नैनीताल की जोंकें कुछ कह रही हैं

नैनीताल के कुछ एक पुराने वाशिंदे आपको आज भी जंगलों में घूमने जाते हुए दिख जाएँगे। ये उनकी पुरानी आदत है। नैनीताल का रहवासी होने कारण मेरी भी आसपास के जंगलों में घूमने की आदत अभी तक बरकरार है। नैनीताल की हर चोटी पर पहुँचने के लिए बटियाऐं बनी हैं । पर नैनीताल में पैदल चलने का आनंददायक अनुभव चीना पीक जाने में ही आता है। बरसात में तो जंगलों में इतनी चीजें उग आती हैं कि घने जंगलों में जाने का उत्साह बहुत बढ़ जाता है। जंगल में हमारे लिए एक बड़ा आकर्षण जंगली मशरूम को देखना और समझ में आये तो तोड़ कर घर लाना होता है, ताकि लजीज व्यंजन बना सकें। लेकिन बरसात में चीनापीक सरीखे घने बांज के जंगलों में घुसने के लिए एक बहुत सावधानी बरतनी होती है। वह सावधानी है जोंकों से खुद को बचाना, जो अगर पैरों में चिपक गए तो पैर लहुलुहान कर देते हैं। उनके खून पीने से वैसे नफा नुकसान जो भी होता हो पर खून देख कर भले-भलों को दहशत तो हो ही जाती है।

पिछले कई सालों से हम अनुभव कर रहे थे कि चीनापीक सहित पूरे नैनीताल में जोंके बहुत ही कम हो गयी हैं। कई बार तो एक भी जोंक नहीं लगती है जबकि पहले चीनापीक आने जाने में प्रतिव्यक्ति कम से कम 30-35 जोंकें लगना सामान्य घटना होती थी। हम सोचते थे कि ऐसा क्यों हो रहा है? अपने को स्वयंभू पर्यावरणवादी समझते हुए हमने मान लिया कि इसका कारण नैनीताल में वाहनों से होने वाला प्रदूषण हो सकता है। यूँ तो वाहन प्रदूषण से इंसान पर होने वाले नुकसानों पर आमतौर पर चर्चा होती रहती है, लेकिन इसके व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव और होने वाले नुकसानों को इस कदर नजरअंदाज कर दिया जाता है जैसे यह कोई मुद्दा ही न हो। अपनी इस ‘परिकल्पना’ को साबित करने के लिए हमारे पास प्राकृतिक इतिहास (नेचुरल हिस्ट्री) के कई प्रमाण हैं। प्राकृतिक इतिहास सच-सच बोलता है, इसलिए भारत में इसे भी ठंडे बस्ते के हवाले किया जा चुका है और आज इसकी जगह  पारिस्थितकी और पर्यावरण विज्ञान जैसे नए और जटिल विषयों ने ले ली है।

इसबार 16 जून को जब मैं चीना पीक जा रहा था तो अप्रत्याशित रूप से जोंक न केवल लगने लगी बल्कि दिखने भी लगी। उनसे जो परेशानी हो रही थी उसे इस बात का आनंद भुला दे रहा था कि हमारी यह समझ करीब-करीब सही साबित हो रही थी कि जोंकों के उजड़ने का कारण वाहन प्रदूषण ही है। दरअसल जोंकों की त्वचा बहुत ही नाजुक होती है। इसलिए हमारे यहाँ एक प्रचलन है कि जोंक कहीं दिखे या शरीर में लग जाय तो उस पर नमक छिड़क दो। ऐसा करने पर वह मर जाएगी क्योंकि उसकी त्वचा फट जाती है।

