अस्कोट-आराकोट अभियान का आगाज हो गया। 45 दिन की यह पैदल या़त्रा पच्चीस मई को पांगू से शुरू हुई और 30 मई को मुनस्यारी पहुंची। हफ्ते भर की यात्रा के दौरान दल को काली-धौली और गोरी की तीन नदी घाटियों में तीन अलग-अलग सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र और विकास के मौजूदा स्वरूप से रूबरू होने का मौका मिला। काली और धौली नदी के जलागम में बेतरतीब विकास की बाढ़ नजर आयी तो गोरी के जलागम में बसे कनार और मेतली क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते लोग मिले। यहां के लोग सरकारों से इस कदर आजिज आ चुके हैं कि, पिछले तीन चुनावों से उन्होंने सांसद और विधायक चुनने बंद कर दिए हैं। गोरी के जलागम में बसा तीसरा सांस्कृतिक क्षेत्र जोहार और बरपटिया है। इस मिले-जुले समाज की भी समस्याएं कम नहीं हैं। लेकिन मुनस्यारी के सरमोली गांव की महिलाओं ने होमस्टे के जरिए पर्यटन के विकास का जो मॉडल तैयार किया है, सुकून देने वाला और उत्तराखंड के बेहतर भविष्य के लिए आश्वस्त करने वाला है। पेश है हफ्ते भर की इस अविस्मरणीय यात्रा ब्योरा।
हिमालय की घाटियों में ग्यारह सौ पैंतालीस किमी की पैदल यात्रा का पहला पड़ाव पांगू। समुद्र की सतह से 7300 फीट की ऊंचाई पर बसा है यह गांव। सामने नेपाल और उत्तर में चीन अधिकृत तिब्बत। बासठ के भारत-चीन युद्ध ने पूरे जनजातीय क्षेत्र दारमा, चौदास और ब्यास घाटियों की रीढ़ तोड़ दी। तिब्बत के साथ व्यापार बंद हो जाने से चौदास घाटी के इस गांव के सामने भी क्या करें, कहां जाएं की नौबत आ गई। लेकिन रं समुदाय के लोगों ने हार नहीं मानी। व्यापार बंद होने से हुए नुकसान की भरपाई शिक्षा से पूरी की। 1967 में जनजातीय समाज को आरक्षण मिलने से युवाओं के लिए नौकरी के रास्ते खुले। इसके बाद अगली पीढ़ियों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज लोग आईएएस से लेकर बाबू तक की सरकारी नौकरियों में हैं। अधिकांश लोग अब बाहर बस गए हैं। लेकिन लोकदेवताओं की पूजा के समारोह, सांस्कृतिक उत्सव पूरे समाज को बार बार गांव आकर समागम का मौका देते हैं। समागम ऐसा कि, आईएएस हो या क्लर्क या फिर कांस्टेबल, गांव में सब बराबर।
प्रकृति ने जबरदस्त नेमत बख्शी है पांगू पर। चारों तरफ घने जंगल और बेशुमार पानी। हालांकि, इन प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित भेड़ पालन, ऊन का कारोबार वाला जीवन अब नहीं रहा। लेकिन चौलाई, फाफर, राजमा, भट, गेहूं जैसी फसलें अब भी उगाई जाती हैं। जरख, लिंगुण जैसी जंगली सब्जियां गांव में चाव से खाई जाती हैं। 1981 में कैलास मानसरोवर की जब यात्रा दोबारा शुरू हुई तो गांव के लोगों को एक और उम्मीद जगी। हालांकि, पहले की तरह खुली यात्रा की अनुमति चीन ने नहीं दी। लेकिन गांव के लोगों को लगता था कि, कभी न कभी खुली यात्रा फिर शुरू होगी और उनके दिन बहुरेंगे। पिछली सदी के अंतिम दशक में तिब्बत के साथ लिपूलेख दर्रे से व्यापार की अनुमति भी मिली। लेकिन स्वावलंबन और संपन्नता के पुराने दिन नहीं लौटे। कोविड के बाद से यह व्यापार बंद है। कैलास मानसरोवर की यात्रा से ग्रामीणों को सीधा फायदा नहीं मिलता था। लेकिन आदि कैलास या फिर क्षेत्र में पर्वतारोहण, पथारोहण के लिए आने वाले लोगों से गांव की अर्थव्यवस्था को त्वरा मिलती थी। काली के किनारे सड़क बन जाने से अब पांगू अलग-थलग पड़ गया है। केवल नारायण आश्रम जाने वाले यात्री ही पांगू से गुजरते हैं। वे सीधे नारायण आश्रम पहुंचते हैं। आश्रम में पर्याप्त इंतजाम नहीं होने से वापस धारचूला लौट जाते हैं।
इन तमाम आर्थिक हमलों के बावजूद, पांगूवासी निराश नहीं हैं। रं समाज ने आतिथ्य की विरासत अब तक नहीं छोड़ी है। 24 मई की दोपहर जब अस्कोट-आराकोट अभियान के 50 से ज्यादा यात्री पहुंचे तो गांववालों का उल्लास देखने लायक था। वे दोपहर से ही अतिथियों के स्वागत में जुट गए। ढोलवादक, ढोल कसने में जुट गए। महिलाएं रं समाज की परंपरागत वेशभूषा में सजने-संवरने में व्यस्त हो गईं। पुरुष, अतिथियों के लिए रात के भोजन का इंतजाम करने लगे। शाम होते ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का दौर शुरू हो गया। स्थानीय धुनों पर थिरकते ग्रामीणों के चेहरों से आप इनके दिल की बात का अनुमान नहीं लगा सकते। लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद जब सामूहिक बैठक का आयोजन किया गया तो समाज का दर्द जुबां पर छलक आया।
आदि कैलाश यात्रा के मौजूदा स्वरूप से गुस्सा
