रणबीर रावल – एक वैज्ञानिक का असमय जाना

रणबीर बहुत सम्वेदनशील था। नैनीताल के विद्यार्थी काल, पंत संस्थान के वैज्ञानिक और फिर निदेशक के रूप में वह हर बार नये सवालों से रूबरू होता था। मुझे याद है कि अनेक बार एस.पी. सिंह, जयन्ता बन्द्योपाध्याय, हेम पाण्डे, जे.एस. मेहता आदि तमाम मित्रों के साथ हो रही चर्चा के केन्द्र में ये नये आयाम होते थे। जिस तरह वह लगातार पत्राचार करता था, वैज्ञानिकों की दो-तीन पीढ़ियों से बात करता रहता था, उससे भी उसकी कर्मठता का अन्दाज आता था।

शायद 1979 की बात होगी। मैं अपने गाँव (पठक्यूड़ा, गंगोलीहाट) गया था। वहाँ जाने पर कालिका मंदिर जाना एक स्वाभाविक कार्यक्रम होता था। मंदिर में भोग का भात खाने का अलग आनन्द था। कभी रावल परिवारों के बुजुर्ग बकरी की सिरी भी देते थे। बचपन से यह मैं देखता आ रहा था। इस बार जब गया तो दिल्दा (दिलीप सिंह मास्साप) मंदिर में मिल गये। आज मंदिर में उनकी बारी थी। उन्होंने भोग का भात खिलाया और एक सिरी भी दी। इसी बीच एक नन्हा स्वस्थ बालक आया। उन्होंने उससे कहा, “नमस्ते कहो ये नैनीताल में प्रोफेसर हैं।“ (उन दिनों प्रवक्ता को भी प्रोफेसर कह देते थे, जैसे सिपाही को कप्तान सा‘ब)। फिर मुझे बताया कि, “ये रणबीर है। मेरा बड़ा बेटा। अभी कक्षा नौ में पड़ रहा है। इन्टर के बाद तो नैनीताल ही आयेगा।“

यह मेरे मन में रणबीर रावल (26 अप्रैल 1965-24 अप्रैल 2021) की पहली तस्वीर थी। समय जाने में क्या देरी लगती है? जून 1982 में रणबीर के इन्टर का रिजल्ट आते ही दिल्दा का पत्र आया कि वे बेटे को लेकर जुलाई में नैनीताल आयेंगे। तहीं वह एडमीशन लेगा। कुछ ही हफ्तों के बाद एक दिन फिर उनका पत्र मिला कि रणवीर ने बी.एससी. बायो ग्रुप में पिथौरागढ़ कालेज में प्रवेश ले लिया है। 1984 में उसने बी.एससी. प्रथम श्रेणी में पास किया। फिर वह कानून की पढ़ाई या सिविल सर्विस की तैयारी के बहाने इलाहाबाद गया पर वहाँ वह नहीं रम सका। दिल्दा ने परामर्श दिया कि उसको एम.एससी. करनी चाहिये।

नैनीताल में बदलाव

शायद जुलाई 1985 में पिता पुत्र नैनीताल पहुँचे और मैंने देखा कि रणबीर इन 5-6 सालों में बड़ा हो गया था। जैसे 3-4 साल पहले मैंने उसके बेटे ऋषभ को देखा था ठीक वैसा ही तब वह मुझे दिखा। जब हमारी बात हुई और राय पूछी तो मैंने स्वाभाविक रूप से कहा कि रणबीर को रसायन, वनस्पति और जीवविज्ञान में से एक विषय चुनना है। अब उसे ही अपनी पसन्द बतानी चाहिये। मैंने कुछ सोचकर कहा कि वनस्पति विज्ञान तुम्हारे लिये सबसे अच्छा विषय हों सकता है। पहला तो यह कि इसमें ज्यादा रास्ते आगे खुल सकते हैं। दूसरा यह कि इस विभाग में बहुत अच्छे शिक्षक हैं। प्रो. जे.एस. सिंह के आने से विभाग की प्रतिष्ठा और बढ़ गई है। इकोलाजी पर शोधकार्य भी बढ़ेगा। पंत संस्थान तथा एफ.आर.आई. में भी रास्ते खुलेंगे। उसने धीरे से बताया कि मैं वनस्पतिविज्ञान में प्रवेश लेने का निर्णय लेकर आया हूँ।

