अस्कोट आराकोट अभियान 2024: स्रोत से संगम

इस बार के अस्कोट-आराकोट अभियान की थीम थी- स्रोत से संगम। पहले यह तय किया गया था कि, नदियों के साथ यह यात्रा, मुख्य यात्रा के बाद की जाएगी। लेकिन मुख्य यात्रा में साथियों की संख्या बढ़ जाने के कारण कर्मी में यह तय किया गया कि, यहां से सरयू और पिंडर नदियों के जलागम क्षेत्र के अध्ययन के लिए दो दल रवाना होंगे। नौ सदस्यों वाला यह दल छह जून को सरयू के उदगम से लेकर सेराघाट तक की अध्ययन यात्रा पर निकला। पेश है सरयू के संग सरमूल से सेराघाट तक की इस यात्रा का रोजनामचा।

बृहस्पतिवार, 6 जून 2024। सुबह छह बजे हमारा नौ सदस्यीय दल झूनी गांव से सरयू के उदगम सरमूल के लिए तैयार है। मेजबान तारा सिंह चाय पिला चुके हैं। सरमूल से लौटने तक वह नाश्ता तैयार रखेंगे। उन्होंने अपने बेटे, गोविंद को बतौर गाइड हमारे साथ रवाना किया। गोविंद, हमसे आगे चल रहा है। एक गधेरा आता है जिसमें पुल अभी निर्माणाधीन है। गधेरे में पानी बहुत ज्यादा है। गोविंद बताता है कि इस गधेरे का नाम ठन्या गधेरा है। लेकिन जहाँ से यह शुरू होता है वहाँ इसका नाम कुछ और है। आगे एक शिव की मूर्ति वाला मंदिर है। उसके बाद भूम्याल देवता का छोटा मंदिर। पीछे हाथों में दरांती लेकर जंगल जाती महिलाएं भी दिखती हैं, जो मवेशियों के लिए चारा लेने जा रही हैं। कुछ देर बाद रास्ता पगडंडी में बदल जाता है। बकौल गोविंद यह कमड़िया धार है। सामने दूर पहाड़ पर एक झरना दिखता है, जिसे सौधारा कहते हैं। सौधारा, झुनी गाँव से भी दिखता है। धारा के पार्श्व में एक लकीर सी उभरी दिखती है, जिसे लोग तीर का निशान मानते हैं। तारा सिंह टाकुली ने बताया था कि, सौधारा में मानसरोवर का पानी आता है और यह धार राम जी ने तीर मारकर प्रकट की थी। हालांकि गोविंद, राम की जगह लक्ष्मण के तीर मारने की बात कहता है। सौधारा जिसे सहस्रधारा भी कहते हैं, यह छोटी-छोटी (कोई सौ, कोई सहस्त्र कहता है) धाराओं से मिलकर बना है।

गोविंद ने सूपी के इंटर कॉलेज से 12वीं की है। आगे पढ़ने का नहीं सोचा, इसलिए गाँव मेें रह कर पिता के साथ खेती आदि में हाथ बंटाता है। वह बताता है कि सूपी इंटर कॉलेज में कुछ साल पहले सीबीएसई बोर्ड लागू हो गया, जिससे सभी विषय एकाएक अंग्रेजी में पढ़ाए जाने लगे। इस कारण 80 बच्चे बारहवीं में फेल हो गए। गोविंद हर आठ साल में होने वाली नंदा देवी यात्रा के बारे में भी बताता है। नंदा यात्रा में झूनी, बाछम, सूपी आदि गांवों के लोग हिमालय में स्थित ब्रह्मकुंड (नंदकुण्ड) से पानी और ब्रह्मकमल लेने जाते हैं। यह यात्रा 6-7 दिन की होती है। ब्रह्मकमल के पहले पांच फूल एक प्रकार की लकड़ी से तोड़े जाते हैं और आठवें दिन वापस गाँव के नंदा देवी मंदिर में चढ़ाए जाते हैं

बारिश के बाद नहाया ग्वार (जो झुनी ग्रामसभा का एक तोक है)

