्शों में दर्शाई जाती रही है।
इस पर नेपाल दरबार ने विरोध जताया हो सकता है। पर यह पिछली सदियों के इतिहास के आधार पर नहीं सिर्फ सिगौली की संधि के आधार पर था। यह भी संभव है कि 1857 के संग्राम के समय नेपाली शासक ने कम्पनी की मदद की थी, जिसके ऐवज में अवध के नेपाल सीमा से लगे क्षेत्रों (नया देश) को नेपाल को लौटाया गया था। तब कालापानी को वापस मांगने का कोई जिक्र नहीं मिलता। 1907, 1916, 1924 तथा 1931 के नक्शों में भी 1879 की स्थिति को ही दिखाया गया है।1
आज जितने भी प्रकार के नक़्शे उपलब्ध हैं उनमें से कुछ में चाहे कुटी यांगती नदी को काली लिखा है पर किसी भी नक़्शे में कुटी यांगती को नेपाल और भारत के बीच सीमा के रूप में नहीं दिखाया गया है।
नक्शों से रपटों की ओर
कुमाऊँ के दूसरे कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने 1825 के आसपास सीमान्त क्षेत्र के दौरे के बाद बनाई अपनी रपट ‘भोटिया महाल’ में लिखा था कि 1790 में गोरखों की कुमाऊँ विजय के बाद रुद्रपाल रजबार ब्यांस को जुमला सामन्त से मुक्त करा कर गोरखा शासन के अन्तर्गत लाया था। ट्रेल ने यह भी बताया कि जुमला के सामन्त ने 1823 में ब्यांस के गाँवों से फिर जबरन कर वसूल किया। लेकिन कम्पनी के दबाव से डोटी के गोरखा प्रशासक बम शाह द्वारा वसूली को वापस कराया गया था।
वास्तविकता से परिचित होने के बाद ट्रेल ने दो साल तक छांग्रू तथा टिंकर गाँवों को ब्यांस से अलग नहीं किया। प्री म्यूटिनी रिकार्ड्स में 1817 का एक पत्राचार बताता है कि कम्पनी के सचिव जॉन एडम्स को ब्यांस के जमींदार का वह पत्र ट्रेल ने भेजा था, जिसमें उनसे छांग्रू तथा टिंकर को फिर ब्यांस में लौटाने का निवेदन किया था। सिगौली संधि की शर्तों के अनुरूप न होने से यह सुझाव नहीं माना गया।
स्ट्रैची भाइयों ने लीपूलेख को स्पष्टता से भारतीय सीमा में दिखाया है। हेनरी स्ट्रैची ने 1846 में छांग्रू तथा टिंकर गावों की यात्रा के बाद कहा था कि ये गाँव गोरखों को देकर कम्पनी सरकार की ओर से गलती हुई है। उसकी समझ थी कि छांग्रू और टिंकर को ब्यांस (कुमाऊँ) में ही होना चाहिये था। ये सभी गाँव मिलकर लीपूलेख दर्रे का इस्तेमाल करते हैं। 1846 में छांग्रू जाने पर जब गाँव के बूढ़ा जसपाल हेनरी स्ट्रैची से मिले तो उसने कहा कि यह आपके गाँव का दुर्भाग्य रहा कि इसे ब्रिटिश सीमा से बाहर कर दिया गया।
कम्पनी शासन यदि जानकारी से लैस होता तो वह गर्ब्यांग तक काली और फिर टिंकर को भारत-नेपाल सीमा बनाता, या जैसा कि बाद में हेनरी स्ट्रैची ने सुझाया था। ब्यांस पट्टी के बुदी, गर्ब्यांग, छांग्रू तथा टिंकर गाँव एक दूसरे से अभिन्न थे। छांग्रू तथा टिंकर से नेपाल में कहीं भी जाने का मार्ग न था। आपी तथा नाम्पा पर्वत वहाँ बीच में हैं। एक जमाने में मार्मा गाँव को जो मार्ग टिंकर घाटी से जोड़ता था, वह एक हिमस्खलन और भू-परिवर्तनों से बन्द हो गया था। इन गाँवों से नेपाल में जाने के लिये या तो भारत होकर धारचूला से या तिब्बत होकर ताकलाकोट-हिल्सा (यूसा) से ही जाया जा सकता था और आज भी यही स्थिति है।
