लारी बेकर – आम लोगों का असाधारण वास्तुविद

आज से कोई 70 वर्ष पूर्व लारी का मन जिस सोर की वादी में रम गया था, वह वास्तव में बेहद सुंदर थी! दूर-दूर तक काश्त किये खेतों के इर्द-गिर्द उतरते पर्वत ढलानों में बस गये छितरे बनैले गाँव, मध्य में छोटा-सा कस्बा और घाटी में दो फलकों में बहती सर्पिल जल धाराएं। यहां की जलवायु, वनस्पतियां और हिमाच्छादित शिखर श्रृंखलाओं के बदलते नजारे लारी को अपने यूरोप के देहात के स्पर्श देते रहे।

सोर पिथौरागढ़ में लारी बेकर (2 मार्च 1917-1 अप्रैल 2007) को करीब से जानने-पहचनाने वालों की सुखद स्मृतियों में लारी तथा एलिजाबेथ जीवंत हैं। सोर उपत्यका के नैसर्गिक सौन्दर्य के पारखी लारी बेकर का जिक्र जब तब यहां के बाशिंदों के बीच होता ही रहता है। वे सभी इस नगर के बेतरतीब फैलाव व अनियोजित शहरीकरण को लेकर चिंतित हैं! शहर की बुनियादी सुविधाओं के बदतर होते हालातों से त्रस्त है! दिन पर दिन सीमेण्ट, लोहा, कंक्रीट के बने आड़े-तिरछे बेमेल घरों को देख असहज, एक घुटन सी महसूस करते हैं। चाहे यह उम्र का तकाजा हो या पीढ़ियों का अन्तर, अपनी तरह की सोच रखने वाली उस जमात के मूल वाशिंदे और परिवार आज इस नगर में स्वयं को हाशिये में पाते हैं और अपने चहेते वास्तुकार लारी के सपनों के पिथौरागढ़ की यादों में खो जाते हैं। काश! सोर पिथौरागढ़ न्यून लागत भवन निर्माण तकनीकी के मसीहा लारी के नक्शे कदमों में बनता-संवरता।

आज से कोई 70 वर्ष पूर्व लारी का मन जिस सोर की वादी में रम गया था, वह वास्तव में बेहद सुंदर थी! दूर-दूर तक काश्त किये खेतों के इर्द-गिर्द उतरते पर्वत ढलानों में बस गये छितरे बनैले गाँव, मध्य में छोटा-सा कस्बा और घाटी में दो फलकों में बहती सर्पिल जल धाराएं। यहां की जलवायु, वनस्पतियां और हिमाच्छादित शिखर श्रृंखलाओं के बदलते नजारे लारी को अपने यूरोप के देहात के स्पर्श देते रहे। यहां बसकर चाहे वह पत्नी के साथ मिलकर चिकित्सीय सेवा, समाज सेवा या अपनी वास्तुविद्या के शोध का काम करता रहा। इन सबके लिए इससे सुंदर कोई दूसरा स्थान उन्हें नहीं दिखा। लारी ने अपने पिथौरागढ़ प्रवास को बेहतरीन माना था।

विलायत में जन्म

लौरेन्स विलफ्रेड बेकर का जन्म 2 मार्च 1917 को बर्मिंघम (इग्लैण्ड) में मिली बेकर तथा चाल्र्स फैड्रिक बेकर के घर हुआ। किशोरावस्था में यूरोप को देखने समझने की इच्छा जागी और 17 वर्ष की आयु में साइकिल से यूरोप के अन्तरवर्ती क्षेत्रों की यात्रा कर डाली। यात्राएं व्यक्ति को दिशा देती हैं और इस यात्रा में लारी को यूरोप के विविध प्राकृतिक भू दृश्यों, बसासतों के बदलते स्वरूप, घरों की बदलती बनावट और लोगों के जीने के तौर तरीकों ने सम्मोहित किया और उनके जिज्ञासु मन में वास्तुकला के प्रति आकर्षण जागा। शीघ्र ही प्रशिक्षित वास्तुविद् बनने की चाहत में बर्मिंघम स्कूल आफ आर्किटेक्चर में प्रवेश ले लिया। 1937 में स्नातक पाठ्यक्रम पूरा कर व्यावसायिक प्रशिक्षण ले पाते इससे पहले ही द्वितीय महायुद्ध के दौर में ‘फ्रैंण्ड्स एम्ब्यूलेन्स यूनिट’ के साथ स्वास्थ्य सहायक की सेवाएं देने चीन पहुच गये। जापान-चीन युद्ध के बीच घायल सैनिकों को चिकित्सा उपचर्या देने का जिम्मा संभाला। विकट परिस्थितियों में जोखिम उठाते हुए बेकर बर्मा सीमान्त में भी युद्ध प्रभावित लोगों के उपचार हेतु पहुँचे फिर पश्चिमी चीन में कुष्ठ रोगियों की तीमारदारी में लग गये। यह कार्य चुनौती भरा तो था ही, बल्कि लॉरी के अपने स्वास्थ्य पर बन आई और बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण लारी को स्वदेश लौटना पड़ा।

