सामी आदिवासी

यह लेख 2016 में ‘सामी आदिवासी’ नाम से प्रकाशित पुस्तिका के अंशों को जोड़ कर बनाया गया है। पहाड़ पोथी के इस प्रकाशन के लेखक श्री सईद शेख़ हैं।

विश्व राजनीति के क्षितिज पर उपनिवेशवाद के उदय के साथ ही सारे संसार के आदिवासियों के पृथक्ककरण, दमन और उत्पीड़न की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी । विभिन्न अधिनियमों व अन्य संहिताओं के तहत उन्हें उनके पैतृक क्षेत्रों से कष्टकर स्थितियों में धकेल हाशिये पर जीने को विवश किया गया। उनकी भूसम्पदा को हथियाया गया, आजीविका के साधन समाप्त किये गये, उनकी संस्कृति को समूल नष्ट करने की चेष्टा की गई और यह सब राज्यों की शह पर हुआ। जो कुछ कसर थी उसे ईसाई धर्म प्रचारकों ने आदिवासियों को ‘सभ्य’ बनाने के बहाने उन्हें उनके मूल से – संस्कृति, परम्परा, जीवन, शैली से दूर करने की चेष्टा की। फै़न्नो-स्कानडिया व रूस के कोला प्रायद्वीप के सामी आदिवासी ऐसी ही सामाजिक राजनीतिक बदलाव प्रक्रिया की एक कड़ी हैं। सामी आदिवासियों पर यह लेख श्री सईद शेख़ ने लिखा है।

साप्मी उस सांस्कृतिक क्षेत्र का नाम है जिसमें सामी जन रहते हैं। गैर-सामी और बहुत सारे क्षेत्रीय मानचित्र इसी क्षेत्र को लैपलैण्ड कह कर पुकारते हैं। सामी जनजाति के लोग फन्नो-उग्रिक आदिवासी हैं जो उत्तरध्रुवीय क्षेत्र के साप्मी राष्ट्र में निवास करते हैं। यह क्षेत्र नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड, रूस के कोला प्रायद्वीप के दूरस्थ उत्तरी क्षेत्रों और स्वीडन व नार्वे के दक्षिण व मध्य सीमा तक फैला हुआ है। सामी स्केंडिनाविया के एकमात्र आदिवासी हैं जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी समझौतों के तहत मान्यता और सुरक्षा प्रदान की गई है। सामी क्षेत्र लगभग 388,350 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। उनकी पारम्परिक भाषाएँ सामी भाषाएँ हैं और जिनका वर्गीकरण यूराली भाषा परिवार की एक शाखा के रूप में किया जाता है।

सामी आदिवासियों के बारे में लिखते हुए किसी एक विशिष्ट क्षेत्र पर केन्द्रित करना कठिन है क्योंकि आदिकाल से ही वे एक-दूसरे से घनिष्ठ एकबद्घता में रहे हैं जिसका एक बड़ा कारण यह है कि वे इन क्षेत्रों में तब से बसने लगे थे जब राज्यों की सीमाओं का निर्धारण नहीं हुआ था और न ही आज के निवासी यहाँ वास करते थे। दूसरा कारण सामी आदिवासियों की आजीविका का एक मूल स्रोत रेनडियर (हिरण की एक प्रजाति) पालन है, जिनके लिए चरागाहों की खोज में वे विभिन्न देशों की सीमाओं से आवा-जाही करते रहते हैं।   

आज सामी आदिवासी उत्तरी सामी, लूले सामी, पिते सामी, उमे सामी, दक्षिणी सामी, इनारी सामी, स्कोल्त सामी, किल्डिन सामी, तेर सामी जैसी भाषाएँ बोलते हैं, हालांकि अक्कला सामी, केमी सामी, काइन् सामी जैसी बोलियाँ आज विलुप्त हो चुकी हैं ।

