पलायन का दुष्चक्र

उत्तराखंड में रिवर्स माइग्रेशन की कल्पना करना ठीक नहीं है फिर भी वर्तमान पीढ़ी को पलायन से रोकने के लिए जमीनी स्तर पर प्रयासों की जरूरत है जिसके लिए स्थानीयता का अध्ययन कर योजनाएँ बनाने के साथ स्थानीय युवाओं की सहभागिता अनिवार्य है उत्तराखंड से पलायन कर गए कुछ चुनिंदा लोग ही अपने क्षेत्र में वापस लौटे हैं जबकि अधिकांश व्यक्ति सेवानिवृत्त के बाद देहरादून एवं हल्द्वानी सहित भाभर एवं तराई में स्थित शहरों तक ही सीमित है।

आज उत्तराखंड का बुद्धिजीवी वर्ग राजनीतिक लॉकडाउन के बाद स्थानीय कामगार आबादी के बाहरी क्षेत्रों से अपने मूल जन्म क्षेत्र में लौटने की प्रक्रिया को रिवर्स माइग्रेशन के चश्मे से देख रहा, जबकि वापस लौटे हुए वर्ग में अधिकांश लोग अस्थाई रूप से बीमारी से बचने और आजीविका निर्वाहन हेतु परिस्थितियां अनुकूल होने तक ही यहाँ रुके है।

वापस आये लोगों का अनुभव है कि कठिन परिश्रम के बावजूद वर्तमान परिस्थितियों में जब कृषि उत्पादन, सब्जी उत्पादन, फलोत्पादन, पुष्प उत्पादन मत्स्य, पशुपालन, भेड़ पालन, सामान्य पर्यटन, साहसिक पर्यटन, धार्मिक पर्यटन आदि जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त नहीं है तो फिर उनका उत्तराखंड में रुकने का औचित्य और आकर्षण क्या है। यद्यपि उत्तराखंड की सरकारों ने पलायन की इस समस्या के समाधान के लिए अनेक कार्यक्रम बनाए हैं।  

आज वर्तमान अस्थाई ठहराव को रिवर्स कहना कितना उचित होगा इस पर विचार किया जाना चाहिए? क्योंकि रिवर्स माईग्रेशन तो उस प्रक्रिया को कहा जाना चाहिए जिसमें बाहरी प्रदेश/ क्षेत्र से सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक क्षेत्र में स्थाई रूप से रहना आरम्भ किया जाता है। वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। केवल वह युवा ही रुकने के बारे में सोच रहे हैं जिनका परिवार यहां पर पहले से है तथा स्वरोजगार से जीवन निर्वाह की संभावनाएँ प्रबल है।

उत्तराखंड में रिवर्स माइग्रेशन की कल्पना करना ठीक नहीं है फिर भी वर्तमान पीढ़ी को पलायन से रोकने के लिए जमीनी स्तर पर प्रयासों की जरूरत है जिसके लिए स्थानीयता का अध्ययन कर योजनाएँ बनाने के साथ स्थानीय युवाओं की सहभागिता अनिवार्य है उत्तराखंड से पलायन कर गए कुछ चुनिंदा लोग ही अपने क्षेत्र में वापस लौटे हैं जबकि अधिकांश व्यक्ति सेवानिवृत्त के बाद देहरादून एवं हल्द्वानी सहित भाभर एवं तराई में स्थित शहरों तक ही सीमित है।

भौगोलिक दृष्टि से उत्तराखण्ड में अधिकाशं पर्वतीय क्षेत्र न तो परम्परागत कृषि और न ही आधुनिक उद्योंगो के लिए उपयुक्त है। लम्बे समय से उत्तराखंड के निवासी शिक्षा ग्रहण करने के लिए अन्य राज्यों की ओर पलायन करते आये हैं। हालांकि आबादी कम होने के कारण पहले रोजगार आसानी से प्राप्त हो जाते थे जिससे उत्तराखंडवासी अपनी तथा अपने परिवार की जरूरतों को पूरा कर लेता था लेकिन आबादी के बढते और उसी अनुपात में रोजगार के कम अवसरों के कारण  आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेरोजगार या सीमान्त कर्मकर बनाता चला गया। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनेक कारणों से (शादी को छोड़कर) आबादी के लगभग 25 प्रतिशत ने उत्तराखण्ड से अन्तर्राष्ट्रीय] अन्तर्राज्यीय] अन्तर्रजनपदीय के अतिरिक्त जनपद के अन्दर भी एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर पलायन किया है।

पिछले कुछ महीनो में महामारी से रोकथाम के लिये अचानक लगाये गए लाकडाऊन के कारण  सम्पूर्ण देश के विभिन्न उद्योगों, कृषि, भवन निर्माण, होटलों, पर्यटन, यातायात, संचार कम्पनियों में कार्यरत प्रवासियों ने अपने अपने गाँव की ओर लौटना प्रारम्भ किया। इनमें से कई एक ऐसे भी थे जो सब सुविधा होते हुए भी बीमारी के भय के कारण वापस लौटे। इन प्रवासियों में कुछ के मूल परिवार गाँव में थे, उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई तथा कुछ के गाँव के घर रहने योग्य भी नहीं थे वे अपने गाँव में पंचायत घरों या अपने सम्बन्धियों के घरों में लौटे हैं। उत्तराखण्ड के ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि मार्च 2020 तक उत्तराखंड में कुल 59360 प्रवासी वापस लौटे हैं।