इंग्लैण्ड वापसी यात्रा के बीच बम्बई में पारगमन में कुछ दिन का विलंब था। इस ठहराव में संयोगवश महात्मा गांधी से हुई मुलाकात और संक्षिप्त वार्ता में गांधी ने लॉरी को भारत में रुक जाने और देश के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में गरीब जरूरतमंदों के बीच समाज सेवा के लिए अनुपे्ररित किया। उस समय तो लॉरी इंग्लैण्ड प्रस्थान कर गये और उन्हें लंबी अस्वस्थता से उबरने में समय भी लगा, लेकिन गांधी जी के उस साक्षात्कार का सम्मोहन लॉरी को भारत की ओर खींच लाया। तभी लाॅरी को खबर हुई कि किसी मिशनरी संस्था को भारत में कुष्ठ रोग पुनर्वास अभियान के तहत ऐसे समाजसेवी कार्यकर्ता की आवश्यकता है जो कुष्ठ रोग उपचार की जानकारी रखता हो तथा उसे वास्तुशिल्प का इतना ज्ञान हो कि वह कुष्ठ रोगियों के जर्जरित आश्रय स्थलों को कम लागत पर दवाखानों के साथ शरणस्थलों का आकार दे सके। लॉरी से अधिक सुपात्र इस कार्य के लिए कौन हो सकता था। उपरोक्त संस्था से सम्पर्क बनते ही सेवा का जज्बा लिये लॉरी सन् 1945 में भारत भूमि की ओर निकल आये।

भारत भूमि की ओर

जिस संस्था के साथ सेवा का करार लेकर लाॅरी बेकर भारत आये उस मिशन द्वारा भारत के दूरस्थ क्षेत्रों में कोई 90 स्थानों पर कुष्ठ रोग पुनर्वास केन्द्र चलाये जा रहे थे। जहां सुधार कार्य होना था। लाॅरी पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ मिशन के कार्य में जुट गये। इस प्रक्रिया में उन्हें भारत  के विभिन्न प्रान्तों के दूरस्थ अंचलों में पहंुचने और वहां की मिट्टी, जलवायु, परिवेश को देखने-समझने का अवसर मिला। बहुत सीमित बजट पर उपचार केन्द्रों के जीर्णोद्वार की बाध्यता के बीच लॉरी में वह समझ तथा दृष्टि विकसित हो रही थी, जिसमें वह स्थान विशेष की प्रकृति व जलवायु के अनुरूप, इलाकों में प्रचलित इमारतों की शैली में ही दवाखानों और कुष्ठ रोगियों के आश्रय स्थलों का निर्माण करवा सके।

उत्तर प्रदेश में मिशन की इस परियोजना को मूर्त रूप देते हुए लाॅरी डाॅ. पी.जे. शैण्डी के परिवार के सम्पर्क में आये। लॉरी के लीक से हटकर वास्तुशिल्प के नजरिये तथा व्यवहार में जरूरतों के अनुरूप दवाखानों के जीर्णोद्वार के प्रयासों को डॉ. शैण्डी द्वारा न केवल सराहा गया बल्कि इस दिशा में नये प्रयोगों हेतु प्रेरणा व सतत प्रोत्साहन भी दिया गया। इसी परिवार की एक और सदस्या डॉ. ऐलिजाबेथ से लाॅरी का परिचय हुआ, जो हैदराबाद में कुष्ठ रोग पुनर्वास केन्द्र में चिकित्सा सेवा दे रही थीं। मिशन के कार्य को लेकर दोनों के बीच जब तब मुलाकातें हुआ करती थीं और समय के साथ अन्तरंगता बढ़ने लगी। दोनों ही पूर्ण निष्ठा व समर्पण भाव से अभियान में लगे हुए थे, लेकिन मिशन की व्यवस्था एवं कार्य प्रणाली से दोनों खुश नहीं थे। कार्य और सेवा के लिए असहज होती परिस्थितियों के कारण दोनों ने अभियान से अलग होने का निर्णय लिया। इससे पहले कि कोई नया कार्य प्रारम्भ करते शैण्डी परिवार के छुटपुट विरोध के बीच 1948 में ऐलिजाबेथ और लॉरी ने विवाह कर लिया और मधुमास मनाने कुमाऊँ के एकान्त की ओर निकल आये। हिम श्रृंखलाओं के करीब पहंुचने के आकर्षण में एक के बाद एक पर्वत को फांदते बेहद शान्त पंगडण्डियों से चढ़ते उतरते तिब्बत-नेपाल सीमान्त से लगे पिथौरागढ़ कस्बे में आ पहुँचे।