इतिहास

प्रागैतिहासिक काल से उत्तरध्रुवीय यूरोप के सामी आदिवासी उस क्षेत्र में रहते और काम करते आ रहे हैं जो अब नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड और रूसी कोला प्रायद्वीप कहलाता है। वे फ़ैन्नो-स्कानडिनेविया और रूस के उत्तरी उत्तरध्रुवीय और उप उत्तरीया्रुवीय क्षेत्रों में कम से कम 5,000 वर्षों से रहते आ रहे हैं। शिलालेख और पुरातत्वीय खोजें से पता चलता है कि उनके आवास लगभग 10,000 वर्ष ई़ पूर्व के हैं। उत्तर पुराप्रस्तर और आदि मध्य युग के शिकारियों और संचयकों की इस पुरातत्वीय संस्कृति के लिए अब विलुप्त हो चुका शब्द कोम्सा था। पिछले हिमयुग के अंत में (11,000 और 8000 वर्ष ई़पू़) कोम्सा पीछे हटते हिमनदों से अनावृत होती धरती पर उत्तर ध्रुवीय समुद्रतट से आये थे क्योंकि अब वहाँ बसना सम्भव हो गया था (जैसे आधुनिक फ़िनमार्क के पूर्वोत्तर क्षेत्र से कोला प्रायद्वीप के समुद्रतट तक)।

नॉर्वी समुद्री सामियों के उद्गम

1349 में ताऊन के उत्तरी नॉर्वे में पहुँचने तक सामी और नॉर्वी लोग अलग-अलग आर्थिक क्षेत्रों में रहा करते थे। सामी अपनी आजीविका के लिए रेनडियर का आखेट करते और मछली पकड़ते थे। नॉर्वी बाहरी द्वीपों और फ्योड़ों के बाह्य क्षेत्रों में केन्द्रित थे जो वृहत यूरोपीय व्यापार मार्गों से जुड़े हुए थे और न्र्डलांड गोम्स व फ़िनमार्क के प्रांतों में थोड़ी-बहुत खेती करते और दक्षिण के उत्पादों की अदला-बदली के लिए मछली पकड़ते थे।

दिसम्बर 1349 में उत्तरी नॉर्वे में ताऊन के आने से सामाजिक, आर्थिक संतुलन में बड़ा बदलाव आया। अंदरूनी क्षेत्रों के बनिस्बत बाहरी क्षेत्रों में रहने वाले नॉर्वी सामी वृहत यूरोपीय व्यापार मार्गों से जुड़े होने के कारण ताऊन से ज्यादा  संक्रमित हुए और मरे। इस इलाके के सारे राज्यों में से नॉर्वे को ताऊन से सबसे अधिक क्षति उठानी पड़ी थी। दरअसल संक्रमित पिस्सुओं से उपजी महामारी के आने का कारण  लकड़ी के वो पीपे थे जिनमें गेहूँ, राई या ऊन भरा होता था. इनमें पिस्सू कई माह तक जीवित रह सकते और प्रजनन कर सकते थे।

समुद्रतटीय क्षेत्रों में स्थाई रूप से रहने वाले सामीयों के लिए मछली पकड़ना आजीविका का प्रमुख साधन था। पुरातत्वीय खोजों से पता चलता है कि अतीत में सामी समुद्रतट के किनारे रहते थे और कभी सुदूर दक्षिण में भी रहा करते थे. वे रेनडियर पालन के अतिरिक्त अन्य काम भी किया करते थे जैसे मछली पकड़ना, कृषि, लुहारी आदि। नॉर्वे के उत्तरी समुद्रतट कई तरह की मछलियों के कारण बहुत लाभकारी हैं और मध्य युग में वह मटुआरों और राजशाही के लिए आय के प्रमुख स्रोत थे ।