कुछ समय बाद उसके लिये एडवोकेट चन्दोला के घर में आवास ढूंढ लिया गया। दिल्दा का हुक्म था कि तुम्हारे घर के करीब ही रणबीर का डेरा होना चाहिये। मैं उसका स्थानीय संरक्षक रहा। उसका भाई और बुआ का बेटा भी उसके साथ अध्ययन के लिये नैनीताल आ गये। नैनीताल में वह खिलता गया पर खुला ज्यादा नहीं। अपने अति सामाजिक पिता के विपरीत वह अन्तर्मुखी था। अपने काम में जुटा हुआ। छुट्टी के दिन वे लोग हमारे पास आते और कभी मैं उनके डेरे तक हो आता। कभी दिल्दा आ गये तो दो-चार दिन लगातार ही मुलाकात होती। कालेज में तो मिलते ही थे। 1987 में उसने एम.एससी. प्रथम श्रेणी में पास किया और डॉ. यशपाल पाँगती के निर्देशन में शोधकार्य शुरू किया। अक्सर चार बजे तल्लीताल को उतरते समय मैं डॉ. पाँगती की लैब में चाय पीने रुक जाता था। वहीं उनके शोधार्थी काम में डूबे होते थे। इन शोधार्थियों में मुझे रणबीर, शेरसिंह सामन्त के अलावा उनके सीनियर गोपाल रावत, बी.एस. कालाकोटी आदि की याद है, इन सबने आगे डी.एस.बी. का नाम रोशन किया।

पंत संस्थान की पहली पीढ़ी

1991 में वनस्पतिविज्ञान में रणबीर ने डाक्टरेट प्राप्त की। उसका विषय सरयू नदी के उपरी जलागम में विभिन्न उँचाइयों (1600 से 3400 मीटर तक) पर स्थित वृक्ष प्रजातियों के विश्लेषण (Analysis of woody vegetation along altitudinal gradient (1600 – 3400 m) of upper Sarju catchment, Kumaun Himalaya) से सम्बंधित था। कुछ समय वह प्रोजैक्ट्स में काम करता रहा। 1993 में उसने गोविन्द बल्लभ पन्त हिमालयी पर्यावरण तथा विकास संस्थान में ‘डी.एस.टी. यंग साइन्टिस्ट’ के रूप में काम करना शुरू किया। 1997 में वैज्ञानिक के रूप में स्थाई पद प्राप्त किया। संस्थान में युवा और प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का समूह विकसित होने लगा।

धीरे धीरे वह ‘एफ’ श्रेणी का वैज्ञानिक तथा जैवविविधता संरक्षण औैर प्रबंधन प्रभाग का प्रमुख बना। कैलास पवित्र क्षेत्र सीमापारीय शोध परियोजना का वह शुरू से ही प्रमुख रहा और उसके अन्तर्गत उसने अनेक महत्वपूर्ण कार्य समुदायों के बीच किये। इस कार्य में उसने स्थानीय समुदायों के साथ देश के युवाओं को जोड़़ा। इसी के अन्तर्गत उसने ‘संगजू’ जैसी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो ग्रामीणों के बीच भी जाती थी।