नवविवाहित युगल यहां तक यूं ही घुमक्कड़ी करते हुए पहुँचा था और ठहराव का कोई लक्ष्य रहा हो, ऐसा न था। लेकिन यह संयोग ही था कि पिथौरागढ़ कस्बे के पश्चिमी फलक में ऊपर को उठती ह्यूँ पानी पर्वतमाला में स्थित चण्डाक में जब स्थानीय लोगों को श्रीमती बेकर का पेशेवर डाक्टर होने का पता चला तो चिकित्सा सुविधाओं से महरूम लोगों ने उन्हें यहीं अपनी चिकित्सा सेवा देने के लिए बाध्य किया। एक बंद पड़ी चाय की दुकान में इनका दवाखाना खुला और देखते ही देखते छः पट्टी सोर परगने की दूरस्थ बसासतों से मरीज इलाज हेतु यहां पहुँचने लगे। इस नये ठिकाने में लॉरी अपनी पत्नी डॉ. ऐलिजाबेथ के साथ मरीजों के उपचार में हर तरह की सहायक सेवाएं देते हुए दवाखाने की पूरी व्यवस्था देखने लगे।

चण्डाक में लॉरी दम्पति

यह लॉरी दम्पति का मानव सेवा भाव ही था कि चण्डाक जैसी जगह में रुक जाने का मन बनाया और बिना संसाधनों के ही विपन्न तथा जरूरतमंदों को चिकित्सा सेवाएं दी। इस इलाके के दूरस्थ गांवों में वृद्ध, असहाय, गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों, जिन्हें उपचार हेतु दवाखाने तक नहीं लाया जा सकता था या जो यहां तक आने में असमर्थ थे, को मीलों लंबी पंगडण्डियों से पैदल चल उन्हीं के गांव घर में पहंुच इलाज और तीमारदारी देने का साहस अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते बेकर परिवार ने दिया। निश्चय ही लक्ष्य के प्रति समर्पण की एक मिसाल कायम हो रही थी।

लॉरी का चण्डाक (पिथौरागढ़) का कोई 16 वर्षों का प्रवास उनके जीवन का एक ऐसा पड़ाव था, जिसमें प्रशिक्षित वास्तुविद् के बहुआयामी व्यक्तित्व को बनने-संवरने के स्वाभाविक अवसर मिले। इस ग्राम्यांचल के कठिन भूगोल में बिखरे गांवों तक पहुँचना, मानव बसाव को समझना और सहज-पिछड़े लोगों द्वारा अपनी सीमित आवश्यकताओं के अनुरूप नितान्त देशज वास्तु शैली में बनाये गये पहाड़ी मकानों ने बेकर के वास्तु सोच को नई दिशा व आयाम दिये। गांधीवादी चिंतन से प्रभावित लॉरी की पारखी नजरों ने पर्वतीय ढालदार जमीन में दो तले मकानों में भूमि का सुंदरतम प्रयोग तथा पत्थर, मिट्टी, गारे, लकड़ी, बत्ते व छत हेतु पटाल जैसे उपलब्ध स्थानीय संसाधनों के सम्यक प्रयोग की परम्परागत वास्तु विधा को गहरे समझा और इस प्रदेश की ठण्डी जलवायु और पर्यावरण के अनुरूप बनने वाले इन घरों की लागत कीमत को न्यून बनाने के विकल्पों को खोजा। अपने इस रुचिकर शोध में ‘उपयुक्त तकनीकी’ व परम्परागत के साथ गैर परम्परागत के छुटपुट परिवर्तनों हेतु ‘माध्यमिक तकनीकी’ के विकल्प सुझाए और अपने गहन शोध परिणामों को व्यावहारिक धरातल में उकेरते हुये कुछ निजी घरों-मकानों, विद्यालयों, पाठशालाओं, सार्वजनिक भवनों के नक्शे तैयार किये। मिशन इण्टर कालेज का नया मुख्य भवन, जिसमें आकर्षक वृहद कक्ष व वाचनालय भी शामिल था, गोरंगचैड़ की पूर्व माध्यमिक पाठशाला, हैदर बक्श मास्साब का मोस्टमानू का मकान और कुछ मिशनरियों के बंगले, लॉरी का अपना सिकड़ानी तोक (चण्डाक) स्थित आशियाना और दवाखाना आदि इनमें प्रमुख हैं।

