भागीरथी घाटी में जल-विद्युत परियोजनायें और स्थानीय धारणा

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण विवादास्पद रहा है। ऐसी परियोजनाओं को लेकर अब तक जितने भी अध्ययन सामने आये हैं, उनमें से अधिकांश सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन, जनसांख्यिकी बदलाव, वनों, जैव विविधता, व कृषि भूमि के नुकसान के साथ-साथ स्थानीय लोगों एवं अन्य दूसरे हितधारकों की धारणाओं पर केन्द्रित रहे है।

ऊर्जा किसी भी समाज के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण निवेश है। भारत विद्युत ऊर्जा का उपभोग करने वाला दुनिया का पाँचवां सबसे बड़ा देश है। 2015 की भारतीय ऊर्जा सांख्यिकी के अनुसार यह दुनिया की कुल वार्षिक ऊर्जा खपत का लगभग 4.4 प्रतिशत है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के आकङों के अनुसार, विश्व में प्रति व्यक्ति 2873 Kwh की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत अभी भी बहुत कम (1010 Kwh) है। भारत वर्तमान में अपने सकल बिजली उत्पादन का लगभग 63 प्रतिशत तापीय ऊर्जा सयन्त्रों से और लगभग 24 प्रतिशत  जल-विद्युत परियोजनाओं से पैदा करता करता है। ये जल-विद्युत परियोजनायें मुख्यतः हिमालयी क्षेत्र में स्थित हैं। उत्तराखंड में ऊर्जा का सबसे बड़ा हिस्सा हाइड्रो-पावर (68%) है। इसके बाद कोयला (12%), गैस (3%), परमाणु (1%) और नवीकरणीय ऊर्जा (16%) से आता है।

यहाँ के मौजूद ग्लेशियर एवं बर्फानी नदियों से लगभग 20,000 मेगावाट जल-विद्युत क्षमता उत्पन्न होने का अनुमान है, हालांकि इस क्षमता का लगभग 3600 मेगावाट ही अब तक उपयोग में लाया जा सका है। यह कहा जा रहा है कि इन नदियों की एक बड़ी ऊर्जा क्षमता को अभी भी उपयोग में लाया जाना बाकी है। उत्तराखण्ड में 25 जल-विद्युत परियोजनायें (6 मध्यम एवं 19 लघु) 2378 मेगावाट क्षमता के साथ निर्माण के विभिन्न चरणो में हैं, तथा 21,213 मेगावाट क्षमता वाली 197 जल-विद्युत परियोजनायें विभिन्न नदी घाटियों में प्रस्तावित हैं।

उत्तरकाशी जिले में धरासू से गंगोत्री के बीच संपूर्ण भागीरथी नदी के जलग्रहण क्षेत्र को पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र के रूप में घोषित किये जाने के बाद भागीरथी नदी घाटी की तीन प्रमुख प्रस्तावित /निर्माणाधीन परियोजनाओं (पाला मनेरी, भैरोंघाटी एवं लोहारीनाग पाला (निर्माणाधीन)) का निर्माण कार्य रोक दिया गया।

दरअसल भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण विवादास्पद रहा है। ऐसी परियोजनाओं को लेकर अब तक जितने भी अध्ययन सामने आये हैं, उनमें से अधिकांश सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन, जनसांख्यिकी बदलाव, वनों, जैव विविधता, व कृषि भूमि के नुकसान के साथ-साथ स्थानीय लोगों एवं अन्य दूसरे हितधारकों की धारणाओं पर केन्द्रित रहे है। सर्वाधिक चर्चित रही पंडित एवं ग्रुम्बिन (2012) की रिपोर्ट में मॉडलिंग का उपयोग करते हुए भारतीय हिमालय क्षेत्र में 292 बांधों (निर्माणाधीन और प्रस्तावित) का वर्गीकरण करके अनुमान लगाया था कि इन परियोजनाओं से 54,117 हेक्टेयर वन क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा और 114,361 हेक्टेयर क्षेत्र बांध से संबंधित गतिविधियों के कारण क्षतिग्रस्त हो जाएगा। परिणामस्वरूप वर्ष 2025 तक 22 पुष्पीय पौंधे एवं 7 कशेरुकीय जन्तु प्रजातियाँ विलुप्त हो जाऐंगी। ऐसे अध्ययनों के बावजूद पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन हेतु हालांकि आज भी अधिकाधिक और जमीनी सच्चाई पर आधारित आकङों की आवश्यकता है।