नैनीताल में मुख्य रूप से ‘हिरूडिनेरिया ग्रेन्युलोसा’ और ‘डिनोब्डेला फेरोक्स’ प्रजाति की जोंक मिलती है। पहली प्रजाति की विषेशता है कि ये पहाड़ों में नदी, पोखरों से लेकर नम जमीनों में 2000 से 3000 मीटर तक की ऊँचाई तक के इलाके में पायी जाती है। ये मनुष्यों और पशुओं पर समान रूप से हमला करती हैं। इसकी लंबाई करीब 4 से 11 सेमी0 तक हो सकती है। ये चिकित्सा जोंकों की श्रेणी में आती हैं। दूसरी प्रजाति की जोंक अपेक्षाकृत बड़े आकार की होती हैं । इसकी लंबाई 20 से 25 सेमी0 तक होती है। ये नदियों व पोखरों में रहती हैं और पशु के संपर्क में आने पर उसके शरीर में प्रवेश कर जाती है। वहाँ पर ये लंबे समय तक निवास करती हैं।

निचले, 1500-2000 मीटर तक की ऊँचाई वाले, इलाकों के जंगलों में ‘हीमेंडिप्सा सिल्वेस्ट्रिस’ प्रजाति की जोंक पाई जाती है। इसके काटने से त्वचा में तेज दर्द भी होता है। ये पशुओं और मनुष्यों दोनों को ही काटती है। एक अन्य किस्म की पीलापन लिए हुए हरे रंग की  जोंक ‘हीमेंडिप्सा जायलेनिका’, 1200-1800 मीटर उँचाई वाले इलाकों में पाई जाती है। 1 से 2 सेमी0 लंबाई की यह जोंक आकार में अन्य जोंकों की अपेक्षा बहुत छोटी होती है और पशुओं और मनुष्यों दोनों पर हमला करती है।

इधर कुछ वर्षो में दुर्भाग्य से नैनीताल में गर्मियों में पर्यटन का दबाव तेजी से बढ़ा है। खास तौर पर अपने वाहनों से आने का सिलसिला तो बहुत ज्यादा हुआ है।  बरसात के शुरू होने तक इस भयानक सीजन को कारों की रेलपेल में दिनभर लगते जाम में सहजता से देखा जा सकता है। वाहनों की इस आवाजाही में वायु प्रदूषण अपने चरम पर रहता है। कपनुमा शहर में इस वाहन जनित वायु प्रदूषण के कारण गैस के रूप में सल्फर हवा में प्रचुरता से तैरती हैं। सामान्यतः बरसात की शुरुआती फुहारें जोंकों के लिए सर्वथा अनुकूल जीवनदाई परिस्थितियाँ लाती हैं। पहली बरसात में ही जोंकें अपने अंडों से बाहर निकलना शुरू कर देती हैं। दुर्भाग्य से अंडों से बाहर निकलते ही उन पर एसिड रेन की फुहार पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए अधिकांश जोंकें सक्रिय होने से पहले ही मर जाती हैं। शायद बची खुची बहुत कम जोंकै किसी तरह अपना जीवन चक्र पूरा कर पाती होंगीं। इस वर्ष पैदा हुई जोंकें एसिड रेन से बच गयीं क्योंकि लॉक डाउन ने जहाँ इंसान की परेशानियाँ बढ़ाई हैं वहीं प्रकृति पर अत्याचार को घटाया है।

अधिकांश लोग यही कहेंगें कि जोंकों का कम होना तो बड़ी राहत की बात है, इसलिए उनके दुबारा बढ़ने से खुशी क्यों? मैं कहना चाहूँगा कि हमने प्रकृति को बहुत ही संकीर्ण नजरिये से देखने की आदत डाल रखी है। जो हमारे काम या उपभोग चीज है वह तो ठीक, और अगर कोई हमारे बेकाम की हो या हमें जरा भी नुकसान पहूँचा सकती है जो उसे तुरंत मार दो। दरअसल हमें रासेल कार्सन की ‘साइलेंट स्प्रिंग’ एक बार जरूर पढ़नी चाहिये। जिसका सार यही है कि कीटों के चक्कर में अमेरिका में खेती को बचाने के लिए जब जमकर कीटनाशक छिड़के जाने लगे तो बसंत आने पर प्रकृति में वीरानगी छायी थीं। नुकसानदायक कीटों के साथ साथ बाकी प्राणी भी मारे गये। यहीं से प्रकृति को समग्रता में देखने की धारा प्रबल हुई। पर्यावरणवाद शुरू हुआ और डीडी.टी. जैसे घातक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया गया।

