तिलाड़ी काण्ड – उत्तराखण्ड का जालियाँवाला बाग

तिलाड़ी काण्ड की पृष्ठभूमि वनों के सीमांकन के साथ ही बन चुकी थी जब स्थानीय ग्रामीणों को उन्हे उन्हीं के जंगलों की सीमा पर बाँध दिया गया। टिहरी राजदरबार द्वारा लगातार ब्रिटिश साम्राज्यवादी माडल को इन क्षेत्रों में लागू किया जा रहा था, जिसमें वनों को अकूत संपत्ति अर्जित करने का स्रोत मान लिया गया था।

रवाईं घाटी के बड़कोट कस्बे में यमुना नदी के किनारे डेढ़ कि.मी. दूर बाए छोर पर लगभग दो किलोमीटर में फैला विस्तृत मैदान है जिसे तिलाड़ी के नाम से जाना जाता है। 30 मई, 1930 को इसी मैदान में टिहरी राज्य के दीवान चक्रधर जुयाल ने निहत्थे ग्रामीणों पर कई राऊण्ड गोलियाँ चला बड़ी संख्या में लोगों को मार डाला था। इस घटना में कुछ लोग जान बचाने के लिए यमुना में कूद गए, कुछ जंगलों में छिप गए, और कुछ राज्य छोड़ ब्रिटिश जौनसार-बावर में चले गए। तिलाड़ी में घटी यह घटना आज भी उत्तराखण्ड में जालियाँवाला बाग जैसे काण्ड की याद ताजा करती है।

रंवाई-जौनपुर के श्रमसाध्य समाज का वनों से अटूट रिश्ता रहा है क्यूंकि उनकी रोज़मर्रा की आवश्यकता के बहुत से उत्पाद वनों से प्राप्त होते थे। टिहरी रियासत के नीति नियंताओं ने जब इस इलाको के वनों का इस्तेमाल राजकोष को बढ़ाने  के लिए किया तो सदियों से चली रही परम्परागत अर्थव्यवस्था विखंडित होने लगी। परिणामस्वरुप यहाँ के वाशिंदों ने रियासत के नए वन बंदोबस्तों का खुले आम विरोध करना आरम्भ कर दिया। वे विद्रोही हो चले थे। ब्रिटिश राज के दौरान स्थानीय जमींदारों एवं ब्रिटिश अधिकारियों ने जिस तरह जनजातीय इलाकों में घुसपैठ की थी, उससे स्थानीय जनजातीय सास्थानिक स्वरुप बिगड़ने लगा था। कमोबेश यही हाल रवाई-जौनपुर के जनजातीय इलाके का भी था। नए वन कानूनों ने उन्हें नैसर्गिक अधिकारों से वंचित कर दिया था, जिसने उन्हें बगावत करने पर मजबूर किया। ये बगावतें ढंडक कही गईं।

उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी की अधिकांश ढंडकें नयी भू-व्यवस्था व वन्य व्यवस्था से उपजे असंतोष का परिणाम थीं। प्राचीन काल से ही टिहरी रियासत के ग्रामीण इलाकों में जंगल की भूमि व उत्पादों के उपभोग पर स्थानीय निवासियों का निर्बाध अधिकार था। 1793 ई. Œमें गढ़वाल की यात्रा में आए विदेशी यात्री हार्डविक ने अविभाजित गढ़वाल के राज दरबार में घोषणा की कि उसने इतनी बेमिसाल वनसंपदा पहले कभी नहीं देखी।