भारत सरकार के एक उपक्रम में तैनात वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. रवि पतियाल ने बताया कि, आदि कैलास की यात्रा पर आ रही भीड़ से आर्थिक फायदा तो हो रहा है। लेकिन आदि कैलास क्षेत्र के पर्यावरण और रं समाज की संस्कृति के लिए खतरा पैदा हो गया है। उनका कहना था कि, इस संवेदनशील क्षेत्र में उमड़ रही भीड़ से पार्वती सरोवर के अस्तित्व पर संकट मंडरा सकता है। जयन्ती ह्यांकी का कहना था कि, आदि कैलास की यात्रा में भक्त नहीं, पर्यटक आ रहे हैं। सरकार वहां 500 कमरों का होटल बनाने वाली है। इस बार क्षेत्र के लोग अपने शीतकालीन प्रवास से मूल गांवों में लौटे भी नहीं थे कि, सरकार ने आदि कैलास के लिए एक निजी कंपनी को हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने की इजाजत दे दी। यह कंपनी दिल्ली से धारचूला तक बड़े हेलीकॉप्टर और धारचूला से छोटे हेलीकॉप्टरों से यात्रा करवाने लगी। स्थानीय युवाओं ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ आंदोलन किया। तब जाकर हेलीकॉप्टर सेवा बंद की गई। लोगों का मानना है कि, आदि कैलास को पर्यटनस्थल बना देने से स्थानीय रं संस्कृति पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। साथ ही होटल बनाने और हेली यात्रा शुरू करने से स्थानीय रं समाज की आर्थिकी पर इसका विपरीत असर पड़ेगा।
आदि कैलास में यात्रियों की भीड़ पहुंचने का सिलसिला ज्योलिंङकांङ तक सड़क पहुंचने और पिछले साथ अक्तूबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदि कैलास आने के बाद शुरू हुआ है। इसलिए यात्रियों के लिए अभी तक धारचूला में ठहरने, पेयजल और पार्किंग के पर्याप्त इंतजाम नहीं है। यात्रियों को आदि कैलास जाने के लिए इनरलाइन परमिट लेना पड़ता है। परमिट के लिए स्वास्थ्य प्रमाण पत्र भी जरूरी है। इसे बनाने में एक से दो दिन तक लग जाते हैं। ऐसे में ठहरने के इंतजाम के लिए भटकते श्रद्धालु धारचूला की बाजार में देखे जा सकते हैं। ज्योलिंङकांङ तक की यह सड़क हाल ही में बनी है। परिहवन विभाग ने इस पर अभी यात्री वाहनों के संचालन की इजाजत नहीं दी है। लेकिन टैक्सी वाले अपने रिस्क पर छोटा कैलास आ-जा रहे हैं। धारचूला से आदि कैलास जाने और वापस लौटने का किराया 18 से 25 हजार रुपए प्रति टैक्सी है। सड़क खतरनाक होने के कारण एक गाड़ी में चार यात्री ही यात्रा कर सकते हैं।
छियालेख से ऊपर नहीं चाहिए सड़क
भारत की सीमा से लगे नेपाल के जनजातीय गांव तिंकर में अध्यापिका कंचन बोरा की ससुराल पांगु में है। वे पुराने दिनों को याद कर कहती हैं कि, धारचूला से तीन दिन की कठिन चढ़ाई पार जब छियालेख पहुंचते थे तो वहां की ठंडी हवाएं और मैदान जैसा हिमालयी रास्ता, गजब का सुकून देता था। सड़क बन जाने से यह सुकून अब कभी नहीं लौटेगा। उन्होंने कहा कि, जिस तरह के पर्यटक आदि कैलास आ रहे हैं, उससे संदेह होता है कि, महादेव का यह धाम अपने पुराने स्वरूप में बना भी रहेगा या नहीं। दरअसल चीन बॉर्डर के अंतिम बिंदु तक सड़क पहुंचाने के सामरिक दबाव ने पहले से ही नाजुक भूगोल और भूगर्भ वाले इस इलाके के सामने अस्तित्व का सवाल खड़ा कर दिया है। यह ठीक है कि, सड़क जैसी बुनियादी सुविधा से किसी भी क्षेत्र को वंचित नहीं किया जा सकता। साथ ही सामरिक तैयारियों को देखते हुए भी सड़क अहम जरूरत है। लेकिन सड़क निर्माण के मौजूदा तौर-तरीकों को बदले जाने की सख्त जरूरत है। सड़क के लिए भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील जोन-5 के इस इलाके में चट्टानों को तोड़ने के लिए अति शक्तिशाली डायनामाइट का उपयोग किया जा रहा है। इससे पहले से कमजोर पहाड़ बुरी तरह हिल गए हैं। तवाघाट से धारचूला के बीच चट्टानें खिसकने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। जिससे कई घंटों तक सड़क बंद रहती है।
नेपाल से रोटी-बेटी का नाता
चौदास से लगी ब्यास घाटी में भी रं समाज की बसावट है। घाटी के नेपाल वाले हिस्से में रं समाज के दो गांव हैं, तिंकर और छांगरू। राजनैतिक रूप से भले ही ब्यास घाटी के गांव, दो देशों में बंटे हों पर सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से यह समाज एक ही हैं। पांगू गांव की अधिकांश महिलाओं का मायका नेपाल के जनजातीय गांव तिंकर और छांगरू में है। पिछली पीढ़ी तक पांगू की कई लड़कियों की शादी इन गांवों में होती थी। लेकिन अब यहां के रं समाज की लड़कियों के पढ़-लिख जाने के कारण उनकी शादियां नेपाल में नहीं के बराबर होती हैं।
किसने बदला पांगू का नाम
पांगू गांव का असली नाम पोंङगोंङ हैं। गांव में नव निर्मित कम्यूनिटी सेंटर पर लगे शिलापट और कंडाली उत्सव के समापन स्थल पर भी गांव का यही नाम लिखा है। लेकिन राजस्व अभिलेखों और बोलचाल में अब गांव को पोंङगोंङ के बजाय पांगू एम कहा जाता है। गांव वालों का कहना है कि, रं बोली में गांव का नाम पोंङगोंङ है। इसका हिंदीकरण किसने किया गांव वालों को नहीं मालूम।
तीनों घाटियों में अलग अलग रं बोली