धीरे धीरे रणबीर ने अनेक उप अनुशासनों में काम विकसित किया। उच्च हिमालयी पारिस्थितिकी, पर्यावरण शिक्षा, बहुदेशीय पवित्र साँस्कृतिक क्षेत्र प्रबन्धन, उच्च हिमालय में वनस्पतियों के स्वरूप, अस्कोट अभयारण्य में संरक्षण तथा विकास, ठण्डे रेगिस्तानी क्षेत्र में संरक्षण प्रबंधन का स्वरूप; जड़ी बूटियों तथा अन्य खाद्य पौघों की पोषक, औषधि महत्ता तथा उत्पादन; पर्यावरण संरक्षण शिक्षा, जल स्रोतों के संरक्षण आदि पर महत्वपूर्ण शोधकार्य के साथ नीति निर्माण तथा कुछ परियोजनाओं के माध्यम से कार्यान्वयन भी शुरू किया।

उसने ‘हिमालयन यंग रिसर्चर्स फोरम’ की स्थापना कर उनके बीच सम्पर्क तथा सम्वाद के रास्ते बनाये। अनेक बार अनेक विषयों के अनुभवी विशेषज्ञों को बुला कर उनसे युवा शोधार्थियों का सम्वाद कराया। प्रकृति व्याख्या तथा शिक्षण केन्द्र के विकास में भी उसका योगदान रहा। कटारमल में ‘सूर्यकुंज’ के रूप में यह दर्शनीय केन्द्र देखा जा सकता है।

निदेशक का संक्षिप्त कार्यकाल

मई 2018 में वह संस्थान का निदेशक नियुक्त हुआ। निदेशक बनते ही बताया गया कि उसने सभी रुकी हुई नियुक्तियों और पदोन्नतियों का कार्य पूरा किया। लम्बित परियोजनाओं को चालू करने का बीड़ा उठाया। विभिन्न केन्द्रों को, जो भारत के अलग अलग हिमालयी प्रान्तों में हैं, अधिक सक्रियता प्रदान करने का प्रयास किया। युवा वैज्ञानिकों के बीच सम्वाद बढ़ाया। 2018 के सालाना उत्सव के मौके पर उसने यह इच्छा जाहिर की कि वह और उसके साथी हिमालय के समाज विज्ञानियों से संस्थान के साथियों और शोधार्थियों का सम्वाद करना चाहते हैं। दुर्भाग्य से यह मौका नहीं आ पाया। 2020 का साल और अभी तक का समय कोविड की बलि चढ़ गया और वह खुद इसका शिकार बना।

योगदान

रणबीर के 150 से अधिक शोधपत्र तथा 10 किताबें प्रकाशित हुई हैं। उसने दो बड़े बहुअनुशासनी परियोजनाओं को सम्पन्न किया। 19 आरडी प्रोजैक्ट किये। 10 शोधार्थियों का पीएचडी का निर्देशन किया। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के पर्यावरण शाखा की अध्यक्षता की तथा दर्जनों राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया। संस्थान के अलग अलग केन्द्रों (श्रीनगर, मनाली, गैंगटोक, इटानगर और लेह) में इस संस्थान ने हिमालय से जुड़े बिषयों पर शोध कार्य तथा विभिन्न परियोजनायें चला कर एक महत्व का कार्य किया। संस्थान ने हिमालय क्षेत्र के विश्वविद्यालयों तथा अन्यत्र हिमालय पर काम कर रहे वैज्ञानिकों को भी जोड़ा। इसीमोड सहित तमाम अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों से रिश्ता कायम रखा। निदेशक के रूप में अपने छोटे से कार्यकाल में उसने लद्दाख में संस्थान की शाखा खोलने में सफलता प्राप्त की। यह एक बड़ी उपलब्धि थी।