उत्तराखण्ड के अन्य क्षेत्रों की भांति उत्तरकाशी भी बार-बार भूगर्भीय हलचलों के कारण पर्यावरणीय आपदाओं हेतु अत्यधिक संवेदनशील इलाका रहा है। यह क्षेत्र भागीरथी नदी की मत्स्य विविधता सहित वनस्पतियों और जीवों की विविधता को लेकर भी समृद्ध है। भागीरथी गौमुख (ऊँचाई 3892 मीटर) से निकलती है एवं कई सहायक नदियों के जल प्रवाह को समेटे हुए टिहरी जिले के देवप्रयाग में एक प्रमुख हिमानी नदी (अलकनंदा नदी) के साथ मिलकर आगे गंगा नदी कहलाती है। इसके आत्म-शुद्धिकरण, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक महत्व को स्वीकार करते हुए, भारत सरकार द्वारा इसे वर्ष 2008 में राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया था। यह उल्लेखनीय है कि हिमालयी क्षेत्र में बड़े बांधों के निर्माण के बजाय स्थानीय निवासियों एवं पर्यावरणविदों में लघु पनबिजली परियोजनाओं के लिए आम सहमति दिखाई देती है। इस नदी पर बाँध और नहर बनाकर जल के प्राकृतिक बहाव के रोके जाने को स्थानीय समाज एवं पर्यावरणविदों द्वारा गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक बाधा के साथ साथ धार्मिक लोकाचार पर प्रहार के रूप में देखा जा रहा है।

भागीरथी नदी घाटी क्षेत्र में धरासू से गंगोत्री के बीच छोटी (माइक्रो) से मध्यम स्तर की 23 जल-विद्युत परियोजनायें निर्माणाधीन या प्रस्तावित है। इनमें से भी 18 जल-विद्युत परियोजनाये भागीरथी नदी की सहायक नदियों / उपनदियों पर, जबकि केवल 5 जल-विद्युत परियोजनायें भागीरथी नदी पर प्रस्तावित हैं। अभी केवल दो परियोजनायें (मनेरी भाली स्टेज-एक और स्टेज-दो) विद्युत उत्पादन कर रही है। लोहारीनाग पाला जल-विद्युत परियोजना का निर्माण उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार रोक दिया गया था। इन तीन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण प्रभावित हुये 140 परिवारों को लेकर वर्ष 2010 में किये गए सर्वेक्षण एवं समूह चर्चा के विश्लेशण से अनेक रोचक जानकारियाँ सामने आई हैं।

मनेरी-भाली स्टेज-एक जल विद्युत परियोजना से, जिसमें जामक, हीना, सिरोर एवं मनेरी जैसे प्रभावित गाँव शामिल हैं, वर्ष 1984 से निरंतर बिजली उत्पादन हो रहा है। भागीरथी नदी पर बने मनेरी बाँध (39 मीटर ऊँचा और 127 मीटर चौड़ा) से पानी को 8.6 किलोमीटर लंबी, 4.75 मीटर गोलाई की उच्च दबाव वाली सुरंग द्वारा रन-ऑफ-द-रिवर विधि से 90 मेगावाट क्षमता वाली तिलोथ विद्युत गृह (उत्तरकाशी) को जल आपूर्ति की जाती है। तिलोथ विद्युत गृह पर यह जल पुनः भागीरथी नदी में मिलता है और मनेरी भाली स्टेज-दो परियोजना (स्थापित क्षमता 4*76=304 मेगावाट) द्वारा उत्तरकाशी के पास बने 81 मीटर ऊँचे बांध से, 16 किमी लंबी एवं 6 मीटर व्यास वाली सुरंग द्वारा धरासू बिजली घर तक ले जाया जाता हैं। यहाँ पानी पुनः भागीरथी नदी में मिलकर टिहरी जल विद्युत परियोजना में प्रयुक्त हो जाता है।