चीफ बैंक मैनेजर के पद से रिटायर हुए रमेश सिंह पतियाल ने रं बोली की विविधता से यात्रियों को अवगत कराया। उन्होंने कहा कि, दारमा, चौदास और ब्यास में अलग अलग रं बोली है। दारमा की रं बोली, चौदास और ब्यास वालों की समझ में नहीं आती है। ऐसे ही दारमा के रं चौदास और ब्यास की रं बोली नहीं समझते। पतियाल ने कहा कि, पहले ब्यास की बोली, चौदास वालों की भी समझ में नहीं आती थी। लेकिन दोनों घाटियां आसपास होने और रिश्तेदारियों के कारण एक-दूसरे की बोली समझ लेते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि, रं बोली में अभिवादन के लिए कोई विशेष शब्द नहीं है। और न ही स्त्रीलिंग और पुल्लिंग है। गांव के ज्यादातर युवा और आठवीं से ऊपर के छात्र इन दिनों कीड़ा जड़ी लेने गए थे। इसलिए पांगू के इंटर कॉलेज में मात्र 10-15 ही छा़त्र थे। गांव वालों का कहना था कि, मानसून शुरू होने तक कीड़ा जड़ी का सीजन चलेगा। कीड़ा जड़ी क्षेत्र में रोजगार का मुख्य साधन है। लेकिन सरकार ने इसके लिए कोई कायदे नहीं बनाए हैं। इसलिए सरकारी भाषा में कीड़ा जड़ी का दोहन गैर कानूनी है।
नारायण आश्रम में नए निर्माणों पर जोर
पांगू से करीब बारह किमी दूर नारायण आश्रम में कुछ साल पहले तक केवल आश्रम और उसके कर्मचारियों के छोटे छोटे भवन थे। अब यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का अतिथि गृह खुल चुका है। इन दिनों यहां पार्किंग का निर्माण हो रहा है। ऐसा लगता है कि, निर्माण की यह गति कुछ ही वर्षों में इस अत्यंत शांत स्थान को चिल्लपों वाले पर्यटन केंद्र में बदल देगी।
आश्रम के प्रबंधक ने बताया कि, आश्रम की पेयजल सप्लाय 1942 में स्थापित किए गए एक हाइड्रम से होती है, जो आज तक कभी खराब नहीं हुआ। जबकि, उत्तराखंड में सिंचाई के लिए बनाए सैकड़ों हाइड्रम कबके खत्म हो चुके हैं।
ठानीधार की सड़क में खेल
जब तक तवाघाट से लिपूलेख के लिए सड़क नहीं बनी थी तो लोग कैलास और आदि कैलास जाने के लिए तवाघाट से पांगू पहुंचने के लिए ठानीधार के पैदल रास्ते का इस्तेमाल करते थे। यह करीब पांच किमी की विकट चढ़ाई वाला पैदल रास्ता हुआ करता था। चट्टानों को काटकर बनाया गया यह रास्ता बहुत खतरनाक भी था। यहां से गिरने का मतलब सैकड़ों मीटर नीचे बह रही धौली में समा जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं। इस पुराने रास्ते के स्थान पर अब सड़क बना दी गई। सड़क भी पुराने पैदल रास्ते से कम खतरनाक नहीं है। सत्तर से अस्सी डिग्री की चट्टानों को काटकर बनाई गई यह सड़क उत्तराखंड के खतरनाक सड़कों में शीर्ष पर होगी।
सड़क के एक ओर खड़ी चट्टानें, दूसरी ओर कई किमी गहरी वनस्पतिविहीन खाई, प्राण सुखा देती है। सड़क पर छोटी सी चूक का मतलब है, घायल होने का कोई चांस नहीं, सीधे ऊपर। हालांकि, लोक निर्माण विभाग ने इस सड़क पर खतरे को देखते हुए यात्रा नहीं करने के आग्रह के बोर्ड लगाए हैं; लेकिन टैक्सी वाले गाहे-बगाहे इस रास्ते का इस्तेमाल कर ही रहे हैं।
इन दिनों सड़क पर कोलतार बिछाने के लिए रोढ़ी डालने का काम हो रहा है। यात्रा के साथी, कवि हर्ष काफर बता रहे थे कि, सड़क बनाने का काम गाजियाबाद निवासी ठेकेदार चौधरी को मिला था। उसने किटकनदारी में यह काम हल्द्वानी के ठेकेदार तिवारी और तिवारी ने काम लोहाघाट के नरेश को दे दयिा। नरेश ने यही काम नेपाल के मनोज को थमा दिया। बार बार ठेकेदार बदलने से सड़क के काम में देरी तो हुई ही, गुणवत्ता पर भी इसका असर साफ दिख रहा था। सड़क का अलाइनमेंट भी ठीक नहीं लग रहा था। हालांकि, इंजीनियर इस बात को ठीक ठीक बता सकते हैं। सड़क बनाने के लिए ठानीधार का पुराना पैदल रास्ता तहस नहस कर दिया गया। इस कारण सड़क के बजाय पैदल रास्ते का इस्तेमाल करने वालों के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है।
काली-धौली का संगम तवाघाट नहीं, ऐलागाड़ है!
तवाघाट में दारमा घाटी से आने वाली धौली नदी और काली नदी का संगमस्थल है। लेकिन छिरकिला में बांध बन जाने से धौली में अब नाममात्र का पानी है। बांध बनने से पहले अंग्रेजी के वी आकार की इस घाटी में शोर मचाने वाली धौली, तवाघाट में मर चुकी है। छिरकिला से बांध में जमा पानी करीब बारह किमी दूर ऐलागाड़ ले जाया गया है। यहां भूमिगत पावरहाउस में बिजली बनाने के बाद एक चैनल के जरिए धौली का पानी काली में छोड़ा गया है।
काली-धौली के इस मिलनस्थल को देखकर लगता है कि, यही दोनों का संगमस्थल है। तवाघाट में दुकानदार जीत सिंह धामी का कहना था कि, 2005 में छिरकिला में धौली को बांधकर 56 मीटर ऊंचा बांध बनाया गया। तब से तवाघाट में बेतहासा गर्मी पड़ने लगी है। जब बांध नहीं बना था, तब तक धौली के एकदम किनारे बसे तवाघाट में धौली के कारण ठंडी हवाएं चलती थीं। धामी का कहना था कि, मानसून में जुलाय से सितंबर तक बांध ओवरफ्लो हो जाने के कारण धौली में पानी छोड़ा जाता है। तब यहां मौसम ठंडा हो जाता है। शेष दस महीने धौली में नदी होने का कोई सबूत नहीं रह जाता है।
काली का गुस्सा झेलने को रहें तैयार