आज से 25 साल पहले जब ए.एन. पुरोहित कटारमल परिसर का प्रारम्भिक कार्यकलाप देखने के साथ संस्थान की रूपरेखा को विकसित कर रहे थे, तो अनेक लोग यह नाउम्मीदी जताने लग गये थे कि इतने अन्तर्वर्ती क्षेत्रों में यह संस्थान या इसकी शाखायें सुचारू काम कर पायेंगी कि नहीं। संस्थान को कहीं और ले जाने का प्रयास भी हुआ। अनेक वैज्ञानिकों को दिल्ली ही इसके लिये उपयुक्त जगह लगती थी। पर संस्थान विकसित हुआ और आगे बढ़ता गया। औपनिवेशिक दौर के अनेक संस्थानों को हम कम गतिशील या निर्जीव कर चुके हैं। जैसे पहली तरह के संस्थानों में एफ.आर.आई., आई.वी.आर.आई. मुक्तेश्वर तथा चौबटिया फल संरक्षण तथा शोध केन्द्र आदि हैं। दूसरी तरह के समाप्तप्राय संस्थानों में रक्षालस संस्थान, पटवाडांगर तथा भवाली सैनीटोरियम आदि आते हैं। पंत संस्थान की तरह कुछ संस्थान नये भी बने जैसे देहरादून का वन्यजीव संस्थान, आदि।

इस बीच उत्तराखण्ड के विश्वविद्यालयों में आई गिरावट चर्चा में रही। एकाएक कुछ लोग विश्वविद्यालयों को चलाने लायक पाये गये और एक बार तो एक प्रतिभा को अस्थाई कार्य के लिये भी आगरा से लाया गया। नेतृत्व की सोच इतनी छोटी रही कि जब एक नये केन्द्रीय विश्वविद्यालय को बनाने और विश्वविद्यालय का नगर बसाने का अवसर आया तो एक प्रतिष्ठित और तीन दशकों से अधिक समय से शैक्षिक तथा शोध कार्य में योगदान दे रहे विश्वविद्यालय पर उसे थोप दिया। इससे लगभग एक हजार नये रोजगार गये तथा एक नया शहर जन्म नहीं ले सका। जब प्रान्तीय विश्वविद्यालय बनाने का मौका आया तो पहले अल्मोड़ा में एक मुख्यमंत्री ने एक आवासीय विश्वविद्यालय बनाया, जो ठीक से चलना भी शुरू नहीं हुआ था कि दूसरे मुख्यमंत्री ने उसे बन्द कर 70 से अधिक साल पुराने कालेज को, जो 48 साल से कुमाऊँ विवि का सबसे बड़ा परिसर है, को नया विश्वविद्यालय घोषित कर दिया। यानी कुछ भी नया नहीं किया। निजी विश्वविद्यालय तो फैल रहे ही हैं।

पंत संस्थान को इसके तमाम निदेशक और वैज्ञानिक यहाँ तक ले आये हैं। आगे भी इसको अपनी हिफाजत करनी होगी। यह दो तरह से हो सकता है। अपने तमाम मौलिक काम करते हुये। दूसरे अपनी आन्तरिक कमजोरियों पर नियंत्रण कर। तीसरे विज्ञान सम्मत कामों में किसी भी तरह का दबाव अस्वीकार कर। यदि वैज्ञानिक ही सच्चाई नहीं प्रस्तुत नहीं करेंगे और उसके प़क्ष में खड़े नहीं होंगे तो फिर समाज किससे उम्मीद करेंगा?

रणबीर पर कुछ बातें

रणबीर बहुत सम्वेदनशील था। नैनीताल के विद्यार्थी काल, पंत संस्थान के वैज्ञानिक और फिर निदेशक के रूप में वह हर बार नये सवालों से रूबरू होता था। मुझे याद है कि अनेक बार एस.पी. सिंह, जयन्ता बन्द्योपाध्याय, हेम पाण्डे, जे.एस. मेहता आदि तमाम मित्रों के साथ हो रही चर्चा के केन्द्र में ये नये आयाम होते थे। जिस तरह वह लगातार पत्राचार करता था, वैज्ञानिकों की दो-तीन पीढ़ियों से बात करता रहता था, उससे भी उसकी कर्मठता का अन्दाज आता था।