जन्मजात चित्रकार लॉरी ने जिस जगह को अपने आशियाने के लिए चुना, वह इस उपत्यका का सुंदरतम स्थल है, जहां से सूर्योदय के समय नजरें दूर-दूर तक पसरी पिथौरागढ़ उपत्यका से नेपाल की पहाड़ियों में जा थमती है। पश्चिम में ह्यूँपानी की सघन बँजाणी के उतरते उत्तरी ढालों के तल पर खेतों का फैलाव लिये गोरंगचैड़ की आकर्षक घाटी! उत्तर की ओर नंदादेवी, नंदाकोट, पंचचूली तथा नेपाल के आपि, सेपोल तथा बहूरानी पर्वतों के चित्ताकर्षक दृश्य आंखों में समाते हैं। यहां भूदृश्य को प्रकृतितः रखते पत्थर, गारे, मिट्टी, लकड़ी के प्रयोग से जो घर बनाया उसमें पर्यावरण के अनुरूप ह्यूँपानी की बर्फानी हवाएं एवं बर्फवारी से बचने की जुगत थी। बिना अधिक मिट्टी हटाये भूमि की आड़ में दक्षिण की ओर गोठनुमा भूतल पर ढालदार पटाल की छत दी।

इस बैठक में उतरना किसी कंदरा में प्रवेश का एहसास कराता था। अपनी तरह का कमरे का संयोजन। फर्श पर अपेक्षाकृत खुरदरी मोटी पटाल, दीवार से लगी पत्थर चिनकर निकाली गई बेंच और इनका टाप अपेक्षाकृत एक साथ पटालों पर बैठने की सरल व्यवस्था। कक्ष के एक किनारे बुखारी और धुंए को बाहर ले जाती कमरे के दीवारों में घूमती नाली, जो आग जलाते ही पूरे कमरे को गर्म कर देती। यह ऊर्जा संवहन एवं संरक्षण का नायाब प्रयोग था। वास्तु के अनुरूप इससे जुड़ी रसोई और एक बहुत आरामदेह शयन कक्ष। लाॅरी द्वारा विकसित इस पहाड़ी घर के आकार के गुफानुमा तलघर का संयोजन आगे चलकर ‘रैट टेªप बाउंड’ शैली के नाम से पहचाना गया। यह सही मायनों में लाॅरी की अपनी अत्यधिक सीमित जरूरतों का घर था, किसी भी दिखावे से दूर, वैभव रहित किन्तु अत्यधिक सहज और सुविधाजनक।

1950 के दशक में लॉरी परिवार पिथौरागढ़ में न केवल चिकित्सा सेवाएं दे रहा था, बल्कि शिक्षा, साक्षरता की दृष्टि से अत्यधिक पिछडे़ इस इलाके के लिए शिक्षा सुविधा के विस्तार हेतु कार्य करने लगा। इस क्रम में प्राइमरी स्कूल छेड़ा, गोरंगचैड़ में स्थानीय लोगों की सहभागिता पर पूर्व माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया और अनेक विपन्न परिवारों के बच्चे इन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने लगे। एक अमेरिकी बुजुर्ग महिला होसिंगर फिशर के ‘विलेज लिटेªसी’ अभियान में लाॅरी ने प्रौढ़ शिक्षा व महिला साक्षरता हेतु कार्य किया। इसके लिए साक्षरता भवन डिजाइन किया। अन्ततः यह भवन पिथौरागढ़ में न बनकर लखनऊ में बना। ग्रामीण क्षेत्र के मानसिक रोगियों हेतु दवाखाना व आश्रय स्थल भी लॉरी ने अमेरिकी व दक्षिण भारतीय मनोचिकित्सकों की टीम के लिए डिजाइन किया। इस दशक के उत्तरार्ध में अकसर ही लॉरी पिथौरागढ़ के लूसी डब्ल्यु. सलोमन गल्र्स स्कूल, भाटकोट और मिशन इण्टर कालेज में शिक्षा व शिक्षणेतर क्रियाकलापों में रुचि लेने लगे थे।