एक ही हैं सौधारा, सहस्त्रधारा और सरमूल

करीब एक किमी आगे चलने के बाद अब नीचे पहाड़ की खतरनाक ढलान में उतरना है। एक कदम गलत पड़ा तो सीधे नीचे खाई में ही पहुचेंगे। कहीं कहीं रेलिंग है। रास्ते में मछली की आकृति का एक पत्थर आया। इसके बाद सरयू का शोर सुनाई देने लगा। कुछ देर बाद सरयू आ गई। नदी में वेग ज्यादा नहीं है, इसलिए हम आसानी से इसे पार कर लेते हैं। गोविंद बताता है, कि, बारिश के दौरान पार करना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए कुछ महीनों के लिए सरयू पार के हिस्से में आवागमन नहीं हो पाता। नदी पार करके कुछ छोटी पानी की धाराएं सरयू में मिलती दिखती हैं, जिन्हें दुग्धारा कहते हैं। जहाँ हमने नदी पार की उससे पहले भी एक धारा सरयू में मिलती है, जिसे बसुधारा कहते हैं। हम मंदिर प्रांगण में पहुंचते हैं, जहाँ सरयू का उद्गम सरमूल मानकर पूजा की जाती है। असल में सरयू का उद्गम तो और ऊपर है पर वह जगह अगम्य है। इसीलिए यह स्थान जो सौधारा के नीचे ही है, इसे प्रतीकात्मक रूप से सरयू का उद्गम मानकर नदी की पूजा की जाती है। इसी कारण से इस जगह को सौधारा/सहस्त्रधारा या सरमूल नामों से जाना जाता है। सौधारा से आने वाली धारा कुछ मीटर आगे ही सरयू में मिलती है। वहीं पर एक आश्रम है। यहां रहने वाले बाबा पहले कभी-कभी यहां रहते थे पर एकाध वर्ष से ज्यादातर यहीं रहते हैं। नौ बजे सरयू मूल से वापस झुनी को रवाना हुए। झूनी यहां से 6-7 किमी दूर है।

लगभग एक बजे हम झुनी से बैछम के लिए रवाना हुए। तारा सिंह टाकुली जी ने बैछम में त्रिलोक सिंह दाणू जी के वहाँ रात रुकने की व्यवस्था और भोजन के लिए कह दिया था। झुनी गाँव की पगडंडी से सड़क पर आते हैं और फिर सड़क पर ही पैदल चलते हैं। लगभग एक किमी बाद खलझुनी गाड़ और इसके बाद खलझुनी गाँव।

खलझुनी पूर्व में झुनी का ही तोक था। खल का कुमाउनी में अर्थ हैं मैदान और दूर से बसासत एक मैदान पर बसी दिखती है। यहाँ कुछ परिवार ठाकुरों के और बाकी परिवार शिल्पकारों के और जनजातीय (शौका) परिवारों के हैं। यहाँ जनजातीय परिवारों के गाँव होना हमारे लिए नई बात थी क्योंकि कुमाऊं में अमूमन जोहार, व्यास, चौंदास और दारमा में ही परंपरागत जनजातीय परिवार रहते हैं। आने वाले दिनों में हमने जाना कि मल्ला दानपुर में खलझुनी, मिकिला, हरकोट, चौड़ा आदि गाँव शौका परिवारों के हैं और शताब्दियों से यहां रह रहे हैं। यह लोग जोहार के शौकाओं से संबंध रखते है या रं समुदाय या गढ़वाल के नीति घाटी के भोटियाओं से, बता नहीं पाते। इनकी रिश्तेदारी भी आसपास के गाँव में ही हो जाती है। कुमाऊँ के शौका या रं समुदाय की तरह यह भी अपना उपनाम गाँव के ऊपर रखते हैं। खलझुनि वाले खलझुनिया, हरकोट वाले हरकोटिया, चौड़ा वाले चौड़िया आदि। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार यह शौका लोग पहले पिंडारी में रहते थे और इनके संबंध ट्रेल पास पर कर जोहार के शौका परिवारों में होते थेखलझुनि गाँव पहुँचने पर हमने ग्राम प्रधान का घर पूछा। यहां प्रधान महिला थी लेकिन लोगों की जुबान पर पहले पुरुष का ही नाम आता है यानी प्रधान पति का। ग्रामप्रधान के घर पर ताला लगा है। खैर हमें लोगों से बात करने और सर्वेक्षण के लिए आंगन चाहिए था, वह मिल गया। इस बीच कई बच्चे भी वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। हम लोग बैनर लगा कर बच्चों के साथ अभियान के गीत गाते हैं। गीतों की आवाज सुनकर कुछ लोग आ जाते हैं, हालांकि महिलाएं नदारद थी।