यह उल्लेखनीय है कि इस दौर में राज्य द्वारा लोगों को लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा था कि वे कृषि का विस्तार वन क्षेत्रों तक कर सकते हैं। क्योंकि कृषि भूमि से प्राप्त राजस्व रियासत की आर्थिकी का मुख्य आधार था। लोगों को हाल ही में वनों को काट कर तैयार की गई कृषि भूमि पर काश्तकारी का पूर्ण अधिकार दिया जाने लगा था। गोरखा शासनकाल के दौरान खेतों को उजड़ने, अकाल व भूंकप की विभिषिका से 1815 ई. Œके आसपास तक टिहरी राजतंत्र के अधिकांश ग्रामीण इलाके बियाबान हो गए थे। इस समय तक वन राज्य की संपति की परिधि के बाहर थे। पहली बार टिहरी दरबार को वनों के मूल्य का अहसास तब हुआ जब एक अंग्रेज मिस्टर विल्सन ने टिहरी दरबार से जंगली जानवरों को मारने और उनके फर, कस्तूरी, मोनाल के पंख आदि को मसूरी बाजार में बेचने की इजाजत ली, साथ ही साथ उसने इस कारोबार को इग्लैण्ड तक पहुँचाया। 1850 ई. में विल्सन ने एक मोटी धनराशि टिहरी दरबार के देकर भागीरथी व टौंस इलाके के देवदार के जंगलों को पट्टे पर लिया। बड़े व छोटे जंगली उत्पादों का निर्यात करने से लेकर पहाड़ी इलाकों में लकड़ियों के जल परिवहन की तकनीक का इस्तेमाल और हर्षिल क्षेत्र में सेब का वृक्षारोपण कर बगीचों का प्रचलन भी उसने ही किया था। दरअसल विल्सन ने ही पहली बार इस इलाके में वनों के वाणिज्यिक कारोबार की शुरुआत की और सन् 1864 तक टिहरी दरबार द्वारा विल्सन को पट्टे पर जंगल दिए जाने का सिलसिला चलता रहा। सन् 1867 में उत्तर-पश्चिम प्रांत की स्थानीय सरकार ने 10 हजार रु. सालाना राशि में इन जंगलों को पट्टे पर लिया। टिहरी राजतंत्र के अन्तर्गत आने वाले वनों के दोहन का यह सिलसिला निर्बाध गति से सन् 1880 तक चलता रहा।

शहीद स्मारक

25 अप्रैल, 1913 को कीर्तिशाह की मात्र 39 वर्ष की अवस्था में मृत्यु के परिणामस्वरूप उत्तराधिकारी के रुप में अल्पवयस्क नरेन्द्रशाह गद्दी पर बैठाए गए, लेकिन शासन की बागडोर एक राजप्रतिनिधि मंडल के हाथों में सौपी गई, जिसकी अध्यक्ष रानी नेपालिया थी। कालांतर में रानी की अस्वस्थता के चलते एक अंग्रेज आई.सी.एस. अधिकारी मि.एफ.सी.सेमियर को राज प्रतिनिधि मण्डल का अध्यक्ष बनाया गया। छः वर्ष बाद 04 अक्टूबर,1919 को राजा नरेन्द्रशाह ने सीधे शासन करना प्रारम्भ किया। नरेन्द्र शाह के शासनकाल के दौरान शासन में कई नए सुधार किए गए। फलस्वरूप अनेक परम्परागत सामंतीय प्रथाएँ एवं परम्पराएँ समाप्त हुई।

इसी दौर में प्रशासन को चलाने के लिए महाराजा टिहरी की अध्यक्षता में तीन पार्षदों की परिषद् का गठन किया गया। अब वे मंत्री कहे जाने लगे जो विभागीय सचिवों से ताकतवर बनकर उभरे। सन् 1929-30 के रवाईं काण्ड की पृष्ठभूमि में उक्त प्रशासनिक फेरबदल काफी हद तक जिम्मेवार था। दरबार के भीतर विभिन्न गुटों की मौजूदगी से भविष्य मे अस्थिरता की ओर जाने की संभावना थी। रियासत के अंदर जोध सिंह नेगी और  दीवान भवानी दत्त उनियाल के बीच की वैमनस्यता के चलते चक्रधर जुयाल को रियासत के अन्दर गृह-सदस्य के रुप में नियुक्त किया गया। लेकिन कुछ समय बाद भवानी दत्त एवं चक्रधर जुयाल के बीच दूरिया बढ़ती चली गई। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ षड़यंत्र रचने लगे।