इस इलाके में भारत और नेपाल की सीमा निर्धारक काली नदी पर सड़क निर्माण की सबसे बड़ी मार पड़ी है। भारत की तरफ सड़क को चौड़ा करने के लिए चट्टानों के कटान का मलबा सीधे काली में डाला जा रहा है। उधर नेपाल की तरफ भी सड़क के काम का मलबा काली में ही डाला जा रहा है। नदी के दोनों किनारों पर बड़े-बड़े बोल्डर एकत्र हो गए हैं। कई स्थानों पर नदी बहुत संकरी हो गई हैं।
पहाड़ पत्रिका के संपादक और इतिहासकार प्रो शेखर पाठक कहते हैं, कि यह मलबा काली के बहाव को रोकने का कारण बना तो भारत की ओर धारचूला, बलुवाकोट, जौलजीबी समेत निचले इलाकों में कहर बरपा देगा। जबकि, नेपाल की तरफ दार्चुला समेत कई इलाके इसकी चपेट में आ सकते हैं।
सड़क चौड़ी करने के लिए भूकंप के लिहाज से जोन-5 वाले इस इलाके बेतरबीब ब्लास्टिंग से पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। इससे इस संवेदनशील इलाके में भूस्खलन बढ़ गए हैं। चट्टानों के खिसकने से धारचूला-तवाघाट मार्ग कई घंटों तक बंद हो जाना रोजाना की बात हो गई है।
नेपाल ने सुदूर इलाके तक पहुंचाया विकास
अभी कुछ ही साल पहले तक भारत से लगे नेपाल के दार्चुला जिले के इस इलाके में सड़क नहीं थी। लेकिन अब दाचुर्ला तक सड़क पहुंच गई है। दार्चूला से काठमांडू समेत सभी इलाकों के लिए बस, टैक्सियां चलने लगी हैं। भारत के धारचूला समेत इस घाटी के कई इलाकों में नेपाल का ही मोबाइल नेटवर्क चलता है। भारत के लोग नेपाली सिम लेकर अपना काम चलाते हैं। यदि कहीं पर इंडिया के निजी कंपनियों के सिम कार्ड चलते भी हैं तो वह आईएसडी कॉल का पैसा वसूल लेते हैं। नेपाल का दार्चुला भारत के धारचूला जैसा ही है।
धारचूला की तरह दार्चुला में भी नेपाल के ब्यास घाटी का जनजातीय समुदाय सर्दियों में प्रवास पर आता है। बार्डर पर जब तक एसएसबी तैनात नहीं की गई थी, शाम छह बजे तक दोनों देशों के बीच खुली आवाजाही होती थी। आवाजाही पर अब भी कोई रोक-टोक नहीं है। लेकिन सीमा पार जाने के लिए भारत में एसएसबी और नेपाल के प्रहरी को अपना पहचान पत्र दिखाना होता है। नेपाल के नाके पर तैनात एक प्रहरी ने बताया कि, उनके चाचा का परिवार भारत के धारचूला में रहता है। दार्चुला में कई दुकानदारों और स्थानीय लोगों के दोनों देशों में घर हैं। दोनों देशों के वाशिंदों के बीच शादी-ब्याह के रिश्ते आम हैं। भारत की ओर पूजे जाने वाले लोकदेवता छिपला केदार के उपासक नेपाल में भी फैले हैं। भारत की प्रमुख बीमा कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम, जीवन बीमा निगम नेपाल के नाम से वहां काम करती है। इस इलाकेे में अब तक दोनों देशों के बीच आवाजाही करने के लिए झूलापुल की एकमात्र साधन हैं। लेकिन अब बलुवाकोट के पास अब मोटरपुल बन रहा है। इस पुल से तीन महीने बाद बस, ट्रकों, कारों की आवाजाही शुरू हो जाएगी। दार्चुला में नेपाल के फॉर वेस्ट विश्वविद्यालय का परिसर भी खुल चुका है। इससे पहले नेपाली बच्चे शिक्षा के लिए भारत पर निर्भर थे।
छह महीने की नौकरी के लिए युवाओं का रेला
धारचूला के गोठी स्थित सैन्य क्षेत्र में 700 अस्थायी पोर्टर की भर्ती के लिए युवाओं की भारी भीड़ उमड़ी है। युवाओं ने बताया कि, यह भर्ती केवल छह महीने के लिए है। तीस हजार रुपए वेतन मिलेगा। काम होगा, हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में तैनात सेना के लिए रसद आदि पहुंचाना। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ निवासी एक युवक ने बताया कि, भर्ती के लिए यूपी, राजस्थान, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश के अलावा नेपाल और भूटान के युवक भी आए हैं। तीस हजार की नौकरी के लिए युवाओं की यह भारी भीड़ देश में रोजगार के दावों की पोल खोल रही थी।
गो-घाटी बगड़ में बोकाङ-बालिंङ बांध का विरोध
बलुवाकोट के पास है गो-घाटीबगड़ गांव। यह दारमा घाटी के गो गांव के लोगों का शीतकालीन प्रवास स्थल है। हालांकि, अब ज्यादातर लोग गर्मियों में भी यहीं रहते हैं। गांव के निवासी मंगल सिंह ग्वाल ने बताया कि, कुछ ही लोग अब गर्मियों में अपने मूल गांवों में लौटते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि, दारमा घाटी के हिमालयी गांवों में बच्चों की शिक्षा के लिए इंतजाम दुरस्त नहीं है। धारचूला में भी रं समाज के लोगों ने बताया कि, जिनके बच्चे यहां पढ़ते हैं, वे सालभर धारचूला में ही रहते हैं। घाटीबगड़ के लोग ढाकर गांव के पास प्रस्तावित 165 मेगावाट क्षमता के बोकाङ बांध के विरोध में हैं। मंगल सिंह ने बताया कि, 2011-12 में टिहरी डैम वाली कंपनी टीएचडीसी की टीम क्षेत्र में प्रारंभिक सर्वे के लिए आयी। कंपनी के अधिकारियों ने कुछ गांव वालों को नौकरी और जमीन का मुआवजा देने का लालच देकर एनओसी ले ली। लेकिन जब 2015-16 में जब भारी-भरकम मशीनें पहुंचने लगी तो बांध का विरोध शुरू हो गया। बांध के विरोध में दारमा घाटी के चौदह