इस परियोजना को लेकर अपने अध्ययन के दौरान हमने पाया कि मनेरी भाली स्टेज-एक जल-विद्युत परियोजना के 38 परियोजना-प्रभावित परिवारों में से 55-73 प्रतिशत लोगों की धारणा थी कि इस परियोजना से वन्य-आवास विखंडन (73%), चारागाह (68%), वनस्पतियां एवं वन्य जीवों की आबादी (55%) को कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जबकि वरिष्ठ नागरिकों का मानना था कि इस परियोजना के निर्माण के दौरान शुरुआत में वनस्पतियों को नुकसान हुआ था। लेकिन अब स्थिति ठीक है। उनका नजरिया था कि परियोजना के अन्तर्गत किये गये वृक्षारोपण से वनस्पतियों में वृद्धि हुई। 42-55% लोगों मानना था कि परियोजना से जुड़े कर्मचारियों की बढ़ी आबादी के कारण दूध और सब्जियों जैसी वस्तुओं की माँग अधिक होने से पशुधन एवं कृषि कार्य बढ़ा है। परियोजना-प्रभावित लोगों में आधे से अधिक (52%) यह भी मानते थे कि बांध के कारण मछलियों की विविधता में भी वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी ओर लगभग सभी ग्रामीणों का मत था कि सर्दियों के दौरान नदी के प्रवाह में कमी के चलते नदी तट की ओर बढ़ती हुई मानव गतिविधियों ने नकारात्मक प्रभाव भी पैदा किए हैं। 71% उत्तरदाताओं का मत था कि जल-विद्युत परियोजना में बाहर से आये कामगारों के कारण नकारात्मक सांस्कृतिक परिवर्तन भी देखने को मिले हैं।

जल-विद्युत परियोजना जनित अन्य नकारात्मक प्रभावों में 60-95 प्रतिशत लोगों की धारणा थी कि भागीरथी घाटी में क्रमशः वर्षा (82%) एवं प्राकृतिक सौंदर्य (74%) में कमी आई है तो वहीं तापमान (95%), जल प्रदूषण (76%) एवं वायु प्रदूषण (60%) में भी वृद्धि हुई है। समूह में कराई गयी चर्चा से पता चला कि जल-विद्युत परियोजना निर्माण कार्य समाप्त होने के बाद, वायु और ध्वनि प्रदूषण निर्णायक रूप से कम होता चला गया। यह बात दिलचस्प है कि परियोजना-प्रभावित लोगों द्वारा जल-विद्युत परियोजना को लेकर कोई भी नकारात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभावों की ओर इशारा नहीं किया गया। बल्कि 79-82% लोगों ने  परियोजना और उससे संबंधित गतिविधियों के कारण सार्वजनिक सुविधाओं में वृद्धि (84%), पर्यटन (82%) और जीवन स्तर में सुधार (79%) जैसे सकारात्मक प्रभाव का पक्ष लिया।

हमने यह भी पाया कि परियोजना का गाद निष्कासन स्थल स्थानीय लोगों के लिए पर्यटन स्थल सरीखा बन गया है। यहाँ पर स्थानीय बेरोजगारों द्वारा दो दुकानें खोली गई हैं। स्थानीय लोगों का मत था कि परियोजना के कारण सांस्कृतिक प्रभावों (79-95%) पर्यावरणीय जागरूकता (95%) एवं धार्मिक त्योहारों (79%) के आयोजन में उल्लेखनीय और सकारात्मक वृद्धि हुई है।

