अस्कोट-आराकोट अभियान

अस्कोट-आराकोट अभियान अपने समाज से सीखने और अपने अनुभवों तथा ‘आज की असलियत’ को लोगों तक पहुँचाने का प्रयास है। इस अभियान की शुरुआत आज से 50 साल पहले कुमाऊँ तथा गढ़वाल विश्वविद्यालयों के छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा अनेक सक्रिय और प्रतिबद्ध ग्रामीणों ने की थी। श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने उन्हें प्रेरित किया था कि उत्तराखंड के एक छोर से दूसरे छोर तक पदयात्रा कर दूरस्थ-दुर्गम इलाकों के यथार्थ समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। 

अस्कोट आराकोट अभियान भारत-नेपाल सीमा पर स्थित पांगूअस्कोट (जिला पिथौरागढ़) से आरंभ होकर पश्चिमी कोने में हिमाचल से लगी सीमा पर स्थित आराकोट (जिला उत्तरकाशी) पर समाप्त होता है। इस अभियान में पदयात्री उत्तराखंड के 7 जिलों- पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी तथा देहरादून- के लगभग 350 गाँवों में जाते हैं। 45 दिनों तक चलने वाली और लगभग 1150 किमी. लंबी इस पदयात्रा में अभियान दल के सदस्यों को 35 नदियों, 16 बुग्यालों-दर्रों, 20 खरकों के साथ साथ भूकंप और भूस्खलन से प्रभावित क्रमशः 15 क्षेत्रों और 3 घाटियों, 15 उजड़ती चट्टियों, चिपको आन्दोलन के 8 प्रारम्भिक क्षेत्रों, 5 जनजातीय क्षेत्रों, 5 तीर्थयात्रा मार्गों और 3 भारत-तिब्बत मार्गो से गुजरने और वहाँ की परिस्थितियों को समझने का अवसर मिलता है।

हमेशा की तरह इस बार भी अभियान के माध्यम से मिट्टी, पेड़, पानी, बाँध तथा आपदा विस्थापितों की दशा, समाज के कमजोर तबकों, खासकर आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यकों की सामाजिक स्थिति और अंतर्विरोध, शिक्षा, स्वास्थ्य-सफाई, सड़क, कुटीर उद्योग, नशा, पर्यटन, वन्यजीवन, खनिज, प्राकृतिक संसाधनों में सिमटाव, नई आर्थिक नीति, उदारीकरण, पहाड़ों में शराब का अंतहीन विस्तार, पलायन, मानसिक अवसाद , कैंसर, और एड्स जैसे विभिन्न रोगों के साथ कोविड से उत्पन्न हुई स्थितियों को समझने तथा गैर सरकारी संस्थाओं की भूमिका जैसे तमाम विषयों को गहराई से समझने की कोशिश होगी और इन विषयों पर स्थानीय समाज से संवाद किया जाएगा।

अपने गाँवों को तुम जानो,
अपने लोगों को पहचानो।
तालों, गलों-बुग्यालों के संग
अपनी नदियों को भी समझो।

अब तक हुई यात्राएं

संग्रामी श्रीदेव सुमन के जन्मदिन के अवसर पर 25 मई 1974 में पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा आयोजित की गई थी। 1974 से 1984 के बीच अभियान अन्य मार्गों में भी गया। 1975 में श्रीनगर से शिमला, 1976 में अलमोड़ा से श्रीनगर तथा 1977 में नैनीताल से गोपेश्वर तक यात्रा की गई। 

दस साल बाद ‘पहाड़’ तथा सहयोगी संस्थाओं ने तय किया कि एक बार फिर उन्हीं तिथियों और उसी मार्ग से यात्रा कर एक दशक में हुए परिवर्तनों को समझने की कोशिश की जाय। इस बार यात्रा को और विस्तार दिया गया। पांगू से अस्कोट; वान से रामणी, झिंझी, पाणा, कुंवारी पास, धाक-तपोवन-रैणी, जोशीमठ होकर गोपेश्वर; घुत्तू-बूढ़ाकेदार-उत्तरकाशी आदि नए स्थान और मार्ग इसमें जोड़े गए। कुछ साथियों ने कोटद्वार से कर्णप्रयाग और अलमोड़ा से श्रीनगर की भी अध्ययन यात्रा की। 1984 से 1994 के बीच उत्तराखण्ड के भीतर तथा दूसरे हिमालयी राज्यों (जम्मू कश्मीर, हिमाचल,सिक्किम,अरुणाचल) तथा देशों (नेपाल, भूटान, तिब्बत आदि) में भी यात्राएं की गई।

1994, 2004 और 2014 के अस्कोट आराकोट अभियान में कुमाऊँ तथा गढ़वाल विश्वविद्यालयों के छात्रों के साथ अन्य अनेक संस्थाओं (दसौली ग्राम स्वराज्य मण्डल, हेस्को, हार्क, डाल्यों का दगड्या, प्रगतिशील महिला मंच, उत्तराखण्ड जन जागृति संस्थान) ने भी हिस्सेदारी की। यही नहीं इस अभियान के अन्तर्गत इनमेँ से अनेक संस्थाओं ने अलग-अलग इलाकों में भी स्वतंत्र अध्ययन यात्राएँ आयोजित की।

सन 2014 में पांचवां अस्कोट-आराकोट अभियान 25 मई को पांगू (पिथौरागढ़) से श्री चंडीप्रसाद भट्ट द्वारा रवाना किया गया था। उन्होने इस यात्रा को जंगम विश्वविद्यालय (university on move) नाम दिया। पांचवें अभियान में 200 से अधिक लोगों ने हिस्सेदारी की थी। इस यात्रा में अमरीका, कनाडा और जर्मनी से आए शोधार्थियों, प्राध्यापकों समेत भारत के 8 राज्यों से आए लोग इसमें शामिल हुए थे।  

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