राजा प्रतापशाह (1871-1886) के शासनकाल से ही टिहरी रियासत की जनता वन संबंधी समस्याओं को लेकर बार बार शिकायत करती चली आ रही थी। वन संबंधी नए कानून के लागू होने से पशुपालन एवं कृषि अर्थव्यवस्था के लिए पैदा हो रही विषम परिस्थितियों के कारण ढंडकियों द्वारा समय-समय पर शिकायतें दर्ज करने का सिलसिला बढ़ता चला गया। प्रतापशाह के शासनकाल से पहले वनों में वाणिज्यिक दोहन, संरक्षण संबंधी प्रथाएं और गांवों व वनों से सीमांकन को लेकर राज्य कमोबेश ही उदासीन रहा। ग्रामीणों को औषधीय पादपों, वन्य उत्पादों को बेचने की इजाजत थी, जिसे वे देहरादून व मसूरी के व्यापारियों को बेचते थे और बदले में कपड़े, बर्तन, चांदी, सोना व नकदी हासिल किया करते थे। लेकिन प्रतापशाह ने इन सभी प्रथाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस बदलाव से ग्रामीण जनता न केवल आक्रोशित हुई वरन वन-अधिकारियों के अनुचित एवं अमानवीय व्यवहार के चलते आहत भी होती चली गई।

वनों पर ग्रामीणो के पारंपरिक प्राकृतिक अधिकार एवं प्रगतिशील राज्य के स्वामित्व का दावा करने वाले टिहरी दरबार के बीच धीरे धीरे उपज रहे अन्तर्विरोध ने भविष्य के सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों की नींव रखी। टिहरी दरबार समय के साथ-साथ जंगलों के जबरदस्त दोहन के प्रति सचेत होता चला गया। अब राज्य ने लकड़ी के दुरुपयोग, पालतू पशुओं द्वारा जंगलों में अतिचारण जैसी गतिविधियों पर बंदिश लगानी आरंभ कर दी। बिना इजाजत के जंगलों में किसी भी गतिविधि को अंजाम देने पर जुर्माने का प्रावधान रखा गया था। वन संसाधन का उपयोग अब प्राकृतिक अधिकार की परिधि से बाहर हो गया था।

दरअसल तिलाड़ी काण्ड की पृष्ठभूमि वनों के सीमांकन के साथ ही बन चुकी थी जब स्थानीय ग्रामीणों को उन्हे उन्हीं के जंगलों की सीमा पर बाँध दिया गया। टिहरी राजदरबार द्वारा लगातार ब्रिटिश साम्राज्यवादी माडल को इन क्षेत्रों में लागू किया जा रहा था, जिसमें वनों को अकूत संपत्ति अर्जित करने का स्रोत मान लिया गया था।

सन् 1925 में टिहरी दरबार द्वारा वनों को राज्य के सीधे नियंत्रण में लाया गया, वनों के सर्वेक्षण व इनको व्यवस्थित करने के उद्देश्य से एक सुविख्यात जर्मन विशेषज्ञ डा. Œफ्रेज हेस्के को निमंत्रित किया गया। हेस्के की सिफारिशों को लागू करते हुए 1929-31 में वन बंदोबस्त संबंधी कार्यक्रम क्रियान्वित किए गए। सिफारिशों में इस बात पर अधिकाधिक जोर दिया गया कि उपजाऊ जमीन से अधिक से अधिक राजस्व की वसूली की जाए व जंगलों को आम आदमी की पहुंच से बाहर रखा जाए। चारागाहों को या तो उपजाऊ जमीन में रुपांतरित किया जाने लगा या फिर आरक्षित वन के रुप में। परिणामस्वरुप जंगल में पशु चराने की परंपरा पर प्रतिबंध लग गया क्यूंकि ऐसी भूमि को अब आरक्षित वन घोषित कर दिया था।  