मनेरी-भाली परियोजना स्टेज-दो के प्रभाव क्षेत्र के सर्वेक्षण में छह गाँवों के 59 परिवारों के 49-83% सदस्यों की धारणा थी कि इसके कारण जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़े थे। पहाड़ी ढलानों पर बनाये गये सम्पर्क मार्ग से निकले मलवे का ढालों पर निस्तारण के कारण वनस्पतियों, जीवों (83%), कृषि (83%), चारागाह भूमि (77%), वन्यजीव(56%) आबादी में कमी, प्राकृतिक आवास के विखंडन (48%) एवं खरपतवारों (49%) में वृद्धि हुई। उनकी शिकायत थी कि मनेरी-भाली परियोजना स्टेज-दो के बांध से अचानक छोड़े गए जल के कारण निचले क्षेत्रों में नदी के तट पर चराई और पानी पीने के लिए आने वाले पालतू पशु कभी-कभी बह जाते हैं। इन लोगों में से 22-37 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने मनेरी-भाली परियोजना स्टेज-दो के जलाशय के आसपास नए पक्षियों की  उपस्थिति (22%) और मत्स्य विविधता (37%) में वृद्धि को सकारात्मक प्रभाव के रूप में स्वीकार किया। हालांकि 39% परियोजना-प्रभावित लोगों का मानना था कि नदी के प्रवाह में कमी आने से मछली पकड़ना आसान हो गया है। ग्रामीणों द्वारा प्रमुख नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों में, जल प्रदूषण (100%), भागीरथी नदी के जल प्रवाह में कमी (90%), नदी घाटी की सुन्दरता में कमी (90%), वर्षा की मात्रा में कमी (83%) एवं वायु प्रदूषण (85%), ध्वनि प्रदूषण (81%), वायु का तापमान (78%), नदी किनारों के मृदा अपरदन (68%), भूस्खलन (63%), नदी के तट से रेत और पत्थर का उत्खनन (62%) एवं नदी तट में मानव जनित गंदगी में वृद्धि (58%) को इंगित किया गया। परियोजना के भाली बांध जलाशय के कारण पर्यटन में वृद्धि को 51% परियोजना-प्रभावित लोगों द्वारा स्वीकार किया गया।

लोहारीनाग पाला परियोजना के प्रभाव क्षेत्र में पड़ने वाले 12 गाँवों में स्थित 43 परियोजना-प्रभावित परिवारों में से 51-84% उत्तरदाताओं ने जैव विविधता पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के रूप में, वनस्पतियों/जीवों (84%), कृषि (81%), चारागाह भूमि (77%) एवं वन्यजीवों की आबादी में कमी (53%), वन्य जीव निवास स्थान विखंडन (53%) एवं खरपतवार में वृद्धि (51%) को रेखांकित किया।

तीनों परियोजनाओं के प्रभावित लोगों की धारणा को लेकर उपरोक्त आँकड़ों का सावधानी से अवलोकन करने पर उपयोगी अंतर्दृष्टि मिलती हैं।

इस अध्ययन में भूगर्भीय रूप से संवेदनशील एवं जैव विविधता व सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भागीरथी नदी पर धरासूं-गंगोत्री क्षेत्र के बीच निर्मित परियोजनाओं को लेकर स्थानीय स्तर पर परियोजना के नकारात्मक एवं सकारात्मक प्रभावों को लेकर लोगों की धारणाएँ अलग-अलग थी। फिर भी प्रभावित ग्रामीणों द्वारा यह समान रूप से स्वीकार किया गया कि वायुमंडल के तापमान में वृद्धि एवं वर्षा में आई गिरावट का बड़ा कारण ये परियोजना है। उत्तराखण्ड के अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में भी लोगों की बदलती जीवन शैली और नौकरी की तलाश में आवास-प्रवासन के लिए कृषि और पशुधन आबादी में कमी को अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, न कि जल विद्युत परियोजना को।