पिथौरागढ़ के टाउन हाल के उद्घाटन के अवसर पर मंचित नाटक के सैट लाॅरी ने तैयार किये। मिशन इण्टर कालेज के दुर्गादास, लवकुश काण्ड नाटक हेतु मंच सज्जा और सेटों की भव्यता आज भी याद की जाती है। मिशन स्कूल के हॉल में सीता के पृथ्वी में समा जाने के दृश्य हेतु डायस में बीचोंबीच एक कट लगाकर दड़बा बनवाया जिससे बड़े स्वाभाविक कलात्मक ढंग से सीता के पृथ्वी में समाये जाने का सीन विस्मय और आकर्षण का केन्द्र बना। इस हाल का डिजाइन भी लाॅरी द्वारा ही दिया गया था। ये ही वे दिन थे जब लॉरी पिथौरागढ़ के प्रबुद्ध समाज में अपनी अलग पहचान बना सके। इस व्यक्तित्व के प्रति एक गहन आकर्षण हम मिशन भाटकोट के नाटकों में हिस्सा लेने वाले नन्हे छात्रों में तब था और लंबी कदकाठी के इस अंगे्रज को कस्बे से चण्डाक की ओर पैदल जाते देखना जाने क्यों अच्छा लगता था।

सन् 1960 के आते-आते विस्तारवादी चीन की तिब्बत में सामारिक गतिविधियां तेज हो गईं और पिथौरागढ़ का सीमान्त संवेदनशील हो गया। चीन के आक्रमण को लेकर भय और संशय का वातावरण कस्बे में था। ठीक इन दिनों प्रदेश सरकार की ओर से बेकर से सरकारी इमारती और सार्वजनिक भवनों की निर्माण लागतों को न्यूनीकृत करने के विकल्पों के विषय में बातचीत की गई और तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त के बुलावे पर लॉरी लखनऊ पहुँचे और उन्हें लखनऊ स्थित अभिलेखागार का डिजाइन तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया। विदेशी नागरिक होने के कुतर्क के आधार पर लॉरी को यह स्थान छोड़ने को विवश किया गया। इस तरह लॉरी तथा एलिजाबेथ 1963 में चण्डाक पिथौरागढ़ को छोड़ कर चले गये।

सोर से समन्दर

हिमालय से बिछुड़े तो फिर धुर दक्षिण में केरल के समुद्र तट से लगी पहाड़ियों में ठौर बनाई। यह ग्रामीण क्षेत्र में स्थित वैकामोन गांव था। जहां कुछ आदिवासी और कुछ तमिल प्रवासी रह रहे थे। पिथौरागढ़ की भांति बेकर परिवार ने यहां विद्यालय, कुष्ठ रोग निवारण केन्द्र व दवाखाने आदि निर्मित करवाये। यहां भी लॉरी ने स्थानीय लोगों की परम्परागत भवन निर्माण शैली का अनुसरण कर स्थानीय संसाधनों का प्रयोग निर्माण कार्य में किया।

लाॅरी को केरल में कार्य की परिस्थितियां बेहतर लगने लगीं। अपने पिथौरागढ़ के उपयोगी अध्ययन, निष्कर्षों को केरल की जमीन में कार्य रूप देना आरम्भ किया और उन तमाम निम्म मध्यम आय वर्ग के मेहनतकश लोगों के लिए मिट्टी, बांस-नारियल की जटाओं व पत्तों के प्रयोग से मजबूत न्यून लागत घर निर्माण की मुहिम छेड़ दी। आरम्भ में लॉरी उपहास के पात्र बने। उनके हम पेशा वास्तुशिल्पज्ञों द्वारा प्रचारित हुआ कि लॉरी इजिप्ट के हासनफादी की भांति मिट्टी के घर बनवा सकते हैं, वे वास्तुविद् नहीं हैं। लॉरी इससे तनिक विचलित नहीं हुए, अपनी तरह की घर निर्माण प्रक्रिया में वे उन हजारों छत विहीन लोगों से सम्मान पाते रहे, जो गरीब निम्न आय वर्गी अपनी जरूरतों का घर लॉरी से बनवा लेते। इस दौर में भी लॉरी ने गांधी की परम्परा व आदर्श को आगे बढ़ाया और लॉरी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व, व्यवहार उन्हें वास्तविक अर्थों में समाजसेवक, गरीबों के हमदर्द के रूप में पहचान दिला सका। केरल के आदिवासी एवं मछुवारों की पूरी बस्ती बनाकर लॉरी ‘छोटे घरों के शिल्पी’ के रूप में चर्चित हुए और उनकी ‘लो कौस्ट हाउसिंग’ की गूंज केरल से बाहर पूरे देश में गूंजी।