राजदरबार लगातार वन संसाधनों को आम आदमी की पहुँच से बाहर करना चाहता था। हाल के वर्षो में वनों से प्राप्त आय राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत बन चुका था। अकेले टौंस प्रभाग से टिहरी दरबार को जबरदस्त आय हासिल हुई थी। टौंस घाटी के वनों से प्रत्येक वर्ष 20,000 देवदार के पेड़ निर्यात किए गए। अटकलों का बाजार गर्म था।  अफवाह थी कि समस्त भूमि बिना ग्रामीणों की सहमति के अधिग्रहीत कर ली जाएगी। लोगों को भाय सताने लगा था कि कहीं उन्हें पारंपरिक अधिकारों से वंचित न होना पड़े, जैसे-छत की स्लेट के खनन, बंजर भूमि का स्वामित्व न समाप्त हो जाय।

यूं भी अब तक वन अधिकारियों के अक्खड़ एवं असभ्य व्यवहार ने ग्रामीणों को उत्तेजित कर दिया था। वन संबंधी कामचलाऊ बन्दोबस्त से जुड़े छोटे से छोटे कर्मचारी का व्यवहार ग्रामीणों को विरोध करने पर मजबूर करता गया। 1931 के दौरान समस्त रवाईं व जौनपुर की जनता नए वन बन्दोबस्त को शक की निगाह से देखने लगी, हर जगह असंतोष, उत्तेजना का माहौल दिखाई देने लगा था। हदबंदी के सीमांकन वन अधिकारियों के बदलते तेवर एवं अनुचित व्यवहार एवं बहुत से वन अधिकारों से वंचित हो जाने के भय से इन इलाकों के कृषक राजदरबार के प्रति लामबंद होने लगे। लोगों को डर था कि एक बार हदबंदी का काम पूरा हुआ नहीं- जंगल उनके लिए बंद कर दिए जाएंगें। नए सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक बदलाव, दरबार के आन्तरिक संघर्षो राज्य प्रशासन की गलत आन्तरिक नीतियों  एवं नए वन बन्दोबस्त ने रवाईं एवं जौनपुर के लोगों को ‘ढंडक’ करने को मजबूर कर दिया था।  

नरेन्द्र शाह के शासनकाल के दौरान विशेषत सन् 1927-28 में वनों को लाभ अर्जित करने का सबसे बड़ा माध्यम बनाने के लिए सुरक्षा व्यवस्था के बहाने कड़े नियम बनाकर वनों का सीमांकन किया गया तो रवाईं-जौनपुर के निवासी अपने ही घर में कैदी जैसा जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हो गए। एक क्षण में ही जंगल उनके लिए बेगाने हो चले थे। उन्हीं दिनों अफवाह फैली थी कि वन बन्दोबस्त के आदेशानुरुप कोई भी परिवार एक भेड़, एक गाय एवं एक बैल ही रख सकता है। ज्यादा पशुओं को रखने की स्थिति में कर चुकाना होगा। कृषक शिकायत कर रहे थे कि संरक्षित वन के आसपास बहुत कम जमीन छोड़ी गयी थी। बिना अनुमति के किसी भी सूखे पेड़ की टहनियों को काटना अब जुर्म हो गया था। ग्रामीणों ने राजदरबार को कई अभ्यावेदन भेजे लेकिन जब उन्हें लगा कि कोई जवाब नहीं आने वाला तब अंतिम हथियार के रुप में प्रतिकारात्मक ‘ढंडक’ की परंपरा आरंभ हुई। ‘ढंडक’ बहुत जल्द ही रवाईं- जौनपुर परगने में फैल गया  ढंडकियों ने दरबार को एक टेलीग्राम भेजा। जिसमें अभ्यर्थना की गई कि राजा स्वयं इस मामले में हस्तक्षेप करे।

