बुरांश के फूलों से जंगल लाल गुलाबी हुआ जा रहा है। डालियाँ अपने सौन्दर्य पर इठला रहीं है। जंगल इंतज़ार में हैं उन घुमक्कड़ों के, जो पेड़ों की छाँव में बैठ कर सुस्तायेंगे, बुरांश के फूलों को निहारेंगे… और फिर मंत्रमुग्ध हो कर कुछ गुनगुनाने लगेंगे।
प्राकृतिक सौन्दर्य के इस प्रदर्शन और उससे विस्मित होने का ये चक्र शायद आदि काल से चला आ रहा है। इस बार, कोविड19 के चलते, उस पर रोक सी लग गई है। जंगल, घाटियाँ, पगडंडियाँ, नदी-नाले… सब उदास से हैं। और घुमक्कड़ भी।
इस उदासी को कम करने और आपके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए थ्रीश कपूरजी के कुछ चित्र प्रस्तुत कर रहें है। ताकि आप अपने जंगलों से, और जंगल आपसे रूबरू हो सकें।
थ्रीश कपूर एक जाने माने फोटोग्राफर है। उत्तराखंड ग्रामीण बैंक के चेयरमैन पद से रिटायर होने के पश्चात भी उन्होंने रिटायरमेंट लेने से मना कर दिया और अपनी दूसरी पारी शुरू की – हास्पिटैलिटी सेक्टर में। हिमालय की गोद में पले बड़े थ्रीश कपूर का बुरांश प्रेम इस बात से भी जाहिर होता है की कौसानी में उन्होंने अपने रिज़ॉर्ट का नाम भी बुरांश ही रखा।
प्रकृति के सौन्दर्य को शब्दों में बांध देना आसान नहीं है। शायद इसी कारण सुमित्रानंदन पंत ने भी जब बुरांश पर कविता लिखनी चाही तो उसे हिन्दी की जगह अपनी मातृभाषा कुमाऊनी में ही लिखा। कुमाऊनी में उन्होंने बहुत कम कविताएँ लिखीं हैं। कुमाऊनी न जानने वाले पाठकों के लिए हम, पहाड़ ऑनलाइन द्वारा किया गया कविता का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित कर रहे हैं।
सार जंगल में त्विज क्वे न्हा रे क्वे न्हां,
फुलन छै के बुरूंश! जंगल जस् जलि जां।
सारे जंगल में तुझ सा कोई नहीं रे, कोई नहीं,
क्यूँ खिलता हैं तू बुरांश! जंगल को उद्वीप्त करता हुआ।
सल्ल छ, दयार छ, पई, अयांर छ,
सबनाक फाङन में पुङनक भार छ;
पै त्वि में दिलैकि आग, त्विमें छ ज्वानिक फाग,
रगन में नई ल्वै छ प्यारक खुमार छ।
चीड़ हैं, देवदार हैं, पईयां हैं, अंयार हैं,
सबकी डालों में कोमल कोपलों का भार है,
पर तेरे दिल में आग है, जवानी का फाग है,
रगों में नया खून है, प्यार का खुमार है।
सारि दुनी में मेरी सू ज लै क्वे न्हां,
मेरि सू कैं रे त्योर फूल जै अत्ती भां।
सारी दुनिया में मेरी प्रियतमा सा कोई नहीं,
पर मेरी प्रियतमा को भी रे, तेरा ही फूल भाता है।
काफल, कुसुम्यारु छ, आरु छ, आखोड़ छ,
हिसालु-किलमोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ,
पै त्विमें जीवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
फुलि बुंरुश! त्योर जंगल में को जोड़ छ?
काफल है, खुमानी है, आड़ू हैं, अखरोट हैं,
किलमोड़े है, हिसालू में सोने की दमक है,
पर तुझ में है जीवन, मस्ती है, पागलपन है,
खिले हुए बुरांश! इस जंगल में तू बेजोड़ है।
सार जंगल में त्विज के क्वे न्हां रे के न्हां,
मेरि सू कें रे त्योर फुलनक म‘ सुहां।
सारे जंगल में तुझ सा कोई नहीं रे, कोई नहीं,
मेरी प्रियतमा को रे, तेरे फूल का मकरंद सुहाता है।
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