गांव एकजुट हो गए। धौली की सहायक बूगं नदी पर यह बांध बनना है। मंगल सिंह कहते हैं, बांध के बन जाने से पहले से ही कमजोर इस इलाके में भूस्खलन का खतरा बढ़ जाएगा। हमारे पुश्तैनी चारागाह, जंगल, लोकदेवता, परियोजना की भेंट चढ़ जाएंगे। दारमा घाटी के लोगों ने 2022 में इस परियोजना के खिलाफ एक हफ्ते लंबा आंदोलन चलाया। फिलहाल बांध का काम रुका हुआ है। लेकिन अंदेशा है कि, सरकार जल्द बांध बनाना शुरू कर देगी। बांध का विरोध करने के लिए बनायी गई दारमा संघर्ष समिति से जुड़े मंगल सिंह ने कहा कि, बांध बनाए जाने की स्थिति में तिदांग, ढाकऱ, गो, फिलम और बोन पांच गांवों को वहां से हटाना होगा। यदि घाटी के गांवों का पुनर्वास नीचे के इलाकों में किया भी जाता है तो हमें न वहां अपने गांवों जैसे चारागाह मिलेंगे, न ही खेती के लिए पर्याप्त जमीन। इस परियोजना के बनने से रं समाज की अलग पहचान और परंपराएं भी खत्म हो जाएंगी। ग्रामीणों को बांध निर्माण से जोशीमठ जैसे भू-धंसाव की भी आशंका है।
कस्तूरा ने कनार को बनाया कालापानी
बलुवाकोट के बाद यात्री दल अब नाङरी या होलाङ समुदाय के इलाके में था। दरअसल इस इलाके में जनजातीय समाज को रं और गैर जनजातियों को होलाङ कहा जाता है। यात्री दल में शामिल कनार के पूर्व जिला पंचायत सदस्य कुशल बिष्ट का कहना था कि, जनजातीय समाज को जब आप रङ कहेंगे तो वे आपको होलाङ कहेंगे। जब आप उन्हें भोटिया संबोधित करेंगे तो वे आपको नाङरी कहेंगे।
बलुवाकोट से अभियान दल दो हिस्सों में बंट गया। मुख्य दल सड़क मार्ग से नारायणनगर के लिए रवाना हुआ और चौदह सदस्यों का दूसरा दल पय्यापौड़ी, कनार, जारा-जिबली के लिए रवाना हुआ। यह इलाका कस्तूरा मृग अभयारण्य, अस्कोट के अर्न्तगत आता है। अभयारण्य के कठोर नियमों के कारण यहां बसे गांवों के लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। क्षेत्र में सड़कें नहीं बन पा रही हैं। बिजली छह साल पहले 2018 में आयी है। संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधाओं का लाभ भी अभयारण्य से घिरे गांवों को नहीं मिल रहा है। बलुवाकोट से गटकोना तक हमें अपनी टैक्सी से छोड़ने वाले पप्पू सिंह ने बताया कि, बलुवाकोट से पय्यापौड़ी की यह सड़क विधायक काशी सिंह ऐरी के कार्यकाल में 1995 में बनी। लेकिन आज तक इसमें डामर नहीं किया गया। हालांकि, अब पय्यापौड़ी से पातल गांव तक भी सड़क बन गई है। लेकिन इस मार्ग पर सिर्फ टैक्सियां ही चलती हैं।
गटकोना से कनार तक का पैदल रास्ता करीब 15 किमी का है। घने बांज, बुरांश, काफल के जंगल जैव विविधता से भरपूर हैं। अभयारण्य क्षेत्र होने के कारण यहां जंगलों पर दबाव नहीं के बराबर है।
सड़क बने तो बचे कस्तूरा
कनार गांव, बरम से करीब 15 किमी की पैदल दूरी पर स्थित है। अभयारण्य के नियमों के कारण गांव को सड़क से नहीं जोड़ा गया है। कनार गांव के तोक तेजम निवासी राम सिंह ने कहा कि, सरकार कहती है कि, सड़क बनाने से कस्तूरा मृग के शिकार की घटनाएं बढ़ जाएंगी। जबकि, सच्चाई यह है कि, सड़क बनने से ही कस्तूरा मृग बच सकता है। उन्होंने कहा कि, कनार गांव तक सड़क बन जाती तो वन विभाग की गश्त होती। गाहे-बगाहे अफसर, पुलिस भी यहां पहुंचती। इससे शिकारी गिरोहों की लगाम कसती। सड़क है नहीं। इसलिए छिपला केदार में नेपाल, कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक के शिकारियों के झुंड कस्तूरा, भालू, गुलदार समेत कई वन्यजीवों का बेखौफ शिकार कर रहे हैं। उनका कहना था कि, शिकारियों के कारण अब यहां काकड़ के दर्शन तक तक दुर्लभ हो गए हैं। यही हाल जड़ी-बूटियों और बांज के पेड़ों पर मिलने वाले झूला के दोहन का भी है।
लगातार तीसरी बार चुनाव का बहिष्कार
सड़क नहीं बनने के कारण नेताओं से नाराज कनार के लोगों ने 2019 के बाद से वोट देना बंद कर दिया है। गांव में 587 वोटर पंजीकृत है। गांव वालों ने 2019 के लोकसभा, 2022 के विधानसभा और इस बार के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया। ग्रामीणों का कहना है कि, इस बार उनके गांव में केवल चार वोट पड़े। वोट डालने वाले सरकारी कर्मचारी थे। उन्हें वोट नहीं डालने पर कार्रवाई का डर था। चुनाव बहिष्कार वापस लेने को मनाने के लिए अफसर भी गांव पहुंचे। लेकिन गांववालों ने साफ कह दिया कि, रोड नहीं तो वोट नहीं। गांव वाले कहते हैं कि, विकास की बड़ी बड़ी बातें करने वाले यदि हमें एक सड़क नहीं दे सकते तो हमें भी उनकी जरूरत नहीं हैं। ग्रामीणों ने बताया कि, कनार तक सड़क को मुख्यमंत्री की घोषणा में भी शामिल कर लिया गया था। लेकिन वन भूमि हस्तातंरण की इजाजत नहीं मिलने से सड़क नहीं बन पा रही है। स्थानीय विधायक हरीश धामी का कहना है कि, वन निगम का अध्यक्ष रहने के दौरान उन्होंने सड़क निर्माण के लिए साढ़े तीन करोड़ रुपए की प्रारंभिक धनराशि स्वीकृत कर दी थी। आधा किमी सड़क का कटान भी कर दिया गया था। लेकिन 2022 में भाजपा की सरकार आते ही यह धनराशि वापस कर दी गई। सरकार से नाराज कुरखेती गांव के मदन सिंह कहते है कि, सरकार या तो यहां से कस्तूरा हटाए या हमें हटा दे।