पर्वतीय सामी

समुद्री-सामी नॉर्वे के फ्योर्डों और अंतर स्थलीय जल धाराओं के किनारे मिले-जुले तौर पर कृषि, पशुपालन, फंदा-शिकार और मछली पकड़ते हुए बसे थे। पर्वतीय-सामीयों के एक छोटे समूह ने जंगली रेनडियर का शिकार करना जारी रखा। सोलहवीं शताब्दी के आसपास उन्होंने इन पशुओं को पालतू बनाना शुरू कर उनके गल्ले बनाये। जिस कारण वे विख्यात रेनडियर खानाबदोश कहलाने लगे। यह उल्लेखनीय है कि पर्वतीय-सामियों को तीन राष्ट्र-राज्यों- नॉर्वे, स्वीडन और रूस को कर भुगतान करना पड़ता था जब वे रेनडियरों के वार्षिक देशान्तरण के दौरान उनके पीछे-पीछे अलग-अलग देशों की सीमाएँ पार करते थे। इस कारण कई वर्षों तक गहरी कटुता बनी रही। स्वीडन ने नासाफ्यैल की खदानों में सामियों को बेगार करने के लिए विवश किया जाता था जिस कारण बहुत सारे सामी उस क्षेत्र से भाग खड़े हुए।

उन्नीसवीं शताब्दि के बाद

बहुत लम्बे समय तक, सामी जीवन शैली पनपती रही क्योंकि उसे उत्तरध्रुवीय परिवेश के अनुसार ढाल लिया गया था। उन्नीसवीं शताब्दि के दौरान उत्तरी नॉर्वे के नॉर्वियों को मछली के व्यापार में मंदी से घाटा उठाना पड़ा था।  बहरहाल, उन्नीसवीं शती के दौरान नॉर्वीयों ने नॉर्वी भाषा और संस्कृति को सर्वसार्विक करने के लिए सामी संस्कृति पर दबाव डाला। उत्तर का बहुत अधिक आर्थिक विकास हुआ जिसने नॉर्वी संस्कृति व भाषा को प्रतिष्ठित किया। यद्यपि स्कूलों में सामी भाषा निषिद्घ कर दी गई थी।

1913-1920 में स्वीडीय जाति-पृथक्कीकरण नीति ने एक जैविक संस्थान की स्थापना की जो जीवित लोगों, कब्रों से अनुसंधान सामग्री एकत्रित करता था। यही नहीं वह सामी महिलाओं का वन्ध्यीकरण भी करता था। इस  दौरान आबादकारों को भूमि और जल जैसे अधिकारों में प्रोत्साहन, कर और सैन्य सेवा में छूट देकर उत्तरी क्षेत्रों में बसने के लिए प्रेरित किया गया। सबसे अधिक दबाव लगभग 1900 से 1940 में पैदा हुआ जब नॉर्वे ने सामी संस्कृति को मिटाने के लिए बहुत अधिक पैसा और प्रयास लगाया। विशेषकर, कोई भी जो फ़िनमार्क में राज्य की भूमि खेती के लिए खरीदना या किराये पर लेना चाहता था उसे नॉर्वी भाषा के ज्ञान को प्रमाणित करना पड़ता था और एक नॉर्वी नाम के साथ पंजीकरण करवाना होता था। इसने अंतत: 1920 में न केवल सामी जनों का विस्थापन किया बल्कि स्थानीय सामी समूहों के बीच की खाई को बढ़ा दिया । परिणामस्वरूप कभी-कभी एक आंतरिक सामी जाति द्वंद्व का रूप धारण कर लेता है।

अगस्त 1986 में सामी जनों का राष्ट्रगान ‘‘सामी सोगा लाव्ल्ला’’ और साप्मी राष्ट्र का ध्वज रचे गये। 1989 में नॉर्वे में पहली सामी संसद के चुनाव हुए। 2005 में फिनमार्क अधिनियम नॉर्वी संसद में पारित हुआ। इस कानून द्वारा सामी संसद और फिनमार्क-प्रान्तीय परिषद को, उन भू क्षेत्रों का जो पहले राज्य की सम्पत्ति माने जाते थे, संयुक्त प्रशासन का अधिकार दिया गया। ये क्षेत्र (प्रान्तीय क्षेत्र का 96 प्रतिशत) जिसका उपयोग अतीत से मूलत: सामी करते आ रहे थे अब प्रमाणिक तौर पर प्रांतवासियों की सम्पत्ति है चाहे वे सामी हों या फिर नॉर्वी,  नॉर्वी राज्य की नहीं।