यह उल्लेखनीय है कि तीन दशक पूर्व परियोजना के निर्माण के दौरान सड़क से लगे इलाकों में होने वाले भूस्खलन अब स्थिर हो जाने से लोगों द्वारा भुला दिए गए। इसलिए ग्रामीणों द्वारा ऐसे प्रभावों को नकारात्मक नहीं आँका गया। भटवाड़ी और गंगनानी (लोहारीनाग पाला परियोजना क्षेत्र में पड़ने वाले ग्राम) क्षेत्र भूगर्भीय कारकों की दृष्टि से भूस्खलन हेतु सबसे संवेदनशील क्षेत्र हैं। लोगों के साथ की गई चर्चा से यह तथ्य सामने आए कि निर्माण के लिए होने वाली ब्लास्टिंग पर्वतीय ढलान को अस्थिर करती है। इससे घरों में दरार और दूसरे इलाकों में जलस्रोत सूखने (एमबी-एक के जामक गाँव और एमबी-दो के सिंगुडी और पुजार गाँव) के लिए जिम्मेदार रही हैं। यही नहीं, परियोजना से जुड़े स्टोन क्रशर और लोडिंग वाहनों से पैदा होने वाली धूल से सेब के फूलों में परागण एवं पत्तियों के प्रकाश-संष्लेषण प्रभावित हुआ है। परिणामस्वरूप फसलों की पैदावार में कमी और उपज में गिरावट आई है। आसपास की दुकानों में विक्रय हेतु रखे सामान में धूल बैठ जाने के कारण गुणवत्ता में कमी से बिक्री भी प्रभावित होती रही हैं। ऐसे उदाहरणों के जरिए लोगों ने बड़ी परियोजना के नकारात्मक प्रभावों को सामने लाने और रन-ऑफ-द-रिवर एवं छोटी-छोटी परियोजनाओं को बढ़ावा देने की वकालत की।

अधिकांश परियोजना प्रभावित ग्रामीण क्षेत्र अपनी पिछड़ी अर्थव्यवस्था के कारण आधुनिक सुविधाओं से वंचित रहे हैं। यही कारण है कि परियोजना के आने से सड़क मार्ग, दूरसंचार, चिकित्सा और शिक्षा सुविधाओं में वृद्धि को ग्रामीणों द्वारा सकारात्मक परिणामों के रूप में देखा गया, जबकि ये सुविधाएँ सरकार के विकास कार्यक्रमों से जुड़ी थी। दरअसल ग्रामीणों के बी़च जानकारी के अभाव से इस धारणा को बल मिला होगा कि जल विद्युत परियोजनाओं के कारण गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का विकास हुआ है।

परियोजना-प्रभावित लोगों की इस धारणा का समर्थन इस तथ्य से भी होता है कि गरीबी से त्रस्त ग्रामीणों में ज.वि.प. के द्वारा रोजगार सृजन उल्लेखनीय रूप से सकारात्मक प्रभाव लाया है। उदाहरण के लिए, एलएनपी के निर्माण के दौरान, 480 ग्रामीणों को (रू.2500-5000 प्रति माह) अकुशल से लेकर उच्च कुशल मजदूरी का रोजगार मिला था। प्रत्यक्ष रोजगार लाभ के अलावा, सड़क संपर्क की सुविधा और अपने उत्पादों जैसे दूध और सब्जियों को बेचने के लिए बाजार की उपलब्धता हुई।

इसलिए, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में जहाँ विकास अपेक्षित गति से नहीं हो सका है, ज.वि.प. लोगों की आशा के अनुरूप नौकरी के अवसरों एवं अवस्थापना विकास से जीवन स्तर में आंशिक सामाजिक-आर्थिक लाभ प्रदान करती हैं, लेकिन इन परियोजनाओं के निर्माण में प्राकृतिक संसाधनों की भारी लागत आती है, जिसका आर्थिक आकलन आवश्यक है। अलकनंदा घाटी में दो जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर ऐलन इत्यादि का सुझाव था कि उत्तराखंड में परियोजनाओं का विकास,  निर्णय लेने में सुधार, समानता को बढ़ावा देने एवं सतत् विकास के अवसर पैदा करने के लिए सहभागी बन सकता है।