कम्पनी के गजेटियर में, जो कम्पनी के अन्त के बाद 1858 में छपा था, कालापानी को काली नदी का स्रोत बताते हुए लिखा गया था कि नदी और पीछे से आ रही है । इस गजेटियर में लीपूलेख नाम नहीं मिलता है। 1864 में एडमण्ड स्मिथ, हौगसन आदि के साथ पश्चिमी तिब्बत की यात्रा करने वाले थॉमस वैबर ने लीपूलेख को ‘ब्यांस दर्रा’ तथा लिम्पियाधूरा को ‘कुटी दर्रा’ कहा था। 1882-86 के बीच प्रकाशित एटकिंसन के गजेटियर (दो/2:679-80) में कहा गया है कि ‘‘सिगौली की संधि के अनुसार काली नदी सीमा बनी, जिस कारण ब्यांस क्षेत्र को दो भागों में बांटना पड़ा। 1817 में नेपाल दरबार द्वारा संधि की धारा का उल्लेख करने पर छांग्रू और टिंकर गाँव वहाँ के निवासियों की इच्छा के विपरीत नेपाल को दे दिये गये। नेपाल इससे संतुष्ट नहीं हुआ और कुटी यांगती को काली की मुख्य धारा मानते हुए नाबी व कुटी गाँवों की मांग करने लगा। कुमाऊँ का सर्वेक्षणकर 1819 का नक़्शा बनाने वाले कैप्टन वैब ने बताया कि कालापानी से आने वाली धारा को ही काली नदी की मुख्य धारा माना जाता है। कम्पनी सरकार ने तय किया कि ये गाँव कुमाऊँ में ही रहेंगे।’’
एटकिंसन ने यह भी लिखा कि ‘‘काली नदी की दूसरी बड़ी शाखा कुटी यांगती का विस्तार मांगसा और लिम्पिया धूरा तक है। इस क्षेत्र में काली का सारा जलागम कुमाऊँ में हैं सिर्फ कालापानी स्रोत के पास से नेपाल की सीमा शुरू होती है। कुटी बेशक काली से बड़ी है पर अब काली ही भारत और नेपाल के बीच सीमा है।’’ स्पष्ट है कि अंग्रेज अफसरों को कुटी के बड़ी नदी होने की बात वैब के सर्वे से पता चल चुकी थी और लीपूलेख दर्रे की महत्ता भी। उन्होंने कुटी व काली नदी को अलग-अलग माना।
चार्ल्स शेर्रिंग ने अपनी 1903 की यात्रा के बाद ‘वेस्टर्न तिब्बत एण्ड ब्रिटिश बार्डरलैण्ड’ (1906) में लिखा था कि भारत, तिब्बत और नेपाल की सीमाओं के त्रिकोण पर स्थित लीपूलेख हमारी सीमा में स्थित सबसे सरल दर्रा है, जो साल में सबसे अधिक समय तक खुला रहता है । अनेक बार लीपूलेख से तिब्बत की यात्रा करने वाले स्वामी प्रणवानन्द ने बताया है कि कालापानी काली नदी का पारम्परिक स्रोत है जबकि नदी की मुख्य धारा लीपूलेख से आ रही है। वे यह भी लिखते हैं कि कालापानी के पास गर्ब्याल समुदाय की जमीन है इसी तरह काली पार कावा तथा टिंकर नदी की घाटी में तथा तंगतांगती (देवथला) तथा रपला में गुन्जियालों, गर्ब्यालों तथा बुदियालों की जमीन थी। बुदी के सामने नेपाल में बुदी वालों की जमीन पनघट-गोचर भी थे ।
गोकुलिया में बुदी और गुंजी वालों की जमीन थी। बुदी वालों की रकम दजी बूढ़ा और गुंजी वालों की ओर से भैरों बूढ़ा वसूल करते थे। बहुत बाद तक कुमाऊँ ब्यांस के ग्रामीण, नेपाली ब्यांस में स्थित अपनी जमीन का टैक्स देते रहे । गर्ब्यांग व बुदी के निवासी अब भी घास व जड़ी-बूटी के लिये काली पार जाते हैं। गुन्जी से ऊपर लीपूलेख की ओर कोई बस्ती नहीं थी।