जोंकों की विषेशता इनके अर्धचक्रीय आरेनुमा दांत और लार में खून न जमने वाला रसायन होता है। अर्धचक्रीय दांत इसके काटने पर इतने आहिस्ता से एक बारीक काट बना देते हैं की काटने की यह प्रक्रिया दर्द रहित होती है। फिर जोंक उसमें अपने लार से विशेष द्रव्य उलट देते हैं। लार से निकालने वाला द्रव्य, जिसमें ‘हीरुडीन’ नाम का एक रसायन होता है, खून को जमने नहीं देता है। खून न जमने से इसका अविरल रिसाव होता रहता है, जिसे पीने में जोंक को आसानी रहती है। जोंक जीवन में एक ही बार भरपेट खून पी लेती है। 1950 में एक जर्मन वैज्ञानिक ने जोंक के लार से निकलने वाले इस ‘हिरूडिन’ नामक विशेष प्रोटीन का पता लगाया था। उन्होंने ‘हिरूडिन’ के इस गुण को खोजा कि इसमें खून के थक्का बनाने के आवश्यक एंजाइम थ्रोबिंन को निष्क्रिय करने की क्षमता है। ‘ऑलटरनेटिव मेडिसन जरनल’ में प्रकाशित डा0 सैयद मुहम्मद अब्बासी जैदी व सहयोगियों का अध्ययन बताता है कि यूनानी चिकित्सा पद्धति में जोंकों से शरीर के खून को बाहर निकालने की परंपरा प्राचीन काल से रही है।

जानकार लोग आज जोंकों से भी फायदा उठा रहे हैं । दुनियां में ‘लीच थिरैपी’ या जोंक उपचार बहुत लोकप्रिय होता जा रहा है। इस संबध में 2018 में कनाडा में एक बड़ी रोचक घटना घटी। एक आदमी के पास उसकी अटैची से हवाई अड़ड़े में 5000 जोंके पकड़ी गई। ‘साइटस’ या अंर्तराश्ट्रीय वन्य जीव व्यापार प्रतिबंध के नियमों के कारण यह काम एक अपराध था। इसलिए वह आदमी तो पकड़ा गया पर सवाल ये आया कि उन जोंकों का क्या करें क्योंकि पकड़ी गई जोंकें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित श्रेणी में आती थी इसलिए उन्हें मारा नहीं जा सकता था। यही नहीं ये जोंकें कनाडा के लिए बाहरी प्रजाति थी इसलिए उन्हें प्रकृति में छोड़ा भी नहीं जा सकता था। किसी तरह अमरीका के एक जोंक चिकित्सक ने 1000 जोंकें ली और बाकियों को मुकदमा चलने तक पाला गया।

पहाड़ में बरसात के दौरान जोंकों से सामना होना आम बात है। सदियों से लोग इनसे जूझते आ रहे हैं। इसलिए पहाड़ों में इनसे निबटने के लिए कई नायाब तरीके इजाद किये गये हैं। जोंक के बनाये घाव पर पहले से बीड़ी के बंडल के कागज जो कि मुलायम रेशेदार होता, चिपकाने का रिवाज था । महिलाऐं ऐसे घावों को बंद करने के लिए ऊन का प्रयोग भी करती थी। ऊन के बारीक रेशो को निकाल कर घाव पर भर दिया जाता था। इससे तुरंत ही घाव से खून का रिसना बंद हो जाता है। ‘हीरुडीन’ के इस रसायनिक गुण के कारण जोंक का प्राचीन काल से उपयोग होता आया है। इसे शरीर के खून में डाल देने से खून का थक्का बनने की प्रवृत्ति थीमी पड़ जाती है। इसलिए कई प्रकार के धमनियों और हृदय रोगों के साथ साथ गैंगरीन के उपचार में इसका उपयोग लाभकारी माना गया है। यही जोंक उपचार या लीच थिरैपी का आधार है। दुनिया में आज बड़े पैमाने पर इस विधि का उपयोग किया जाता है तथा इसके लिए विषेश प्रकार के जोंकों को उगाया जाता है जिसे मेडिसिनल लीच कहा जाता है।