काफी वर्षों के बाद लॉरी कुष्ठ रोग निवारण अभियान में सेवाएं देने त्रिवेन्द्रम आ गये और अपने वास्तु अध्ययन के दायरे को विविधता देते हुए पारम्परिक भवन डिजाइन में आवश्यक परिवर्तनों के साथ उच्च मध्यम वर्गीय केरलवासियों को मकानों के डिजाइन देने लगे। ये मकान न तो लोहा, सीमेण्ट, कंक्रीट से लदे थे, न ही दिखने में वैभवशाली, लेकिन कम लागत पर अपनी तरह के अनूठे सौन्दर्य को लिये ध्यान खींचने वाले थे। बेकर स्टाइल में बने इन घरों की दीवारें लाल ईंटों से चिनी होतीं। जिनके जोड़ फेरो सीमेण्ट से जुडे़ साफ सुथरे दिखाई पड़ते, क्योंकि दीवारों पर प्लास्टर नहीं होता। मेहराबों के साथ आड़ी-तिरछी विभिन्न तलों पर गहरी ढालू छतें होतीं और ये छतें सीमेण्ट की न होकर कठोर नारियल जटाओं, चीनी मिट्टी के विभिन्न आकार वाली टाइल्स के टुकड़ों को संजो कर बेहद मजबूती से जुड़ी होती। लीक से हटकर इस वास्तु विधा पर लॉरी द्वारा डिजाइन व निर्मित तिरुअनंतपुरम की ‘सेण्टर फार डेवलपमेंट स्टडीज’ की इमारत, इण्डियन टी हाउस तथा अनेक कॉफी हाउस, केन्द्र भवन, आठ मंजिला पुस्तकालय की इमारत, चर्च, अस्पतालों के साथ आईएएस अधिकारियों के निवास हेतु बनी कालोनी में इमारतों की विविधता, आकार व स्वरूप में सामांजस्य निश्चित ही लॉरी के कलाकार मन, अनूठी दृष्टि और सौन्दर्य मीमांसा का अद्भुत मंजर प्रस्तुत करती है।

केरल राज्य में लॉरी की प्राकृतिक सौन्दर्य से पूर्ण, पुरावास्तु का एहसास कराने वाली इस कम लागत भवन निर्माण तकनीकी को सर्वस्वीकृति मिलने में समय जरूर लगा, लेकिन समय के साथ लाॅरी को समझने वाले लोग तथा इनके कद्रदान मिले। शिष्यों की जमात ने कम कीमत पर छोटे सुंदर घरों के निर्माण अभियान को त्वरा दी और सागर तट पर यह खुशनुमा बयार बह चली।

लाॅरी का भारत के प्रति लगाव, उनकी सामाजिक कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता, सेवा भाव, मानवता, साथ में गहन गांधीवादी चिंतन मनन व बहुजन हिताय वास्तु शोध निश्चित ही उन्हें एक निष्काम मनुष्य के रूप में स्थापित करता है। देर से ही सही उन्हें यह पहचान मिली। 1989 में भारतीय नागरिकता पा लेने के बाद 1991 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म सम्मान से नवाजा। 1992 में उन्हें ‘वल्र्ड हैविटाट एवार्ड’ मिला और एक कदम आगे इसी वर्ष उनका नाम ‘पित्तजर पुरस्कार’ हेतु भी नामित हुआ।