रणबीर की सम्वेदनशीलता तथा अपने शोधार्थियों के प्रति अभिन्नता का संकेत उसके उस पत्र से मिलता है जो उसने 1 अप्रैल, 2020 को उन्हें भेजा था। पत्र की शुरूआत में ही उसने कहा था कि कोविड 19 ने एक अनिश्चितता पैदा कर दी है। हमें अपनी राह में धुंध दिख रही है। इससे मन मस्तिष्क में नकारात्मकता पैदा हो सकती है। पर इसमें अवसर की संभावना भी रहती है। उसने एक अमेरिकी अध्यात्म चिन्तक एकहर्ट टौले को उद्धृत किया था कि जब हम अनिश्चितता के साथ तालमेल बिठा लेते हैं तो हमारी जिन्दगी में अनन्त संभावनायें भी पैदा हो जाती हैं।

आगे उसने लिखा था कि अनिश्चितता के विरुद्ध सिर्फ सृजनशीलता का ही इस्तेमाल हो सकता है। इस अकेलेपन का इस्तेमाल मौलिक और सृजनात्मक शोध में कर सकते हैं। उसने युवा शोधार्थियों से कहा था कि अनिश्चितता का संकट उन्हें मजबूत, उर्वर तथा स्थापित शोधार्थी बनने में मदद देगा। अपनी छिपी प्रतिभा खोजिये। उसने अन्त में यह भी लिखा था कि उनके किसी भी तरह के सृजनात्मक काम की प्रदर्शनी सामान्य स्थिति आने पर संस्थान लगायेगा।

वह सबको जोड़े रहता था। अपने अल्मामाटर – डी.एस.बी. – में जाना उसने कभी नहीं छोड़ा। किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में वह तैयारी से शामिल होता। पूर्व निदेशकों से निरन्तर सम्पर्क में रहता और उनका परामर्श लेने के साथ, नयी योजनाओं की उनको सूचना देता। उसके न रहने पर जिस तरह की भावना ए.एन. पुरोहित और एस.पी. सिंह सहित अन्य वरिष्ठ सहयोगियों ने प्रकट की वह उसकी प्रतिभा और निर्विवाद रास्ता विकसित करने वाली शैली का संकेत देती है।

उनके दादा देवसिंह पटवारी थे। जोहार जैसे दूरस्थ इलाके में वे लम्बे अर्से तक रहे। कुछ संयोग ऐसा है कि रणबीर ने लम्बे समय तक उच्च हिमालय की पारिस्थितिकी पर काम किया। कैलास परियोजना ने भी उसको तीन देशों के उच्च हिमालय से जोड़ा। उसके पिता दिलीप सिंह रावल (वे मेरे शिक्षक रहे) तथा माँ भागीरथी ने उसका मानस बनाया। माँ से गम्भीरता और पिता से अनुशासन तथा खेलों के प्रति रुझान उसे मिला था। उसके भाई खष्टी और होशियार, पत्नी प्रमिता और पुत्र ऋषभ उसको सदा सहयोग देते रहे। इन सबने उसे घर परिवार के कामों से मुक्त कर दिया था।

कुछ संयोग ऐसा है कि रणबीर के पिता 54 वे साल में चले गये और रणबीर 55 वें साल में। जब अपने संस्थान को नई दिशा देने का अवसर उसे मिला, इतने प्रतिभाशाली सहयोगियों की टीम उसके साथ थी, तब वह चला गया। कितना उत्साह था उसमें। कभी कभी दिक्कतें भी अनुभव करता था। संस्थान की स्वायत्तता की सीमायें भी समझता था। शायद इसका एक ही उत्तर है कि उसके सहयोगी निराश न हों और नये निदेशक भी। संस्थान के शुभचिंतक अपना योगदान देते रहें। हमारा देश या हिमालय क्षेत्र इस संस्थान से बहुत उम्मीदें रखता है।

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