उत्तराखंड में रामलीला की परंपरा

उत्तराखंड में रामलीला मंचन में समसामयिक विषयों एवं घटनाक्रमों को भी शामिल करना इसकी प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है। 1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उल्लास एवं उत्साह की अभिव्यक्ति रामलीला के मंच में प्रमुख देवताओं के छायाचित्रों के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का छायाचित्र रखे  जाने और  देशभक्ति के गीतों का रामलीला में समावेशन किया जाना  इस बात का प्रमाण है कि समसामयिक विषयों अथवा प्रसंगों को लेकर रामलीला आयोजक किस तरह संवेदनशील थे।

भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण परम्परा सदियों से रही है। रामायण को लोकप्रिय बनाने में रामलीला एक सशक्त माध्यम रहा है। यह अनेक रंगमंचीय कलाओं यथा-संगीत, नृत्य, वादन, साज-सज्जा, गायन, अभिनय आदि का समन्वित रूप है। रामलीला कब, कैसे और कहाँ प्रारंभ हुई इसका सर्वमान्य उत्तर देना तो संभव नहीं है, हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि रामायण की साहित्यिक परम्परा ने एक लोकप्रिय मंच का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

रामायण के पारम्परिक मंच की निरन्तरता को 10वीं, 12वीं शताब्दी के मध्य रचे गये महानाटक या हनुमान नाटक में देखा जा सकता है। यही नहीं कृष्णदत्त मिश्रा द्वारा रचित गौतम चंद्रिका के अनुसार वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हुए ही तुलसीदास के मन में रामायण के नाटकीय अभिमंचन का विचार आया था। 

उत्तराखंड में रामलीला का मंचन बहुत पुराना नहीं है। जोशीमठ क्षेत्र में आयोजित होने वाले रम्माण लोकमञ्च की परंपरा इससे अधिक पुरातन है। यूं तो रम्माण भी राम के जीवन और कार्यों की गाथा-गीत प्रस्तुति ही है। ढ़ोल की थाप पर हर वर्ष 10 या 11 गते बैशाख (25-26 अप्रेल) के आसपास इसका आयोजन किया जाता है। स्थानीय भल्डा समुदाय के लोग गढ़वाली भाषा में लयबद्ध तरीके से राम के जीवन की गाथा का गायन करते हैं। इसमें भाग लेने वाले अनेक पात्र मुखौटा पहने गायन-वादन के साथ संवाद और नृत्य करते हुए अभिनय करते हैं। राम के जीवन की गाथा को 18 तालों में गाकर नृत्य करते हुए अभिनीत किया जाता है।

उत्तराखंड में रामलीला अभिमंचन का वर्तमान रूप उन्नीसवीं शताब्दी में आरंभ हुआ था। जनस्मृति तो 1843 में देवप्रयाग में भी रामलीला के मंचन की ओर इशारा करती हैं। अपने आधुनिक रूप में कुमाऊँ में रामलीला पहली बार 1860 ई0 में दन्या के बद्रीदत्त जोशी, सदर अमीन अल्मोड़ा के प्रयासों से बद्रेश्वर में अभिमंचित की गई थी। 1860 से 1947 तक बद्रेश्वर की रामलीला के प्रबन्धन एवं निष्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोगों में बद्रीदत्त जोशी, प्रयागदत्त चौधरी एवं गोविन्द लाल साह का नाम कुमाऊँ की रामलीला के इतिहास में विशेष रूप से लिया जा सकता है। सन् 1948 में रामलीला के मंचन के स्थान को लेकर होने वाले विवाद के कारण बद्रेश्वर में होने वाला आयोजन सदैव के लिए रोक द्या गया परन्तु यहाँ के कलाकारों द्वारा नंदादेवी रामलीला कमेटी का गठन कर नए सिरे से रामलीला का आयोजन प्रारम्भ किया गया।

पौड़ी के काण्डई गाँव में 1897 ई0 में रामलीला मंचन हुआ। कालांतर में रामलीला मंचन का यह क्रम टूट गया और पुनः 1906 से ही नियमित रूप से रामलीला मंचन आरम्भ हुआ। 1906 में पौड़ी में रामलीला भव्यता के साथ आरंभ करने में भोलादत्त काला, पी0सी0 त्रिपाठी, कोतवाल सिंह नेगी और तारादत्त गैरोला की अहम भूमिका रही । यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड के लिए अपनी प्रतिबद्धता एवं समर्थन प्रदर्शित करने और 1994 में तत्कालीन प्रदेश सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के नृशंस दमन एवं हत्या के विरोध स्वरूप 1994 से 1996 के बीच पौड़ी में रामलीला मंचन स्थगित रखा गया। 1997 में नए प्रयोग के साथ पुनः रामलीला मंचन आरंभ हुआ। पौड़ी की ही भाँति लैन्सडाउन में 1916 से आरंभ हुआ रामलीला मंचन भी अत्यंत लोकप्रिय है। 2016 में इसकी शताब्दी अत्यंत धूमधाम से मनाई गई। अब तक अल्मोड़ा और आसपास के अन्य कस्बों में भी रामलीला मंचन व्यापक स्तर पर होने लगा था। 1880 ई0 में अल्मोड़ा के ही कलाकारों की सहायता से नैनीताल में रामलीला का मंचन भी आरंभ हुआ। इसके पश्चात् कुमाऊँ और गढ़वाल के सुदूर अंचलों में भी रामलीला मंचन का प्रसार हुआ। किन्तु अपने अभिमंचन की शैली और स्वरूप को लेकर चमोली में द्रोणागिरी एवं डिम्मर, और देहरादून आदि की रामलीलाओं का स्वरूप विशिष्ठ था।

उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों में रामलीला मंचन में कुछ न कुछ अन्तर दिखाई देता है। चमोली के द्रोणगिरि गाँव की रामलीला मात्र तीन दिन तक ही मंचित की जाती है। यह नहीं द्रोणगिरि में केवल रामजन्म, सीता विवाह एवं राम का राज्याभिषेक के प्रसंग ही मंचित किये जाते है। हनुमान से सम्बन्धित कोई भी घटना या दृश्य इसमें वर्जित है। हनुमान का नाम लेना भी निषेध है क्योंकि द्रोणगिरी पर्वत का एक हिस्सा हनुमान लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए संजीवनीबूटी सहित ले गए थे। द्रोणगिरी घाटी के लोग द्रोण पर्वत को अपने ईष्टदेव के रूप में पूजते हैं और हनुमान का यह कृत्य उनके ईष्ट देव की हत्या एवं उनके धार्मिक विश्वास पर कुठाराघात जैसा था, इसलिए यहाँ के लोग हनुमान से घृणा करते हैं और उनके प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं। ऐसी अनेक विविधताएं भिन्न-भिन्न अंचलों में मंचित रामलीलाओं में आँचलिक जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्यों के कारण दिखाई देती हैं। गर्मियों में अवकाश के चलते छात्र, शिक्षक एवं लोगो के गाँवों में उपलब्धता के कारण पात्रों के प्रबन्धन तथा दर्शकों की उपलब्धता ऐसे कारक हैं जिससे अनेक स्थानों पर रामलीला मई-जून में मंचित की जाती है। चमोली के विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व वाले गाँव डिम्मर की रामलीला भी अपने आप में ऐतिहासिक महत्व की है। चमोली के अनेक गाँवों में 1918 में पहली बार रामलीला ज्ञानानन्द डिमरी के 72 सदस्यीय संगीत मण्डल द्वारा मंचित की गई थी। डिम्मर गाँव में रामलीला की तिथि का निर्धारण पँचाग के आधार पर बसन्तपंचमी के दिन किया जाता है और मार्च में होली के अवकाश में रामलीला मंचन होता है। इस रामलीला की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके अधिकाँश संवाद संस्कृत में होते हैं। रावण-अंगद संवाद तो पूर्ण रूप से संस्कृत में होता है। टिहरी में भी रामलीला मंचन होता था किन्तु 1933 में टिहरी के राजा ने इसके मंचन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। 18 वर्ष बाद 1951 में नवयुवक अभिनय समिति ने रामलीला मंचन पुनः प्रारंभ किया। टिहरी नरेश रामलीला के लिए सदैव चंदा देते थे और आज भी यह परम्परा विद्यमान है।

इसी तरह देहरादून रामलीला मंचन का एक अन्य प्रमुख केन्द्र है। श्री रामलीला कला समिति 150 वर्षों से देहरादून में रामलीला का आयोजन कर रही है। इसका आरंभ श्री गुरूरामराय दरबार साहिब के संरक्षण में किया गया। स्वर्गीय जमुनादास सेठ और उनके सहयोगी लक्ष्मीचन्द्र द्वारा तुलसीदासकृत रामचरितमानस आधारित एक पटकथा तैयार की गई। इसी के आधार पर यह रामलीला मंचित होती है। रामलीला का मंचन 11 दिन तक होता है। पहले तो स्थानीय कलाकार ही रामलीला मंचन में भूमिका निभाते थे किन्तु विगत दस-बारह वर्षों से मुरादाबाद और वृन्दावन से आमन्त्रित कलाकार यह कार्य करते हैं। गुरूरामराय दरबार की रामलीला में पुतला दहन का कार्य नहीं होता है क्योंकि इनकी मान्यता है कि रावण का दाह संस्कार नहीं हुआ था। इस रामलीला का मुख्य आकर्षण हनुमान का समद्रलंघन, सेतुबंधन एवं श्री राम द्वारा सेना सहित समुद्र पार कर लंका पहुँचना होता है क्योंकि दरबार साहिब का बड़ा तालाब समुद्र के रूप में उपयोग में लाया जाता है।