प्राकृतिक संसाधनों की खोज

साप्मी बहुमूल्य धातुओं, तेल और प्राकृतिक गैस में समृद्घ है। उत्तर-ध्रुवीय क्षेत्र साप्मी में खनन गतिविधियों के कारण तब विवाद उठ खड़ा होता है जब वे रेनडियरों के चरागाहों और उनके प्रजनन स्थलों में होती हैं। सामी संसद ने फिनमार्क क्षेत्र में खनन योजनाओं को अस्वीकार कर दिया था। सामी संसद की माँग है कि स्रोतों और खनिजों के उत्खनन से प्रमुख तौर पर स्थानीय सामी समुदायों और जनता को लाभ होना चाहिए क्योंकि प्रस्तावित खानें सामी धरती पर हैं और वे उनकी अपनी पारम्परिक आजीविका को बनाये रखने की उनकी क्षमता को प्रभावित करेंगी। तेल का बिखरना मछली पकड़ने और रास्तों के निर्माण को प्रभावित करता है। बिजली की लाइनें रेनडियर प्रजनन क्षेत्रों और पवित्र स्थलों की पहुँच को रोकती हैं।

वनों का खुला कटान

उत्तरी फिनलैण्ड में लम्बे समय से जंगलों के नष्ट किये जाने को लेकर विवाद चल रहा था जो रेनडियरों को मौसमी चरागाहों के बीच जाने से रोकता है और उस शैवाक (लाइकेन) आपूर्ति को नष्ट करता है जो पुराने पेड़ों की ऊपरी शाखाओं पर पैदा होता है। यही शैवाक शीतकाल में रेनडियर के जीवित रहने का एकमात्र स्रोत होता है। जंगलों का कटान राज्याधीन वन योजना के नियंत्रण में है। औद्योगिक कटान अब सबसे महत्वपूर्ण वन क्षेत्रों से या तो स्थाई तौर पर पीछे धकेल दिया गया है या फिर अगले बीस वर्षों के लिए रोक दिया गया है। उत्तरी नॉर्वो और स्वीडन में सरकारों और नाटो ने हजारों वर्ष से रेनडियरों के प्रजनन और ग्रीष्म स्थलों की तरह उपयोग में लाये जाने वाले सामी क्षेत्रों में बमबारी अभ्यास मैदानों (रेंजों) का निर्माण किया है।

भू अधिकार

स्वीडीय सरकार ने संसार के विशालतम समुद्रतटीय पवन-विद्युत उत्पादक संयंत्रों के समूह के पिनेऑ में निर्माण की अनुमति दी है जो उस उत्तर-ध्रुवीय क्षेत्रों में है जहाँ पूर्वी किक्केयाउरे गाँव में शीत रेनडियर चारागाह हैं। पवन-विद्युत उत्पादन समूह में 1,000 से अधिक टरबाइन और एक व्यापक सड़कों का जाल होगा जिसका अर्थ होगा कि उस क्षेत्र में शीत चराई असम्भव होगी। नॉर्वे में कुछ सामी राजनीतिज्ञों (उदाहरणार्थ आइली केस्कीतालो) ने सुझाव दिया है कि सामी संसद को उत्खनन परियोजनाओं पर विशेष वीटो अधिकार दिया जाना चाहिए।

हाल ही में सामी आदिवासियों ने एक पेयजल खोज परियोजना को रोक दिया जिससे प्राचीन तीर्थ स्थल और सुत्तेसाया कहलाने वाले प्राकृतिक जल स्रोत को विश्व बाज़ार के लिए एक विशाल बोतल भरने वाले कारखाने में बदल जाने का खतरा था और यह भी स्थानीय सामी जनों को सूचना दिये या उनसे परामर्श किये बिना, जबकि वे आबादी के 70 प्रतिशत हैं।