‘हिरूडिन’ में थक्का बनाने के लिए जरुरी एंजाइम थ्रोबिंन को निष्क्रिय करने की क्षमता है। औषधि जगत में अब तक इस काम के लिए “हीपेरिन” नाम की दवा का उपयोग होता था जिसके कई साइड ईफैक्ट थे। विषेशकर प्लेटलैट पर इसके नकारात्मक प्रभाव को देखा गया। इसलिए ‘हिरूडिन’ एंजियोप्लास्टी, हृदय, कई प्रकार की प्लास्टिक सर्जरी जैसी शल्य चिकित्साओं के लिए अमूल्य साबित होने लगा। आज ‘हिरूडिन’ की अत्यधिक माँग होने के कारण यीस्ट व जीवाणुओं की सहायता से इसके प्रयोगशाला में कई रीकंबिनेंट या समान गुण वाले रसायन बनाये जाने लगे हैं।

इस इंसानी लाभ के अलावा जोंकों का पारिस्थितकीय महत्व भी है। प्रकृति के भोजन चक्र में जहाँ ये कई प्रकार के जीवों के भोजन हैं वहीं दूसरी ओर ये कई प्रकार के रीढ़ वाले व बिना रीढ़ वाले प्राणियों पर परजीवी बन कर उनकी जनसंख्या पर नियंत्रण करती हैं। इस तरह ये प्रकृति के पर्यावरण चक्र का अभिन्न भाग हैं। इनका हमारे जंगलों और प्रकृति से नष्ट होने से हो सकता है कि कुछ जीव प्रजातियों की जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाय या कम हो जाय।

मुझे जोंकों की इस साल की बढ़ोत्तरी के पीछे स्थानीय वायु में वाहनजन्य प्रदूषण की कमी होना बड़ा कारण लगता है। इसे सिद्ध करने के लिए कई वैज्ञानिक आधार भी हैं। अप्रत्याशित रूप से वाहनों के बढ़ने के कारण वायु प्रदूषण पर कोई चर्चा तो बहुत दूर की बात है, इस का संज्ञान तक नही लिया जाता । आज बांज के जंगलों में पाये जाने वाला झूला या लाईकेन जिस कदर विलुप्त हो गया है, वह इस बात का प्रमाण है कि नैनीताल की हवा में सल्फर प्रदूषण बुरी तरह मौजूद है। यही नही यहाँ पर अच्छी खासी ऐसिड रेन होती है। वाहनों की अनितंत्रित आवाजाही पर कड़ा नियंत्रण लगाने से ही इस परिस्थिति को रोका जा सकता है। हाँ, कुछ लोग अवश्य कह सकते हैं कि बिना वाहनों के पर्यटन कैसा? बेशक पर्यटन के विकास के लिए सब कुछ होना चाहिए पर ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए  जो इस छोटे से नगर के दीर्घकालीन हितों को ही बर्बाद कर दे। इन जंगलों की समृद्ध जैवविविधता और वन्यता में प्रत्येक प्राणी का योगदान है। इसलिए हमें सुनना चाहिये कि नैनीताल की जोंकें क्या कुछ कह रही हैं। शायद उसमें हमारा हित जुड़ा हो।

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