सरकार की लापरवाही से फल-फूल रहा तस्करों का तंत्र
अस्कोट अभयारण्य की स्थापना दुर्लभ हिमालयी जीव कस्तूरा के संरक्षण के लिए की गई है। लेकिन इस नेक उद्देश्य पूरा करने के लिए सरकार गंभीर नहीं है। जिस इलाके में आम आदमी का प्रवेश तक वर्जित है, वहां तस्करों का तंत्र बेरोक-टोक अपने अवैध कामों को अंजाम दे रहा है। राम सिंह कहते हैं कि, छिपलाकेदार पहाड़ी की जड़ में बसे इन गांवों के लोगों को जंगल में प्रवेश करने की मनाही है। न कोई वन उपज जंगल से उठा सकते हैं, न ही पशुओं को वहां चराने ले का सकते हैं। इसका अंजाम यह हुआ कि, तस्करों ने कुछ गांव वालों को पैसे का लालच देकर कीड़ा जड़ी से लेकर जड़ी बूटियों, झूला आदि के दोहन में लगा दिया। सरकार की नजर में यह काम गैर कानूनी है। लेकिन इस पर रोक लगाने वाला यहां कोई नहीं है। यदि इन इलाकों को सड़क और संचार की सुविधाओं से जोड़ दिया जाए तो तस्करों के तंत्र का अंत किया जा सकता है।
कीड़ा जड़ी को ‘लक्ष्मी’ का दर्जा
हिमालयी क्षेत्र में स्नो लाइन के आसपास मिलने वाले यारसागुम्बा या कीड़ा जड़ी इन दूरस्थ क्षेत्रों की आर्थिकी का प्रमुख आधार है। इन दिनों गांव के अधिकांश युवा, छात्र कीड़ा जड़ी लेने छिपला केदार गए हुए हैं। तेजम निवासी रामसिंह का कहना था कि, कीड़ा जड़ी भी उसी को मिलती है, जिस पर लक्ष्मी की कृपा हो। उन्होंने बताया कि, मई में बरसात शुरू होने से पहले कीड़ा जड़ी मिलती है। करीब एक महीने यह सीजन चलता है। इस बार जाड़ों में बरसात नहीं होने से बहुत कम कीड़ा जड़ी मिल रही है। वे कहते हैं कि, कीड़ा जड़ी लेने जाने वाले लोगों के साथ राशन, शराब आदि बेचने वाले भी छिपला केदार जाते हैं। छिपलाकेदार में कीड़ा जड़ी 800 रुपए प्रति पीस के हिसाब से बिक जाती है। छिपलाकेदार में दो कीड़ा जड़ी के बदले एक बोतल शराब मिलती है। कुरखेती गांव के मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि, छिपला केदार में गांवों के हिसाब से कीड़ा जड़ी को निकालने के लिए क्षेत्र बंटे हुए हैं। कई बार लोगों के बीच कीड़ा जड़ी निकालने को लेकर झगड़ा भी हो जाता है। तेजम के राम सिंह कहते हैं, जब तक कीड़ा जड़ी का प्रचलन नहीं था तो गांव में लोग खेती-बाड़ी रोपाई करते थे। अब कीड़ा-जड़ी और अन्य जड़ी बूंटियों के दोहन से अच्छा पैसा मिल जाता है, इसलिए गांव में खेती बहुत कम रह गई है। उन्होंने बताया कि, कीड़ा जड़ी का दाम साढ़े बारह लाख रुपए किलो तक मिल जाता है। यदि किसी को आधा किलो कीड़ा जड़ी मिल गई तो उसका साल भर का खर्च आसानी से चल जाता है। कीड़ा जड़ी के बदले मिलने वाले पैसे से लोग नए घर, जेवर बना रहे हैं। कुछ लोगों ने पिथौरागढ़, भाबर में जमीन भी ले ली है। वे कहते हैं, हल्द्वानी में ईंट, सीमेंट, सरिया बेचने वालों तक को कीड़ा जड़ी का फायदा मिल रहा है। कीड़ा जड़ी खरीदता कौन है, इस पर गांव वाले साफ साफ कुछ नहीं बता पाते। हालांकि, कुछ लोग कहते हैं कि, नेपाल के लोग इसे खरीदते हैं, वहीं इसका दाम भी तय करते हैं।
सुविधाएं नहीं होने से बेमौत मरते लोग
27 मई की शाम जब यात्री दल कनार गांव पहुंचा तो समय पर अस्पताल नहीं पहुंचने के कारण 48 साल के जीत सिंह परिहार की मृत्यु हुई थी। जीत सिंह कीड़ा जड़ी लेने गांव वालों के साथ छिपला केदार गए थे। 26 मई को उनके पेट में भीषण दर्द हुआ। ऐसे में वह खुद ही छिपला केदार से घर के लिए रवाना हुए। रास्ते में हालत ज्यादा बिगड़ जाने पर साथी उन्हें एक डंडे में चादर से बांध कर घर तक लाए। इलाके में कहीं भी अस्पताल की सुविधा नहीं है। 15 किमी दूर बरम से एक एएनएम को फर्स्ट एड के लिए संपर्क किया गया। अस्पताल पहुंचाने के लिए हेलीकॉप्टर की मदद भी गांव वालों ने मांगी। लेकिन अंततः डोली में बरम ले जाते समय गांव से डेढ़ किमी दूर जीत सिंह ने दम तोड़ दिया। 28 मई को जब यात्री दल कनार गांव से आगे बढ़ रहा था तो आसमान में हेलीकॉप्टर की आवाज गूंज रही थी। कुरखेती गांव के मदन सिंह ने बताया कि, यह हेलीकॉप्टर जीत सिंह के बेटे को अस्पताल ले जाने के लिए आया है। बीमार होने के कारण यह युवक न तो अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल हो सका, न ही मुखाग्नि दे सका।
खेतीखान गांव में भी लोगों ने बताया कि, अस्पताल नहीं होने के कारण बेमौत मरने की कई घटनाएं उनके गांव में हुईं हैं। गांव में किसी बीमार पड़ने या प्रसव के लिए डोली से मरीज को बरम ले जाना पड़ता है। ऐसे में कई महिलाओं की रास्ते में ही डिलीवरी हो जाती है। मौके पर किसी तरह स्वास्थ्य सहायता नहीं मिलने पर कभी नवजात तो कभी महिला की मौत हो जाती है।