दुनिया में अनेक देशों को समय समय पर अनेक महामारियों का प्रकोप झेलना पड़ा। सन् 1941 से 1951 के दशक में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण औसत आयु आज से लगभग आधी थी।

भारत में सर्वप्रथम जनगणना का कार्य सन् 1872 में प्रारम्भ हुआ क्योंकि अनुमान लगाया जाता है कि जनसंख्या आधारित योजनाएं दस साल में अप्रासांगिक हो जाती हैं।

सन् 1901 से 1911 के बीच आबादी में 8.20 प्रतिशत (162392 व्यक्तियों) की वृद्वि हुई लेकिन 1911 से 1921 के बीच उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत की आबादी विभिन्न बीमारियों के प्रकोप के कारण घट गई थी। उत्तराखंड में औसत 1.23% तथा सम्पूर्ण भारत की आबादी में भी 0.3% की ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की गई।

यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की आबादी सन् 1921 से 1981 तक लगातार बढ़ती रही। सन् 1901 से 2011 तक आबादी का बड़ा हिस्सा पर्वतीय क्षेत्रों में रहा। जहाँ सन् 1901 से 1961 तक कुल आबादी 65% से अधिक पर्वतीय भागों में रहती थी जिसका अनुपात धीरे धीरे घट रहा था लेकिन वर्ष 2011 में पर्वतीय क्षेत्र में मात्र 48.1% तथा मैदानी जनपदों में 51.6% रहा है। दरअसल 1981 से वृद्धि दर कम होने लग गई थी जो सन् 2011 में मात्र 18.18% रही।

उत्तराखंड की औसत वृद्धि दर में कमी आने के साथ-साथ पर्वतीय जनपदों में कम ही नहीं बल्कि सन् 2001 से 2011 के बीच अल्मोड़ा तथा पौड़ी जनपदों में क्रमशः 1.6% एवं 1.4% ऋणात्मक वृद्धि पंजीकृत की गई। वहीं दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में स्थित हरिद्वार (30.6%)] देहरादून (32.3%) एवं उधमसिंहनगर (33.45%) की आबादी में लगातार वृद्धि हुई।

मैदानी जनपदों में वृद्धि एवं पर्वतीय जनपदों में ह्रास का मुख्य कारक पलायन रहा। जो पर्वतीय क्षेत्रों से लोगों को अन्तर्जनपदीय] अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पलायन के लिए प्रेरित करता रहा।

यहाँ पर यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रवास जनन क्षेत्र से अधिकांश पुरूषों का ही विभिन्न कारणों शिक्षा, रोजगार, व्यापार, आदि के लिए ही पलायन होता है इसलिए उन क्षेत्रों में लिंगानुपात में महिलाओं की संख्या अधिक होती है जबकि प्रवास गन्तब्य क्षेत्रों में पुरूषों की संख्या अधिक होने से महिलाओं की संख्या कम हो जाती है।

भारतीय जनगणना द्वारा 2011 के लिये जारी किये गये आंकड़ों के आधार पर उत्तराखण्ड की लगभग 44.2% आबादी प्रवासी के रूप में है, यद्यपि इसमें शादी को भी पलायन के कारणों में सम्मिलित किया गया है। इस आबादी को यदि कम कर दिया जाय तो भी लगभग 25% आबादी प्रवासी श्रेणी के अन्तर्गत होगी। प्रवासियों में 30.04% पुरूष तथा 59.89% महिलाएं हैं। उत्तराखण्ड की कुल प्रवासी जनसंख्या में से 61.63% ग्रामीण तथा 38.37% नगरीय हैं। गाँव से गाँव को 73.36% तथा गाँव से नगर को 27.03% प्रवास हुआ है इसी प्रकार नगरीय प्रवासी आबादी में से 72.97% नगर से नगर तथा नगर से गाँव को 26.44% प्रवास हुआ।

उत्तराखंड में प्रवासी श्रमिक के रूप में संख्या अधिक नहीं है। उत्तराखंड का अधिकांश प्रवासी या तो सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में कार्यरत है। श्रमिक शब्द का प्रयोग उत्तराखंड के सन्दर्भ में नहीं किया जा सकता है क्योकि श्रमिक जो भवन निर्माण व कृषि कार्य या कच्चे सामान के निर्माण में हो या किसी भी प्रकार के निर्माण कार्य में अस्थायी रूप से संलग्न होता है के लिए सम्बोधित करना उचित है। उत्तराखंड का निवासी प्रवासी इसलिए है कि यहाँ की भौगोलिक स्थिति कृषि एवं अन्य उद्यमों के लिए उपयुक्त नहीं है। इसलिए वह अपने मूल स्थान को छोड़कर सरकारी /गैर सरकारी /निजी प्रतिष्ठानों /होटल रेस्तरा /कल कारखानों /व्यावसायिक प्रतिष्ठानों /पर्यटन से सम्बन्धित उद्यमों आदि हेतु पलायन करता है।