उत्तराखंड का जलियाँवाला बाग

यही नही टिहरी दरबार द्वारा प्रशासन के तथाकथित आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने भी ग्रामीणों को अपने प्राकृतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। आधुनिकीकरण के नाम पर राज्य का प्रशासनिक अमला लगातार ब्रिटिश साम्राज्यवादी माडल को लागू करने पर आमादा था। दीवान चक्रधर जुयाल के बढ़ते प्रभाव के कारण प्रशासनिक अमला और भी अव्यावहारिक हो चला था।

नए वन अधिनियम लागू होने के कारण रवाईं के लोगों में असंतोष फैलने लगा था। रवाईं जौनपुर के कृषकों द्वारा राजशाही के खिलाफ बगावत की आधारशिला रखते हुए चांदाडोखरी  में संघर्ष समितियों के समानांतर केन्द्रीय स्तर पर “आजाद पंचायत” का गठन किया गया। जिसके अध्यक्ष दयाराम सिंह रावत (कन्सेरु गांव) उपाध्यक्ष हीरा सिंह चैहान (नगाण गांव), कोषाध्यक्ष कमल सिंह (डख्याट गांव), मंत्री बैजराम (खमुण्डी, गौडर), संयोजक लाला राम प्रसाद (;राजतर) मुख्य सदस्य धूम सिंह (चक्रगांव), दलीप सिंह और लुदर सिंह (बड़कोट गांव), जमन सिंह राणा (कन्सेरु) आदि थे। इसी बीच डी.एफ.ओ. पद्मदत्त रतूड़ी तथा एस.डी.एम. सुरेन्द्रदत्त नौटियाल की कुछ आन्दोलनकारियों से बातचीत हुई, जिसमें दोनों अधिकारियों ने कुछ लोगों को दोषी बताते हुए राजगढ़ी में मुकदमा चलाकर जेल भेजने का आदेश दिया। इस फैसले से लोग और भी उत्तेजित हो गए। दूसरी ओर प्रशासन द्वारा दोषियों को जब टिहरी जेल भेजने की तैयारी हो रही थी तभी डंडाल गांव के पास आन्दोलनकारियों ने अपने साथियों को छुड़ाने का प्रयास किया।  अपने बचाव में आक्रोशित पद्मदत्त रतूड़ी ने उत्तेजना में पिस्तौल निकालकर फायर झोंक दी एक गोली एस.डी.एम. के पैर मे भी लगी जिससे वह घायल हो गया। इस मुठभेड़ मे नंगाण गांव के किशन सिंह, जूना सिंह तथा अजीत सिंह गोलियों के शिकार हो कर शहीद हो गए। हड़बड़ी में पद्मदत्त रतूड़ी तथा सिपाही भाग खड़े हुए।

ढंडकी अपने गिरफ्तार नेताओं दयाराम, रुद्रसिंह, रामप्रसाद, जमनसिंह को छुड़ाकर व घायल एस.डी.एम. सुरेन्द्रदत्त नौटियाल तथा मृतक साथियों के शव लेकर राजतर की और चल पड़े। दीवान चक्रधर जुयाल को जब इस पूरे घटनाक्रम का पता चला तो वो नैनीताल की ओर रवाना हुआ, वहां उसने कुमाऊँ कमिश्नर व टिहरी रियासत के पालिटीकल एजंट एन.सी.स्टेफी से मुलाकात की। स्टेफी ने पूरे घटनाक्रम को सुना और दीवान से कहा कि आंदोलनकारियों के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई की जाए। जुयाल 26 मई को नरेन्द्रनगर लौटे और उसी दिन सेना को मार्च करने को कहा। टोली के कमांडर कर्नल सुरेन्द्र सिंह के इंकार करने पर उसे बर्खास्त कर दिया गया। दीवान ने सेना की कमान खुद अपने हाथों में ली व रवाईं की ओर प्रस्थान करने लगा।