कुछ विवरणों में कालापानी व नाबीढांग को पुरानी यात्रा चट्टियों के रूप में दिखाया गया था।1936 में इस क्षेत्र का अध्ययन करने वाले स्विस भूविज्ञानी हैम ने लिखा था कि काली नदी कालापानी तक नेपाल से सीमा बनाती है और यहां से सीमा दक्षिण-पूर्व को चली जाती है।
सीमा के प्रश्न
यह बताना उचित होगा कि सिगौली की संधि के बाद 1817 में कम्पनी और सिक्किम के बीच टिटल्या की संधि हुई। इसके अनुसार मेची नदी से पूर्व और तीस्ता से पश्चिम का पर्वतीय क्षेत्र नेपाल से वापस लेकर सिक्किम को दिया गया। पर सीमा विवाद चलता रहा। नेपाल और सिक्किम के बीच आण्टू हिल के स्वामित्व का सवाल मेची नदी के स्रोत से जुड़ा था। कम्पनी सरकार ने कौन सी नदी मुख्य धारा है यह तय करने के मानक बनाये कि जो नदी लम्बाई, चौड़ाई, गहराई और जलागम में बड़ी होगी वही मुख्य धारा मानी जायेगी। उत्तर-पूर्व से आने वाली नदी बड़ी थी और उसे मुख्य धारा मानकर आण्टू हिल नेपाल को दे दिया गया।
1857 के विद्रोह के समय नेपाल के शासक जंगबहादुर ने अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए गोरखपुर तथा लखनऊ में विद्रोह को कुचलकर सामान्य स्थिति लाने में योगदान दिया। इसके बाद जंगबहादुर ने नेपाल की गोरखपुर, अवध तथा रुहेलखण्ड से लगी सीमाओं की अस्पष्टता की शिकायत कम्पनी से की। परिणाम स्वरूप कम्पनी ने अवध की सीमा से लगे अनेक क्षेत्र (नया देश) नेपाल को लौटा दिए। पर जंगबहादुर ने कालापानी-लीपूलेख का मामला नहीं उठाया। इसका स्पष्ट अर्थ है कि नेपाल ने भी कम्पनी द्वारा निर्णित कालापानी-लीपूलेख सीमा को मान लिया था। फिर यह सवाल कभी नहीं उठा।
यहीं पर एक और तथ्य बताना उचित होगा। हिमालय के अन्य सीमान्त इलाकों की तरह इस सीमान्त का समाज भी मामूली खेती, ऊनी कारोबार, जड़ी बूटी संचय के साथ मौसमी प्रवास तथा तिब्बत और नेपाल व्यापार से जुड़ा था (सिर्फ ब्यांसी शौका ही नेपाल में भी व्यापार करते थे)। उनके पशु मालवाहक थे और ऊन के स्रोत भी। उनके परिवार गर्मी तथा जाड़ों की वसासतों और पुरुष तिब्बत और भाबर के बीच सदियों में विकसित इस पद्धति के अन्तर्गत जाते थे। पशु धन (भेड़, बकरी, घोड़े और याक/जब्बू) इस समाज की गतिशील सम्पत्ति थी। अतः इस समाज में पशुओं के चारे और चराई का चक्र साल भर के कार्यकलाप में सदियों से सुनिश्चित था।
1816 में काली पार के छांग्रू-टिंकर से लेकर धारचूला के सामने नेपाल में वर्तमान जिला दार्चुला में स्थित गोकुलिया या धूलीगड़ा तक के क्षेत्रों में ब्यासी शौका समाज (रंङ) अपने पशुओं के साथ आते रहते थे, जहाँ जाड़ों के प्रवास में उनके परिवार जाते और निवास करते थे।