चार सौ रुपए का मुफ्त राशन
केंद्र सरकार की ओर से गरीबों को हर माह पांच किलो मुफ्त राशन दिया जाता है। दवलेख गांव से मुफ्त राशन लेने के लिए करीब आठ किमी की पैदल ढलान पार कर लुम्ती जाना पड़ता है। दवलेख की एक महिला ने बताया कि, जब वह यह राशन लेने लुम्ती जाती हैं तो दूसरे थकान के मारे उठ नहीं पाती। उन्होंने कहा कि, यदि घोड़े से यह राशन मंगाएं तो चार सौ रुपए भाड़ा चुकाना पड़ता है। इसलिए मुफ्त राशन बांटने का ढिंढोरा पीटने वालों को दूरस्थ क्षेत्रों में कंट्रोल की दुकान के बजाय घर तक राशन पहुंचाने का इंतजाम करना चाहिए।
दलितों के नाम पर नहीं जमीन
कनार, मैतली, दवलेख, जारा-जिबली गांवों में दलितों की आबादी नाममात्र की है। लोगों ने लोहार, दर्जी आदि के काम के लिए दलितों को अपने गांवों में बसाया है। इन्हें, घर बनाने और खेती के लिए जमीन भी दी है। लेकिन इस जमीन का मालिकाना हक दलित परिवारों को नहीं मिला है। कुरखेत गांव के मदन सिंह ने बताया कि, क्षेत्र में लोहारों को फसल का एक निश्चित हिस्सा, जिसे खल कहा जाता है, देने की परंपरा आज भी है। इसके बदले लोहार कृषि यंत्र बनाकर लोगों को देते हैं।
ढोल बजाना और छोलिया नृत्य जाति विशेष का पेशा नहीं
कुमाऊं के निचले इलाकों में ढोल बजाना, मढ़ना और छलिया डांस, दलित समुदाय का पेशा है। लेकिन कनार, मैतली, जारा-जिबली, खेतीखान, दवलेख गांवों में सवर्ण कहा जाने वाला समुदाय खुद यह काम करता है। जारा-जिबली गांव के बैकोट तोक निवासी पूर्व वन पंचायत सरपंच रूप सिंह धामी ने बताया कि, इस इलाके में ढोल बजाने और उसे मढ़ने का काम सवर्ण ही करते हैं। धामी ने बताया कि, इस इलाके में दैन और बौं दमौ बजाने का चलन है। दैन दमौ यानी बड़ा ढोल जड़ाऊ, सराऊ और हिमालयी थार की खाल से मढ़ा जाता है। इन वन्य पशुओं की खाल ग्रामीण जंगल से लेकर आते हैं। धामी ने बताया कि, जब जाड़ों में भारी हिमपात के कारण ये जानवर चट्टानों से गिरकर दम तोड़ देते हैं तो गांव वाले इनकी खाल निकाल लेते हैं। इससे ढोल मढ़ा जाता है। बौ दमौ यानी छोटे ढोल को काकड़ या भेड़ की खाल से मढ़ा जाता है। कनार का विशालकाय ढोल अब पूरे उत्तराखंड में अपनी जगह बना चुका है।
जारा-जिबली में भी बड़े आकार के ढोल हैं। पूर्व जिला पंचायत सदस्य कुशल बिष्ट ने बताया कि, कनार का ढोल बीस धन्या यानि पचास किलो का है। स्थानीय बोली में ढाई के लिए धन्या शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। रूप सिंह धामी ने बताया कि, उनके इलाके में छह धन्या, आठ धन्या, बारह धन्या, चौदह धन्या, अठारह धन्या और बीस धन्या तक के ढोल हैं। ढोल किस आकार का है, इसका पता उसे तैयार करने में इस्तेमाल किए गए तांबे के भार से लगाया जाता है। तांबे को ढोल का आकार देने का काम नेपाल से आए टम्टा समुदाय के लोग करते हैं।
पूर्व जिला पंचायत सदस्य कुशल बिष्ट ने बताया कि, कनार क्षेत्र में धारचूला के नेपाल से लगे रांथी, जुम्मा, खेला, पलपला से बारातों में जो ढोल लाए जाते हैं, उन्हें वहां के दलित समुदाय से संबंधित औजी लोग ढो कर लाते हैं। लेकिन बजाने का काम सर्वण लोग ही करते हैं। औजियों को ढोल को ढोने की मजदूरी इनाम के तौर पर दी जाती है।
क्षेत्र में किया जाने वाला सामूहिक नृत्य छाल निचले क्षेत्रों के छोलिया डांस का एक रूप लगता है। निचले इलाकों में दलित समुदाय के लोग खास तरह की वेशभूषा और ढाल-तलवार लेकर छोलिया नृत्य करते हैं। लेकिन धारचूला के रांथी जुम्मा से लेकर कनार, जारा-जिबली तक के लोग सामूहिक तौर पर बारातों, धार्मिक समारोहों और मेलों में यह नृत्य करते हैं। रूप सिंह धामी ने बताया कि, इस नृत्य को वे लोग छाल काटण कहते हैं। पद संचलन में यह नृत्य रं समाज के परंपरागत नृत्य की तरह लगता है। हालांकि, रं नर्तकों की पारंपरिक वेशभूषा इसे और ज्यादा आकर्षक बनाती है।
लोकदेवता छिपला केदार का वास स्थल
लोक विश्वासों के अनुसार कनार, मेतली और जारा-जिबली गांवों के शीर्ष पर स्थित छिपला केदार चोटी, गोरीफाट यानी गोरी नदी के जलागम में बसे गांवों के साथ धारचूला में धौली गंगा के जलागम में बसे गांवों रांथी, जुम्मा, खेत, खेला, स्यांकुरी के लोगों के लोकदेवता छिपला केदार वासस्थल है। भादों के महीने में अलग अलग गांवों के लोग चार मार्गों से जात लेकर छिपलाकेदार जाते हैं। यहां स्थित कुंड में स्नान करने और उपनयन संस्कार करने की परंपरा है। पूर्व जिला पंचायत सदस्य कुशल बिष्ट बताते हैं कि, लोक विश्वासों में छिपला केदार शिव का रूप नहीं है। बल्कि उसे कनार की देवी का भाई माना जाता है।
मुनस्यारीः सामुदायिक पर्यटन की मिसाल सरमोली