30 मई, 1930 को दीवान तेजी से तिलाड़ी की और बढ़ा, जहा ढंढकी भविष्य की रणनीतियों को तैयार करने हेतु बड़ी  संख्या में इकठा थे। दीवान ने आंदोलनकारियों के पास संदेश भिजवाया था कि वो आत्मसमर्पण कर लें लेकिन उनका कहना था कि जब तक हीरासिंह को छोड़ा न गया तब तक वे शांत नहीं बैठेंगे। 30 मई को दीवान ने तिलाड़ी में एकत्रित निहत्थे ग्रामीणों पर कई राऊण्ड गोलियां चलाई, जिससे सैकड़ों की संख्या में लोग मारे गए। कुछ लोग जान बचाने के लिए यमुना में कूद गए, कुछ जंगलों में छिप गए और कुछ ब्रिटिश जौनसार-बावर में चले गए। शहीदों के धागुले (चांदी के कड़े)एवं सोने के दुरटे (कान के कुंडल) सैनिकों ने उतार लिए। इतना ही नहीं गिरफ्तार आंदोलनकारियों से मैदान में बिखरी की लाशों को इकट्ठा कराया गया तथा उनके मुँह पर कोलतार लगाकर बोरो  में बंद कर यमुना में बहा दिया गया। मृतकों के मुँह पर कोलतार लगाने के पीछे यह कारण था कि लाश मिलने पर आसानी से व्यक्तियों की शिनाख्त न हो सके।

164 लोगों की गिरफ्तारिया हुई, जिन्हें नरेन्द्रनगर जेल भेजा गया। 80 लोगों को छोड़ दिया गया, शेष को एक दिन से लेकर 12 वर्ष की जेल की सजा सुनाई गयी। एक अनुमाननुसार इस काण्ड में 100 लोग शहीद हुए हालांकि आधिकारिक रिकार्ड के अनुसार इस घटना में केवल 4 लोग शहीद हुए व 2 घायल हुए तथा 194 को जेल की सजा हुई।  

रवाईं-जौनपुर की ढंडक कहीं न कहीं ब्रिटिश भारत में चल रहे महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित थी। ढंडकियों ने सरकार के समानांतर आजाद पंचायत का गठन किया था, जिसकी कमान हीरासिंह व बैजनाथ के हाथों में दी गयी थी।

बाहरी दुनिया को रियासत के अंदर घटी इस घटना के बारे में बहुत समय बाद पता चला जब कुछ समाचार पत्रों ने  रवाईं काण्ड से जुड़ी घटनाओं का खुलासा किया। विभिन्न समाचार पत्रों के द्वारा तिलाड़ी काण्ड की निंदा से क्रोधित दीवान ने ‘हिन्दू संसार’, ‘गढ़वाली’ एवं अन्य अखबारों के संपादकों पर मानहानि का मुकदमा तक दायर कर डाला था। ‘गढ़वाली’ के संपादक विशंभरदत्त चंदोला ने संपादकीय नैतिकता का परिचय देते हुए उस व्यक्ति के नाम का खुलासा नहीं किया, जिसने इस घटना को लेकर उन्हे पत्र से सूचित किया था। इस कृत्य के लिए चंदोला को दोषी ठहराते हुए एक वर्ष की कैद एवं जुर्माने की सजा सुनाई गई।  

दरअसल उपनिवेशी दबावों के चलते राज दरबार एवं जनता के बीच बदलते आर्थिक संबंधों ने रवाईं के किसानों की तकलीफ बढ़ाई। वे अपने ही संसाधनों से जब बेदखल कर दिए गए तो स्वाभाविक रूप से विरोध ही उनका अंतिम हथियार था। आज रवाईं की ढंडक कृषक संघर्ष का प्रतीक बन गई हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए एक भावनात्मक प्रेरणा। खासकर युवा राजनीतिक-आंदोलनकारियों एवं राष्ट्रवादियों के लिए। आज एक बार फिर तिलाड़ी की घटना यह भी सोचने को मजबूर करती है कि अपने स्वार्थ के लिए राज्य अपनी प्रजा पर किस सीमा तक निर्दयी एवं निर्मम हो सकता है!

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