ब्यांस के एक तत्कालीन प्रभावशाली व्यक्ति रायसाहिब पण्डित गोबरिया गर्ब्याल (1825-1920), भारत तिब्बत व्यापार के ट्रेड ऐजेन्ट एवं इलाके के मुख्य व्यापारी होने के अलावा ब्रिटिश, नेपाल व तिब्बत तीनों सरकारों के विश्वासपात्र थे। 1897 में इटली के यात्री हेनरी सैवेज लन्डौर को उन्होंने ताकलाकोट में तिब्बत सरकार की कैद से मुक्त कराया था। पं. गोबरिया के व्यापारिक हित नेपाल से भी जुड़े थे और अपने प्रभाव से उन्होंने नेपाल दरबार से नौगड़ा तथा चमलिया बेसिन के जमेर से गोकुलिया तक के अनेक गाँवों के अलावा काली के उसपार दार्चुला से नीचे किमतोली, उकू, बाकू तथा हरसिंह बगड़ आदि में कुछ गाँव तथा जमीन ब्यांसी शौकाओं के लिये लीज पर ली थी। उनके पास लाल मुहर वाला दस्तावेज था, जिसकी रकम वे विधिवत अपने बूढ़ाओं के मार्फत अदा करते थे।
1980 के आसपास जब नेपाल में जमीन का बन्दोबस्त हुआ तो कुमाऊँ के ब्यांसियों से उनकी नेपाल स्थित जमीनों व नागरिकता के बारे में पूछा गया। तब 1985 के आसपास तक वे इन गाँवों और जमीनों को छोड़कर काली के कुमाउंनी क्षेत्र में खोतिला और फूलबस्ती की रंङ बसासतों में आ गये।
तीन धारणायें
आज काली नदी के स्रोत के बारे में तीन तरह के विचार हैं। पहला स्थानीय परम्परा के अनुसार कालापानी काली नदी का स्रोत है। यहाँ पर पहले गर्म पानी का स्रोत हुआ करता था। यह एक भूस्खलन में दब गया था। तीर्थयात्रा के कारण एक पवित्रता का विचार इसके साथ जुड़ गया। इसको कैलास मार्ग की चट्टी भी माना जाता रहा। 1816 से ही कम्पनी शासन ने इसे काली का उद्गम माना। इसीलिये 1819 के नक़्शे में कालापानी स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है।
दूसरा विचार कुछ स्थानीय लोगों और औपनिवेशिक सर्वेयरों का है जो मानते हैं कि काली का स्रोत लीपूलेख और करीब के उच्च शिखर हैं और आसपास से आ रही अन्य धाराएं और कालापानी स्रोत का पानी इसमें विलीन हो जाता है। यह वास्तविकता है।
नेपाल द्वारा प्रस्तुत तीसरा विचार लिम्पियाधूरा के आसपास काली का स्रोत मानता है। इसे बड़ी सीमा तक बुद्धिनारायण श्रेष्ठ की 2003 में प्रकाशित किताब भी प्रचारित करती है। किसी नदी व्यवस्था की सबसे बड़ी नदी होने के तर्क पर कुटी को यह श्रेय दिया जा सकता है पर उसे काली बनाकर नहीं। पर यहाँ नदी के मूल स्रोत को नहीं ढूंढा जा रहा है बल्कि परम्परा से जिस नदी को काली माना जाता था, उसके साथ सीमा को जोड़ा गया था।
आजादी के बाद
भारत की आजादी के बाद 31 जुलाई 1950 को नेपाल तथा भारत के बीच शांति तथा मैत्री संधि सम्पन्न हुई। इसमें कालापानी प्रसंग कहीं नहीं था। इस संधि के बाद 7 नवम्बर 1950 को भारत के गृहमंत्री बल्लभभाई पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू को तिब्बत में चीन के आगमन के बाद जन्मे खतरों की ओर बड़े विस्तार से लिखा था। सरदार पटेल ने चीन को ऐतिहासिक रूप से मूलतः विस्तारवादी बताया था। उन्होंने शंका जाहिर की थी कि चीन हमारे पड़ोसी देशों-नेपाल, भूटान तथा बर्मा-में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष घुसपैठ कर सकता है। इससे भारत के ही नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के हित खतरे में पड़ सकते हैं। यह शंका निराधार नहीं थी।