इस वर्ष अप्रेल से जून तक तीन महीनों में उत्तराखण्ड में 215575 प्रवासी प्रदेश में लौटे हैं इनमें से भी सर्वाधिक 28% प्रवासी अकेले पौड़ी जनपद में लौटे जबकि अल्मोड़ा जनपद में लौटने वाले प्रवासियों की संख्या 20.29% प्रतिशत थी, तीसरे क्रम में 10.17% के साथ उधमसिंह नगर जनपद है जहाँ मार्च तक कोई भी प्रवासी नहीं लौटा था। उत्तरकाशी, टिहरी एवं चम्पावत जनपद में लौटे हुए प्रवासियों की संख्या के क्रम में चौथे, पांचवे और छठे क्रम पर थे। मैदानी जनपदों में उधमसिंह नगर पहले स्थान पर है क्योंकि उधमसिंह नगर जनपद में सामान्यतः पश्चिम बंगाल के विस्थापितों की आबादी अधिक है जिनके पास भूमि कम थी वे अपना भरण पोषण हेतु प्रवासित होते है।

यह उल्लेखनीय है की मार्च 2020 तक मैदानी क्षेत्र (देहरादून, उधमसिंहनगर, हरिद्वार) जनपदों में प्रवासी अधिक होने के कारण सम्पूर्ण क्षेत्र की कुल आबादी भी कम हो गई है। मार्च तक वापस लौटे प्रवासियों में से 25 से 30% प्रवासी अपने ही प्रदेश के मैदानी नगरों से लौटे हैं जबकि 60-60% प्रवासी अन्य राज्यों – दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमांचल प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा, महाराष्ट्र व झारखण्ड से लौटे हैं। लगभग 3% से 5% विदेशों से जिनमें ओमान, आयरलैण्ड, चीन, न्यूजीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, इत्यादि देशों से भी लौटे हैं। प्रवासी लगभग सभी 35 से 45 वर्ष आयु वर्ग के हैं। प्रवासी क्षेत्र या उनसे सम्बन्धित क्षेत्र, छोटे व्यवसाय, छात्र, पेशेवर, आदि क्षेत्रों से लौटे हैं। मैदानी जनपदों में उधमसिंह नगर पहले स्थान पर है क्योंकि उधमसिंह नगर जनपद में सामान्यतः पश्चिम बंगाल के विस्थापितों की आबादी अधिक है जिनके पास भूमि कम थी वे अपना भरण पोषण हेतु प्रवासित होते है।

व्यवसाय के आधार पर प्रवासियों का वर्गीकरण- जनपदवार किसी में कम और किसी में अधिक हैं। सरकारी नौकरियों में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में 3643 प्रवासी लौटे हैं इनमें सर्वाधिक 983 प्रवासी पौड़ी जनपद में लौटे हैं। दूसरे क्रम में 724 प्रवासियों के साथ अल्मोड़ा जनपद है। टिहरी, नैनीताल एवं रूद्रप्रयाग में भी क्रमशः 694, 657, 203 एवं 120 सरकारी नौकरी वाले प्रवासी लौटे हैं।

जो प्रवासी पंडिताई (0.2%) हेतु बाहर गये थे वे भी इस दौरान वापस लौटे हैं, इसमें टिहरी प्रथम स्थान पर है। पंडिताई हेतु हरिद्वार, गंगोत्री बद्रीनाथ, ऋषिकेश आदि स्थानों से भी लोग वापस अपने-अपने गाँव की ओर लौटे हैं। तकनीकी ज्ञान रखने वाले मात्र 0.60% प्रवासी वापस लौटे हैं। मजदूर के रूप में 3.19% प्रवासी ही वापस लौटे हैं। मजदूरों में पिथौरागढ़ एवं हरिद्वार जनपद में सबसे अधिक प्रवासी लौटे हैं। बेरोजगार प्रवासी मात्र 1.5% थे। चम्पावत जनपद में सर्वाधिक 2288 बेरोजगार प्रवासी लौटे हैं, लगभग 1.5% प्रवासियों के पास अपना रोजगार था जिसे वे छोड़कर लौटे हैं। सर्वाधिक 654 प्रवासी चम्पावत जनपद में लौटे हैं। लगभग 81% प्रवासियों के साथ रोजगार का संकट खड़ा है। इसमें अधिकांश प्रवासी स्थितियाँ ठीक होने पर वापस लौटने की सोच रहे हैं। जबकि कुछ प्रवासी चाहते हैं कि यदि रोजगार या आय का साधन पहाड़ों पर ही मिल जाय तो अब यहीं रूकना चाहते हैं।

उत्तराखंड की सीमाएँ तिब्बत एवं नेपाल से लगी होने के कारण सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस क्षेत्र को आवागमन एवं आर्थिकी की दृष्टि से सुदृढ़ करना होगा जिससे ऐसे इलाके पलायन के कारण खाली न हों।

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