यह वास्तविकता है कि उत्तराखण्ड में ऊर्जा की माँग जनसंख्या वृद्धि (प्रति वर्ष कम से कम 1.8% की दर से) और शहरीकरण के साथ तेजी से बढ़ रही है। इस प्रदेश में बिजली खपत के पीक घंटों के दौरान विद्युत माँग और आपूर्ति में कमी प्रति व्यक्ति वर्ष 2012 में 1012 kWh से बढ़कर वर्ष 2015 में 1154 kWh पाई गई। इस अंतर को पाटने के लिए बायोगैस प्लांट, लकङी गैसीफायर-आधारित पॉवर प्लांट, सोलर वाटर हीटर, सोलर पीवी प्लांट, पवन ऊर्जा और बायोडीजल जैसे कार्बन संग्रहण और भंडारण टेक्नोलॉजी पर आधारित कम कार्बन उत्पन्न करने वाले ईधनों के विकल्पों की जरूरत है।

इधर सरकार द्वारा सौर ऊर्जा को अधिक लोकप्रिय बनाया जा रहा है। इसे संग्रहीत करके जहाँ छोटे पैमाने के उपयोगों के लिए बिजली का सामान्य ग्रिड तक पहुँचना मुश्किल है, आवश्यकतानुसार उपयोग किया जा सकता है। जीवाश्म ईंधन के विपरीत, सौर ऊर्जा के दोहन से हानिकारक कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन नहीं होता है। इसी तरह, पवन ऊर्जा एक पर्यावरण के अनुकूल अक्षय ऊर्जा का स्रोत है जो जलवायु परिवर्तन या वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं है।

ग्रामीण क्षेत्रों में, सामुदायिक बायोगैस संयंत्र खाना पकाने और पानी गर्म करने के लिए एक और ऊर्जा का विकल्प प्रदान कर सकते हैं। एक अनुमान है कि उत्तराखंड में सालाना लगभग 20 मिलियन मीट्रिक टन कृषि अवशेष और कृषि औद्योगिक /प्रसंस्करण अपशिष्ट का उत्पादन किया जाता है, जिसमें लगभग 300 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। इसके अलावा, राज्य में हर दिन उत्पादित होने वाले लगभग 1000 मीट्रिक टन नगरपालिका, शहरी और औद्योगिक ठोस/तरल अपशिष्ट को वैज्ञानिक रूप से संषोधित किया जा सकता है जिसे पर्यावरण प्रदूषण के उन्मूलन के साथ-साथ बिजली उत्पन्न करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। अप्रयुक्त भू-तापीय विद्युत क्षमता को प्रयोग में लाने की आवश्यकता है। पर्वतीय समुदायों के बीच बिजली की पहुँच बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र में छोटे पैमाने पर पनबिजली विकसित करने की बहुत बड़ी संभावना है। ये विकल्प सस्ते है एवं कम पर्यावरणीय प्रभाव डालते हैं एवं इनका परिचालन स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए कम समय में किया जा सकता है। इसतरह  एक विकेन्द्रीकृत ऊर्जा रणनीति और कुशल प्रौद्योगिकियों के द्वारा स्थानीय अक्षय ऊर्जा संसाधनों का उपयोग करके उत्तराखण्ड में बढती हुई विद्युत ऊर्जा खपत का समाधान किया जा सकता है।

इस अध्ययन से यह तथ्य उभर कर आते हैं कि जब परियोजना से बिजली उत्पादन के लाभ मिलने लगते हैं तो लोग समय के साथ बड़ी परियोजनाओं के नकारात्मक प्रभावों को भूल जाते हैं। ऐसी परियोजनाओं के निर्माण चरण में ही सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव लोगों द्वारा महसूस किये जाते हैं। अतः जल विद्युत परियोजनाओं को पर्यावरण के अनुकूल और सतत बनाये रखने के साथ साथ विज्ञान-आधारित, बहुआयामी अध्ययन परियोजना के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि ऐसे अध्ययनों में प्रभावित होने वाले लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाय जिससे जल संसाधनों से विद्युत ऊर्जा के विकास, सामाजिक-आर्थिक उन्नयन एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन की व्यापक समझ बन सके।

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