भारत के गृहमंत्री व प्रधानमंत्री के बीच विचार-विमर्श के बाद नेपाल सरकार से संवाद हुआ। तब तिब्बत में चीन कब्जा कर चुका था। इस तरह 1952 में, जब राजा त्रिभुवन व राणाओं के बीच समझौते के आधार पर नेपाल की तिब्बत/चीन से लगी सीमा में भारतीय सैनिकों के 18 चैकपोस्ट स्थापित किये गये। तब इसका छिटपुट विरोध नेपाली प्रतिपक्ष ने किया था।
उक्त चैक पोस्ट शुरू में एक साल के लिये बनाए गए थे। लेकिन भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने में अनावश्यक देरी की गई। 1969 में राजा महेन्द्र को मनाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री कीर्तिनिधि बिष्ट ने भारत के साथ हुआ 1952 का सैन्य समझौता समाप्त कर दिया। ये चौकियां इसके बाद समेट ली गईं। यह इन्दिरा गांधी की सरकार की नाराजी थी। इसी कारण 1969 में नेपाल के खिलाफ पहली आर्थिक नाकेबंदी की गई।
1956 के बाद उत्तराखण्ड के तिब्बती दर्रों पर स्पेशल प्रोटेक्शन फोर्स भेजी गई, जो 1989 तक रही। इसी बीच यहाँ भारत तिब्बत सीमा पुलिस आई। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कालापानी के आसपास बंकर स्थापित हुए और सेना तैनात हुई। तब नेपाल की ओर से असहमति का स्वर प्रकट नहीं हुआ था। 1981 में जब कैलास यात्रा सिर्फ लीपूलेख मार्ग से फिर शुरू हुई और 1991 में आंशिक व्यापार चलने लगा, तब भी नेपाल की ओर से किसी तरह का ऐतराज प्रकट नहीं किया गया था। कालापानी में इस सैनिक उपस्थिति का विरोध 1996 के बाद होना शुरू हुआ। पर भारत यहाँ भी उसी जमीन पर था जो मध्यकालीन और औपनिवेशिक शासकों के काल से कुमाऊँ में थी।
दूसरी ओर 1954 में भारत-चीन के बीच जो व्यापार सम्बंधी करार हुआ था, उसमें लीपूलेख उन दर्रों में प्रथम था जिनका व्यापार और तीर्थयात्रा हेतु उपयोग होना था। चीन यदि इस दर्रे को नेपाल का मानता तो सहमति नहीं देता। 5 अक्टूबर 1961 को हस्ताक्षरित चीन-नेपाल सीमा करार में कहा गया था कि चीन-नेपाल की सीमा रेखा उस बिन्दु से शुरू होती है, जहाँ काली तथा टिंकर नदी की जल विभाजक धार एक ओर करनाली की सहायक नदियों और दूसरी ओर टिंकर की जल विभाजक धार से मिलती है। इसी त्रिसंधि स्थल पर चीन-नेपाल सीमा का पहला बार्डर पिलर है। यह भी जानना चाहिये कि इस बिन्दु से लीपूलेख और टिंकर दर्रे की दूरी 2-3 किमी. के आसपास होगी क्योंकि लीपूलेख से टिंकर दर्रे की दूरी लगभग 4 किमी. है।
नेपाल-भारत की सीमा 1776 (नेपाल के अनुसार 1808) किमी. लम्बी है। इसमें 1213 किमी. जमीन में पिलर बने हुए हैं और 563 किमी. सीमा नदियों के साथ है। काली नदी के साथ 230 किमी. की सीमा है। नेपाल के साथ भारत के 26 जिले सीमा बनाते हैं। 54 स्थानों पर भारत-नेपाल सीमा पर विवाद है, जिनमें से एक कालापानी-लीपूलेख है।
आज की जरूरत
भारतीय तथा नेपाली राजनय, राजनीति, मीडिया और नागरिक समाज को समझदारी और परस्पर सम्मान के साथ इन विवादों को समझना व सुलझाना होगा। संकुचित राष्ट्रवाद न नेपाल को कहीं ले जायेगा और न भारत को। याद रहे कि दो भाइयों से पहले ये दो राष्ट्र दक्षिण एशिया के दो स्वायत्त और स्वतंत्र गणतंत्र हैं।
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