रंगमंचीय प्रस्तुति में कुँमाऊनी रामलीला आरंभ से ही ब्रज की रासलीला के साथ साथ नौटंकी शैली एवं पारसी रंगमंचीय तत्वों से प्रभावित रही है। इसमें पात्रों के हाव-भाव, वेषभूषा, रंग की साज-सज्जा तथा संगीतमय शैली में राग-रागनियों से समृद्ध गेयात्मक संवाद विशेष आकर्षण के बिन्दु हैं। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक तक कुमाऊँनी रामलीला में अनेक नए प्रयोग किए गए।

1941 ई0 में अल्मोड़ा में रामलीला में  छायाभिनय का प्रथम प्रयास भारत के सुप्रसिद्ध नृत्य सम्राट स्व0 उदयशंकर भट्ट ने किया था। उदयशंकर ने जीवंत पात्रों द्वारा छायाभिनय का दिग्दर्शन रानीधारा में खुले प्रांगण में किया था। गंगा-संवरण और वन-गमन के प्रसंगों में राम-लक्ष्मण-सीता की छाया छवियों की यह प्रस्तुति दर्शकों को भाव विभोर एवं अश्रुपूरित करने वाली रही होगी। रामलीला मंचन को सशक्त बनाते हुए दक्ष नृत्यकारों के छायाभिनय, अवनिका में उड़ते हुए और हनुमान के दृश्य ने तकनीकी वैचित्र्य का अनुपम पक्ष प्रस्तुत किया।

कुमाऊँनी रामलीला में इसका सशक्त संगीत पक्ष इसकी मूलभूत विशेषताओं में से एक है। रामलीला में पात्रों के सुमधुर कंठ से निकलने वाले बिहाग, जोगिया, पीलू, भैरवी, कामोद, खम्माज, सोहनी, देश, जैजैवन्ती, मालकौस आदि रागों पर निबद्ध गीत कुमाऊँनी रामलीला की एक और विशेषता है। सन् 1948 में नन्दादेवी में आरंभ की गई रामलीला सन् 1972 तक काफी लोकप्रिय रही। सन् 1978 में श्री लक्ष्मीभंडार (हुक्का क्लब) में रामलीला का मंचन के साथ इन प्रस्तुतियों में एक नया अध्याय जुड़ा। देवीदत्त जोशी के प्रयास एवं कलाकारों की कुशलता के कारण अलमोड़ा के आसपास के विभिन्न गाँवों जैसे पाटिया, सरराली के सात ग्रामों, छखाता (भीमताल),  अल्मोड़ा के तीन स्थानों पर रामलीला का भव्य आयोजन होने लगा। पिथौरागढ़ में सन 1902 में रामलीला का प्रारम्भ हुआ।  तब से यहाँ नवरात्रियों में निरंतर रामलीला का आयोजन किया जा रहा है।

1907 में रामदत्त जोशी ज्योर्तिविद द्वारा कुमाऊँनी रामलीला का प्रथम संस्करण प्रकाशित करवाया गया। इससे पूर्व हस्तलिखित पाण्डुलिपि के द्वारा रामलीला का आयोजन होता था। सन् 1927 में गांगीसाह द्वारा रामलीला नाटक लिखा गया। इसीतरह सन् 1972 में नन्दन जोशी ने श्री रामलीला नाटक प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में लेखक ने कुमाऊँनी नाटक के आधार पर पं0 भवानी दत्त जोशी, बाबा खेमनाथ, योगराज, ने सन् 1983 एवं रामदत्त पाण्डे ने 1993 ई0 में रामलीला नाटक प्रकाशित करने का जिक्र किया है।

नैनीताल में वस्तुतः रामलीला प्रदर्शन 1880 के पश्चात हुआ। नैनीताल के नाटककारों ने बंगाली कलाकारों से प्रेरणा पाकर नाटक एवं रामलीला के मध्यमा से भारतीय संस्कृति के प्रसारण का कार्य किया। सर्वप्रथम 1882 ई0 में दुर्गापुर (वीरभट्टी नैनीताल) में अल्मोड़ा से आमन्त्रित अनुभवी कलाकारों ने रामलीला का प्रस्तुतीकरण किया। इसके पश्चात् तल्लीताल में रामलीला का आयोजन किया गया। जिसका संचालन गोविन्द बल्लभ पंत किया करते थे। सन् 1912 में कृष्णा साह द्वारा मल्लीताल में प्रथम बार रामलीला का मंचन किया गया। चेतराम ठुलघरिया द्वारा यहाँ पर स्थाई एवं पक्के मंच का निर्माण कराया गया। किया। नैनीताल के  शारदा संघ ने 1938 से 1950 तक रामलीला के आयोजन का भार उठाया और इसको रोचक बनाने के उद्देश्य से इसमें कुछ एकांकी नाटकों जैसे- सीताजन्म, श्रवणकुमार के प्रसंगों का समावेश किया ।