उत्तराखंड में पर्यटन विकास के नाम पर एक ओर बड़े-बड़े होटल समूहों को आमंत्रित किया जा रहा है। होटल, r रिजॉर्ट बनाने के लिए कारोबारियों में बहुत कम कीमत पर सरकारी जमीनें और सुविधाएं दी जा रही हैं। इन बड़े होटलों में ऑनलाइन बुकिंग के जरिए सीधे पर्यटक पहुंचेते हैं और छुट्टियां बिताकर लौट जाते हैं। ऐसे पर्यटन का स्थानीय लोगों को खास फायदा नहीं मिलता। लेकिन मुनस्यारी से लगे सरमोली गांव ने होमस्टे टूरिज्म के जरिए सामुदायिक पर्यटन का नया मॉडल मैयार किया है। भारत सरकार ने पिछले साथ सरमोली को देश के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन गांव का पुरस्कार दिया है।
सामाजिक कार्यकर्ता और पर्वतारोही मल्लिका विरदी ने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर पर्यटन का यह नायाब मॉडल तैयार किया है। गांव में तीस से अधिक होमस्टे हैं। जिन्हें हिमालयन आर्क नाम की कंपनी बनाकर संचालित किया जा रहा है। सरमोली में होमस्टे का संचालन करने वाली दीपा नित्वाल ने बताया कि, प्रत्येक होमस्टे की बुकिंग ऑनलाइन की जाती है। होमस्टे बारी बारी से बुक किए जाते हैं। बिना बुकिंग आने वाले पर्यटकों को कमरा नहीं दिया जाता है। दीपा ने बताया कि, होमस्टे से जुड़ी महिलाओं ने अपना वाट्सएप ग्रुप बनाया है। पर्यटकों की ओर से अभद्रता किए जाने की स्थिति में महिलाएं ग्रुप में संदेश भेजी हैं और सारी महिलाएं मदद के लिए एकत्र हो जाती हैं।
हिमालय आर्क की ओर से महिलाओं को आतिथ्य और भोजन तैयार करने समेत सभी जरूरी प्रशिक्षण दिए गए है। प्रत्येक होमस्टे में महिलाओं का आतिथ्य शानदार हैं। दीपा बताती हैं, कि, शुरू में पर्यटकों से बातचीत करने में झिझक होती थी। लेकिन अब देसी हों या विदेशी पर्यटक, हम बेझिझक बात करते हैं। अतिथियों के लिए भोजन तैयार करने में भी छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा जाता है। जैसे सुबह नाश्ते में यदि आलू की सब्जी परोसी गई है तो उस दिन लंच-डिनर में आलू की सब्जी नहीं दोहराई जाएगी। दाल, सब्जी, चावल के साथ स्थानीय हरी सब्जी और चटनी जरूर परोसी जाएगी।
होम स्टे में तीन श्रेणी के कमरे हैं। उनका किराया, 2500, दो हजार और अठारह सौ रुपए प्रतिदिन है। महिलाओं ने बताया कि, होमस्टे की बुकिंग के समय पर्यटकों के बैकग्राउंड के बारे में जानकारी ली जाती है। साथ ही उनके लिए एसओपी भी भी बनायी गई है। जैसे बंगाल के पर्यटकों को कमरा देने से गांव के होमस्टे वाले बचते हैं। ऐसा क्यों, दीपा नित्वाल कहती हैं, बंगाली पर्यटक शोर बहुत करते हैं। हम तो पैसा कमा रहे हैं; लेकिन जिनके होमस्टे नहीं हैं। वह क्यों इस शोर को झेलें। शोर से बच्चों की पढ़ाई पर भी असर पड़ता है। इसलिए बंगाली पर्यटकों की बुकिंग से बचा जाता है। बुकिंग की राशि में से एक या दो प्रतिशत की मामूली राशि हिमालयन आर्क अपने पास रखता है। इस पैसे से गांव के जंगल का रखरखाव, साफ-सफाई और छोटे-मोटे आयोजन किए जाते हैं। गांव में 50 परिवार सीधे तौर पर होम स्टे पर्यटन से जुड़े हैं जबकि 30 अन्य परिवार टैक्सी चालक, पर्यटक गाइड, स्थानीय शिल्प और खाद्य उत्पादों के व्यापार में लगे हैं । हिमालयन आर्क की ओर से पक्षी उत्सव, तितली और कीट उत्सव, पारंपरिक भोजन उत्सव, दमौ, नगाड़ा उत्सव, खलिया चेलेंज जैसे आयोजन भी किए जाते हैं।
सरमोली से पंचाचुली हिम शिखरों का नयनाभिराम दृश्य है। चारों तरफ घने जंगल, प्राकृतिक जलस्रोतों से लैस यह इलाका पर्यटकों की खास पसंद बन चुका है। सरकारें पुरस्कार तो दे देती हैं। लेकिन अपनी योजनाओं में इन मॉडलों को शामिल नहीं करती। सरमोली का यह मॉडल उत्तराखंड ही नहीं, पूरे देश के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए पर्यटन की शानदार नजीर बन सकता है। लेकिन हाईटेक टूरिज्म के जाल में फंसी सरकारों को ऐसा सोचने की फुरसत कहां हैं।
सरमोली की शंका
अभियान दल के साथ बैठक के दौरान समाजसेवी मल्लिका विर्दी ने बताया कि, सरकार के स्तर पर सरमोली को मुनस्यारी नगर पंचायत में शामिल करने की तैयारी की जा रही है। यदि ऐसा हो गया तो हम अपने पंचायती वन पर सदियों पुराना अधिकार खो देंगे। साथ ही नगर पंचायत में शामिल होने के बाद गांव वाले खुद वन पंचायत सरपंच नहीं चुन पाएंगे। बल्कि नगर पंचायत सरपंच को मनोनीत करेगी। इससे पर्यटन विकास के नाम पर गांव के वन क्षेत्र पर दबाव बढ़ सकता है। सरमोली और आसपास के गांवों की वन्यता पर भी इसका विपरीत असर पड़ सकता है। बैठक में मौजूद महिलाओं का कहना था कि, हम किसी भी कीमत पर अपने गांव को नगर पंचायत में शामिल नहीं होने देंगे। चाहे इसके लिए आंदोलन ही क्यों न करना पडे़। पर्यटन की नई इबारत लिखने के साथ अपने संसाधनों को बचाए रखने का यह जज्बा एक दिन उत्तराखंड में कई सरमोली बनाएगा, ऐसा सपना जरूर देखा जाना चाहिए।
पूरन बिष्ट पेशे से पत्रकार हैं। हिमालय के सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विषयों पर गहरी रुचि है। इनसे जुड़े मुद्दों पर नियमित रूप से लिखते रहे हैं। भारत और नेपाल के सांस्कृतिक संबंधों की व्यापक समझ रखते हैं।