मौसम का बदलाव और पर्यावरण

शायद धरती के किसी भी क्षेत्र से कहीं अधिक,उत्तर के आदिवासियों के लिए रेनडियरों का प्रमुख सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व है उत्तर-ध्रुवीय क्षेत्र आदिवासी लोगों की विशिष्ट जीवन शैली। उत्तर में जैसे रेनडियरों का चराया जाना मानव-पर्यावरणीय व्यवस्था के बदलाव के प्रति संवेदनशील हैं।

1986 में चेर्नोबिल नाभिकीय दुर्घटना से संवेदनशील उत्तर-ध्रुवीय पारिस्थितिक जीवनतंत्रों पर रेडियोधर्मी कचरा बरसा था और इसने मछली, मांस व सरस फलों को विषाक्त कर दिया। शैवाकों में हवाई रेडियोधर्मी कचरा एकत्रित हो गया था और मात्र स्वीडन में ही मानव खपत के लिए अनुचित मानकर 73,000 रेनडियर नष्ट कर दिये गये थे। रेडियोधर्मी कचरा और चुका हुआ नाभिकीय ईधन कोला प्रायद्वीप के तट के जल में जमा किये गये हैं ऐसे स्थलों में भी जो उन जगहों से जहाँ सामी रहते हैं मात्र ‘दो किमी़’ की दूरी पर हैं।

संस्कृति

अतीत के दमन को सुधारने के लिए नॉर्वे, स्वीडन और फिनलैण्ड के अधिकारी अब सामी सांस्कृतिक संस्थानों का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं और सामी संस्कृति व भाषा को प्रोत्साहित कर रहे हैं।

डुओडयी

डुओडयी, सामी शिल्प, उस समय उत्पन्न हुआ था जब सामी आत्मनिर्भर घुमंतू थे। उनका विश्वास था कि वस्तु को सजावटी होने के बजाय एक उद्देश्य को पूरा करने वाला होना चाहिए। पुरुष अधिकतर लकड़ी, हड्डी और सीगों का उपयोग सींग के हत्थे वाले नक्काशीदार सामी टुरे, ढोल और गुक्सी (गाँठ के प्याले) बनाने में करते हैं जैसे। स्त्रियाँ चमड़े और जड़ों का प्रयोग गाक्ती (वस्त्र) बनाने में करती थीं और भूर्ज-व देवदार की जड़ों से कम्बल बनाती थीं।

गाक्ती पारम्परिक पोशाक होती है जिसे सामी पहनते हैं। गाक्ती समारोहिक अवसरों और काम करते हुए, विशेष तौर पर रेनडियरों के झुंडों की रखवाली करते हुए, दोनों में ही अवसरों पर पहनी जाती हैं। पारम्परिक तौर पर गाक्ती रेनडियरों की खाल और तंतुओं से बनायी जाती थी लेकिन आजकल ऊन, सूत या रेशम का इस्तेमाल आम है।

महिलाओं की गात्की में विशिष्ट रूप से एक पोशाक होती है, एक झब्बेदार शॉल होता है जो 1-3 चाँदी की जड़ाऊ पिनों से बाँधा जाता है और बूट/जूते रेनडियर के समूर-या चमड़े से बने होते हैं। बूटों में नुकेले या घुमावदार पंजे हो सकते हैं और उनमें अक्सर हाथ से बुने हुए टखनों की लपेटने होती हैं। पूर्वी सामी बूटों में रेनडियर-समूर बूट के पंजे गोलाईदार होते हैं जिनमें जड़ाऊ नमदे का अस्तर होता है। स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग तरह की गाक्ती होती हैं, पुरुषों की गाक्ती में एक अपेक्षाकृत छोटा ‘जैकेट-स्कर्ट’ होता है बनिस्बत महिलाओं के लम्बे घाघरे के। पारम्परिक गाक्ती आमतौर पर लाल, नीले, हरे, सफेद, चर्मशोधन के मध्य-भूरे विभिन्नता के रंगों वाली या रेनडियर समूर की होती है। शीतकाल में एक अतिरिक्त रेनडियर के समूर का कोट और टंगत्राण और कभी-कभी एक पोनचो (लुहक्का) व रस्सी/लास्सो होते हैं।