रामलीला के मंचन को लेकर यह उल्लेखनीय है कि उस दौर मैं ध्वनि प्रसारक यंत्रों के अभाव में अभिनय हेतु उन्हीं पात्रों का चयन किया जाता था जो ऊँचे स्वर में बोल सकते हों। पारसी शैली के स्थान पर 1945 ई0 में नौटंकी शैली में रामलीला का मंचन होने लगा। पौड़ी में 1957 में विद्युतीकरण होना रामलीला के लिए किसी वरदान से कम न था। इसने रामलीला की भव्यता में चार चाँद लगा दिए।

पौड़ी की रामलीला की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जैसे- इसका आरंभ स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा के साथ होता है ताकि यह निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो सके। इसकी पटकथा तुलसीकृत रामचरितमानस पर आधारित है, किन्तु इसकी शैली और संगीत शास्त्रीय है। चौपाई और दोहे बागोश्री, विहाग, देश दरबारी, मालकोष, जैजैवंती, आदि रागों में गाए जाते हैं। गढ़वाली लोकगीत भी संवाद की श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए आकर्षण में वृद्धि करते हैं। पहले पात्र स्वयं अपने संवाद गाया करते थे किन्तु अब पाश्र्वसंगीत द्वारा ही यह कार्य किया जाता है। इससे पात्र को संवाद गायन की चिन्ता से मुक्ति मिली और वह केवल अभिनय पर ही अपना ध्यानकेन्द्रित कर सकते हैं। आरंभ में पार्श्व-गायन को प्रयोग के रूप में अपनाया गया लेकिन आज कुछ एक को छोड़ कर अधिकाँश पात्रों के लिए पार्श्व-गायन का ही उपयोग किया जाता है। पिछले 25 वर्षों से भक्तिपूर्ण भजन गायन के साथ नृत्य रामलीला का एक विशिष्ट अंग बन गया है। उत्तराखंड की रामलीलाओं में महिला पात्रों की भागीदारी का श्रेय पौड़ी की रामलीला को जाता है। सन 2000 से यहाँ कुछ महिला चरित्रों की भूमिका महिला पात्रों द्वारा निभाये जाने का सिलसिला शुरू हुआ जिसे भरपूर जन समर्थन भी मिला है। रामलीला मंचन को लेकर समाज के विभिन्न वर्गों की हिस्सेदारी इसकी विशेषता रही है। देखा जाय तो पौड़ी, अल्मोड़ा, नैनीताल, कोट्द्वार, देहरादून जैसे स्थानों पर मुस्लिम समुदाय ने साज-सज्जा, ध्वनि प्रबंधन, या पुतले बनाने के कार्यों में अहम भूमिका निभाते हुए इसे और रोचक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

उत्तराखंड में रामलीला मंचन में समसामयिक विषयों एवं घटनाक्रमों को भी शामिल करना इसकी प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है। 1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उल्लास एवं उत्साह की अभिव्यक्ति रामलीला के मंच में प्रमुख देवताओं के छायाचित्रों के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का छायाचित्र रखे  जाने और  देशभक्ति के गीतों का रामलीला में समावेशन किया जाना  इस बात का प्रमाण है कि समसामयिक विषयों अथवा प्रसंगों को लेकर रामलीला आयोजक किस तरह संवेदनशील थे।

रामलीला की पटकथा सामान्यतः तुलसीकृत रामचरितमानस पर आधारित अवधी भाषा में ही है किन्तु अनेक क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा एवं बोलियों में भी पटकथा तैयार की गई है। उत्तराखण्ड में दो प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं में रामलीला की पटकथा तैयार की गयी और रामलीला मंचन भी इनके अनुसार होता रहा है। इस दिशा में प्रथम प्रयास बृजेन्द्र साह द्वारा किया गया था। साह ने कुमाँऊ तथा गढ़वाल के प्राचीन लोकगीतों की धुनों के आधार पर रामलीला की धुनें तैयार की। सन 1961 में 480 कुमाऊँनी तथा 1962  में 480 गढ़वाली गीतों में रामराज्य से लेकर राज्याभिषेक तक पूरी रामकथा लिख कर मंचन के लिए इसे तैयार किया। इसके आधार पर कुमाऊँ तथा गढ़वाल के अनेक भागों में ब्रजेन्द्र शाह के निर्देशन एवं मार्गदर्शन में रामलीला मंचन किया गया। इस तरह स्थानीय प्रयोग-धर्मिता ने रामलीला को उत्तराखण्ड में विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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