हाँ, हमने लॉरी को देखा है

1993 जनवरी में पहाड़ टीम के सदस्य सपरिवार दक्षिण भारत की यात्रा में त्रिवेंद्रम पहुंचे। मन में लॉरी से मुलाकात की प्रबल इच्छा थी। चेतन-अचेतन में लॉरी से सम्पर्क के रास्ते ढूंढ रहे थे। तभी संयोगवश हम एक टावरनुमा काफी हाउस में काफी पीने पहुँचे। लीक से हट कर बने काफी हाउस को देख हमें लगा कि यह लॉरी का काम हो सकता है। मैनेजर से बात की तो उन्होंने बड़े सम्मान से लॉरी बेकर का नाम लिया। हमने कहा कि हम लॉरी से मिलना चाहेंगे। उसने हमारी बात लॉरी से करा दी और लॉरी ने बड़ी गर्मजोशी से अपने आवास पर पहुँचने का निमंत्रण दिया।

अगले दिन लॉरी के आवास पहुँचने में कठिनाई नहीं हुई। ‘हैमलेट’ के द्वार पर पहुँचे तो उसकी सादगी भरी बनावट और दोमंजिले भवन को देखा तो पाया कि यह बदलते हुए समय के अनुरूप लॉरी की अपनी जरूरतों का एक बेहद सादगीभरा आकर्षक घर है। बातों के सिलसिले चले और लॉरी चण्डाक पिथौरागढ़ की गहन सुखद यादों में खो गये। एक-एक कर उन्होंने मिशन, भाटकोट, सिल्थाम, धर्मशाला, सिमलगैर, नई-पुरानी बाजार, पुनेठा पुस्तक भण्डार के वर्तमान हाल जानने चाहे। पिथौरागढ़ में पचास के दशक में शिक्षा-शिक्षण से जुड़े मि. ग्रीनवल्र्ड, समसून मास्टर साहब, विजय सिंह, मोहन सिंह मल्ल, नंदबिहारी पंत, देवीदत्त जोशी, पदमादत्त पंत, डी. एल. साह, भुवन चन्द्र पन्त, वकील रामदत्त चिल्कोटी, गंगाराम पुनेठा, खीम सिंह चेयरमैन, डॉ. त्रिलोकी पंत एवं चण्डाक के हैदरबख्श, जीतसिंह, अहमद बख्श आदि के विस्तार से हालचाल जाने।

लॉरी ने अपनी डायरी तथा कुछ पुरानी पेंटिंग्स निकाली, जिनमें बजेटी-घुड़साल, सिलपट्टा-असुरचूला, सिकड़ानी-चण्डाक के चित्र थे। मिलम के मकानों के अनेक रेखांकन दिखाये। कुछ समय के लिए ‘हैमलेट’ नालनचीरा का वातावरण पिथौरागढ़मय हो गया। जिस लगाव के साथ लॉरी ने पिथौरागढ़ के अनुभव अपनी स्मृतियों में संजोये थे उससे लगा कि चण्डाक लॉरी की चाहत की पर्वतीय बसासत रही। ऐलिजाबेथ व लॉरी को हमने पिथौरागढ़ आने का निमंत्रण दिया, लेकिन ढलती उम्र में यात्रा से जुड़ी परेशानियों के कारण वे पिथौरागढ़ नहीं आ सके।

1 अप्रैल 2007 को नब्बे वर्ष की उम्र में लारी की सेवा से भरपूर, आदर्श एवं उर्वर जीवन यात्रा में तो विराम लगा, लेकिन वास्तुशास्त्र की अनूठी सोच व बहुजन हिताय स्थानीय संसाधनों से घर निर्माण की देशज शैली की यात्रा केरल से गुजरात, मध्य पश्चिम भारत होते हुये उनके चहेते पिथौरागढ़ में भी अवश्य पहुँचेंगी क्योंकि आत्मिक सुख आवश्यकताओं के न्यूनीकरण व प्रकृति के साथ रहने में ही है।

घुमक्कड़, छायाकार, समाज विज्ञानी, शिक्षाविद डा. ललित पन्त पहाड़ के संपादकों में से एक है. अस्कोट आराकोट अभियान से लेकर पहाड़ द्वारा आयोजित अनेक हिमालयी अध्ययन यात्राओं के द्वारा हिमालय को समझने मैं जुटे रहे . हिमालय की आर्थिकी और पलायन पर आपने गहन शोध अध्ययन किया है.  पारंपरिक हिमालय पारीय व्यापार और राजी जनजाति का समाज शाश्त्रीय अध्ययन डा. पन्त के शोध अध्ययन के केंद्रीय विषय रहे हैं.

1 thought on “लारी बेकर – आम लोगों का असाधारण वास्तुविद

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