गाक्ती के रंग, पैटर्न और आभूषण इंगित करते हैं कि व्यक्ति कहाँ का निवासी है, अविवाहित है या विवाहित, कभी-कभी वह उनके कुटुम्ब तक के लिए विशिष्ट हो सकता है।

टोपियाँ लिंग, मौसम और क्षेत्र के अनुसार होती हैं। वे कढ़ी हुई हो सकती हैं या फिर पूर्व में वे बहुत कुछ एक तरह का मनका का काम करने वाले कपड़े का शीर्ष, एक शॉल के साथ। वे ऊन, चमड़े या समूर की हो सकती हैं। कुछ पारम्परिक शमानीय टोपियों में पशु-चमड़ियाँ, सलवटें और पंख होते हैं, विशेषकर पूर्व साप्मी में।

उत्सव और मेले

पूरे साप्मी क्षेत्र में सामी संस्कृति को लेकर विभिन्न उत्सव मनाने की परंपरा रही है. नॉर्वी क्षेत्र में मनाया जाने वाला सबसे विख्यात पर्व ‘रिड्डु रिड्डु’ है। यद्यपि दूसरे भी हैं जैसे इनारी में ‘इयाहिस इडया’। बसंतकालीन रेनडियरों के समुद्रतट की ओर देशांतरण से पहले काउतोकेइनो और करासयोक में होने वाले ईस्टर उत्सव महत्वपूर्ण हैं। इन उत्सवों में पारम्परिक संस्कृति, आधुनिक घटनाएं होती हैं; जैसे-हिमवाहनों की दौड़ें।

समसामयिकी

आज अधिकांश सामी आदिवासी आबादी का नगरीकरण हो चुका है फिर भी एक बड़ी संख्या उत्तर-ध्रुवीय क्षेत्र के ऊपरी इलाकों के गाँवों में रहती है। सामी अभी भी उनके बच्चों की पीढ़ियों को मिशनरियों और/या राज्य द्वारा व्यवस्थित छात्रावास स्कूलों में ले जाये जाने और उन कानूनों, जो सामी आदिवासियों को उनके धर्म, भाषा, भूमि के अधिकारों से और पारम्परिक आजीविका के साधनों से वंचित करने के लिए बनाये गये थे, के भाषायी और सांस्कृतिक परिणामों को आज भी झेल रहे हैं। सामी सांस्कृतिक के साथ-साथ तेल की खोज, खनन, बाँधों का निर्माण, जंगलों का खुला कटान, जलवायु परिवर्तन, सैनिक बमबारी मैदान, पर्यटन और व्यावसायिक विकास जैसे पर्यावर्णीय खतरों का अनुभव कर रहे हैं।

यह लेख 2016 में सामी आदिवासीनाम से प्रकाशित पुस्तिका के अंशों को जोड़ कर बनाया गया है। पहाड़ पोथी के इस प्रकाशन के लेखक श्री सईद शेख़ हैं। श्री सईद शेख़ 15 अगस्त 1941 को भवाली (नैनीताल) में स्व. हाफिज़ मुहम्मद अब्बास और स्व. गुलाब बीबी के घर जन्मे थे। भवाली और डीएसबी, नैनीताल की शिक्षा (वे क्रैंक्स के सदस्य थे) के बाद कुछ साल इलाहाबाद और दिल्ली में रह कर वे 1977 से फिनलैंड के तुर्कू नगर में रहते हैं। आप मूलतः एक कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं पर पत्रकारिता और धुमक्कड़ी भी खूब की। अब भी करते हैं और हर साल अपने जन्म स्थान आते हैं।

कुछ कहना चाहते हैं?

पहाड़ के बारे में कुछ!