हिमालय को मनुष्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इस क्षेत्र की तमाम समस्याओं का समाधान यहाँ रहने वाले समाज की जागरूकता और व्यवस्था की राजनैतिक इच्छा पर निर्भर है। दोनों सचेत होंगे तो बेहतर संतुलन बना रहेगा। पिछले कुछ दशकों में भारी भरकम परियोजनाओं के अलावा जिस तेजी से पर्यटन हिमालय के दुर्गम इलाकों तक पहुँचा है उसने नया संकट खड़ा किया है। हिमालय के शिखरों में साल दर साल पहुँचने वाली भीड़ ने नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं। अंतर्राष्ट्रीय से लेकर राष्ट्रीय संस्थाएँ हर रोज हिमालय को बचाने की बात कर रही हैं। क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर हिमालय और उसके वाशिंदे किस तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं इसकी किसी को फिक्र नहीं है। एवरेस्ट में हर साल बढ़ रही पर्वतारोहियों की भीड़ से पैदा हो रहे पारिस्थितिकी दबाव के बीच उस घाटी में रह रहे शेरपा समुदाय की पीड़ा और बदलते हालातों को समझना भी जरूरी है। पहाड़-एक में प्रकाशित इस संपादकीय लेख से अवैज्ञानिक और अनियंत्रित पर्यटन के दुष्परिणामों और स्थानीय समाज की स्थिति का सहजता से अंदाज़ लगाया जा सकता है।
1920-30 के बीच पहली बार ऐवरेस्ट में उत्तर की ओर से चढ़ने की कोशिशें हुई थीं। सफलता नहीं मिली। 1950 में जब यह इलाका खुला और दक्षिणी ओर से रास्ता खोजा गया तो न्यूजीलैण्ड के मुधमक्खी पालक एडमन्ड हिलेरी और ऐवरेस्ट के अभियानों में सातवीं बार जा रहे तेनजिंग नौर्गे विजयी हुए। हिलेरी ’सर’ हो गए और तेनजिंग ने शेरपाओं को जन विख्यात किया।
सागरमाथा ने नेपाल के खुम्बू जिले को एक तीर्थ में रूपान्तरित कर दिया है। 1950 में जब यह क्षेत्र खुला तो काठमांडू से 175 मील चल कर जाना पड़ता था। फिर दो हवाई पटिटयाँ बनाने से हर साल पाँच हजार पर्वतारोही यहाँ आने लगे। यह संख्या स्थानीय शेरपाओं की जनसंख्या से दुगुनी है। पर्यावरण की क्षति को रोकने के लिए एडमन्ड हिलेरी की पहल पर अनेक संस्थाएँ सामने आई। 1981 में नेपाल ने 480 वर्ग मील में फैले सागरमाथा क्षेत्र में अभयारण्य का कार्य शुरू किया।
इस क्षेत्र में दुनियाँ के तीन सर्वोच्च शिखर हैं। ऐवरेस्ट (8848 मीटर), ल्होत्से (8501 मीटर) तथा चोओयू (8153 मीटर)। इस नए अभयारण्य के सामने अनेक समस्याएँ हैं। इसका मुख्य कारण लोगों का ज्यादा और संसाधनों का कम होना है। ऐसा भी नहीं है कि इस इलाके में सिर्फ प्राकतिक भूभाग या वन्य जीवों पर ही प्रशासन करना हो। वरन इसमें स्थानीय लोग शेरपा भी शामिल हैं।
शेरपा, जिन्हें कि बरफीले क्षेत्रों का बाग कहा जाता है और 1920 से अब तक के ऐवरेस्ट अभियानों में जिनके 23 पुरूष दिवंगत हो चुके हैं, यहाँ के पुराने निवासी हैं। उनकी चारे और ईधन की जरूरत से सैकड़ों सालों में भी प्राकतिक सन्तुलन नहीं टूटा। पथारोहियों /पर्वतारोहियों के आने से पूर्व शेरपाओं ने जंगलों की अपनी तरह की व्यवस्था की थी। गलत और अतिरिक्त कटान देखने हेतु पतरौल की व्यवस्था थी। रास्तों, पुलों और मठों को ठीक ठाक रखने की जिम्मेदारी पूरे समुदाय की थी। जमीन, जंगल और आदमी के बीच आत्मीयता थी। लेकिन नई पर्वतारोही – सैलानी संस्कृति के आते ही पुरूषों को अपनी परिवार तथा समाज की जिम्मेदारियाँ छोड़ भारवाहक और पथ प्रदर्शक बनना पड़ा। दूसरी ओर पर्वतारोहियों और भारवाहकों तथा स्थानीय शेरपाओं की ईधन की सम्मिलित जरूरत ने अधिकांश ढलानों को जंगलहीन कर दिया है।
यद्यपि अभयारण्य में पेड़ काटने पर रोक है पर इसे असली अर्थों में लागू करना कठिन हो रहा है क्योंकि ऊपरी इलाकों में एक कुली के बोझ की लकड़ी 50 रू0 में बिक जाती है और यह अच्छा खासा मुनाफे का काम है। शेरपाओं को भी अपने ईधन तथा तापने को लकड़ी चाहिए। जब एक अमेरिकी पत्रकार द्वारा एक शेरपा से यह पूछा गया कि जंगलों के खतम हो जाने पर क्या करोगे? तो उसका जवाब में सवाल था कि जब दुनियाँ तुम्हारे बमों से खतम हो जाएगी तो क्या करोगे? हिमालय के अनेक दूरस्थ गाँवों में इस तरह के सवाल लोग पूछ रहे हैं।
सागरमाथा और शेरपाओं की समस्याएँ जुड़ी हुईं हैं। आदमी की कीमत पर पेड़-पहाड़ या पानी को साबूत रखने की पार्क संस्कृति हमें नहीं चाहिए। ऐसा अभयारण्य हम जरूर चाहेंगे जहाँ सागरमाथा, शेरपा, क्षेत्र के वन, दर्जनों जानवर, 120 से अधिक प्रकार के पक्षी और आगन्तुक – अतिथि बिना एक दूसरे को नष्ट किए रह सकें। यह बात सागरमाथा के साथ नंदादेवी, फूलों की घाटी या जिम कार्बेट अभयारण्य के बारे में भी कही जा सकती है। क्या ऐसा हो सकना संभव है?
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