झुनि से आई सड़क से खलझुनि गाँव का दृश्य

झूनी की ही तरह खलझुनी में भी मुख्य समस्या मोबाइल नेटवर्क की है। गाँव में आधे परिवार शिल्पकारों और आधे शौकाओं के हैं। झूनी से एक ठाकुर परिवार यहाँ आया और अब वह बढ़कर सात परिवार हो गए हैं। गांव में हस्तशिल्प (रिंगाल, थुलम, पंखी आदि) का काम अच्छा है पर मुख्य आजीविका मजदूरी ही है। गांव में शराब का खासा चलन है। मुनार में एक लघुविद्युत परियोजना है, जिसके संचालन को लेकर बैछम, पतियासार, खलझुनी वाले मिलकर निर्णय लेते हैं।

एक शिल्पकार बुजुर्ग ने बताया कि, वह लोहार का काम करते हैं। गाँव में शिल्पकारों में सिर्फ लोहार और दास (मंदिरों में ढोल बजाने वाले) परिवार ही खलझुनी में रहते हैं। उनका मुख्य देवता अलखनाथ है। बताते हैं, पहले शौका लोग शिल्पकारों के हाथ का खाना नहीं खाते थे पर अब ऐसा चलन बहुत कम है। गांव में दुकान चला रहा एक युवक मिला, जो कोरोना काल में वापस आकर गाँव में ही रहने लगा। सिलाई की दुकान थी पर छोटा-मोटा खाने का सामान भी रखा था।

खलझुनी की मुस्कान

सड़क ने लील लिया भद्रतुंगा बिजली प्रोजेक्ट

खलझुनी की दुकान में मिले दो युवकों ने बैछम के लिए रोड के बजाय पुराने पैदल मार्ग से जाने को कहा। हम उन्हीं के मुताबिक एक किमी सड़क पर चल कर सेब-कीवी के बगीचे से लगे पैदल रास्ते पर चलते हैं। खलझुनी में लोगों ने बताया था कि यह बगीचा खलझूनी वालों ने लीज पर किसी बागेश्वर जिले के प्रवासी को दी है और उसी ने यह बगीचा लगाया है। पीछे से आ रहे एक व्यक्ति हीरा सिंह टाकुली मिले, जो बैछम के ही रहने वाले थे। बताते हैं कि, सूपी से झूनी तक जो सड़क बनी, उससे उनके गाँव के कुछ घर टूट गए, पानी बंद होने से घराट भी बंद हो गए। सामने सरयू पार खलपट्टा की सड़क का मलबा सरयू में गिरने पर चिंता व्यक्त करते हैं। पहले गाँव में बिजली भद्रतुंगा पर बने हाइड्रोप्रोजेक्ट से आती थी, पर सड़क बनने के कारण उसमें भी नुकसान हुआ, इसीलिए भद्रतुंगा प्रोजेक्ट बंद है।

बैछम गाँव में तीन तोक वल्ला बैछम, पल्ला बैछम और तल्ला बैछम हैं। वल्ला में दाणू रहते हैं। पल्ला और तल्ला तोकों में टाकुली परिवार रहते हैं। बैछम धार से तीनों तोक और नंदा देवी का मंदिर दिखता है। बैछम गाँव की सीमा पर पहुँचते पहुँचते अंधेरा हो गया। त्रिलोक सिंह हमें रात रुकने के लिए दो कमरे दिखाते हैं। पटाँगण में बैठी महिलाओं से बातख्ीत हुई। त्रिलोक सिंह जी के परिवार ने बड़ी आत्मीयता से हमें खाना खिलाया।

अगली सुबह तय समय पर सभी तैयार मिलते हैं। खलपट्टा जाने वाली टीम में मैं, दीपानी, आकाश और सपना थे। त्रिलोक सिंह जी हमें गाँव से बाहर सड़क तक पहुँचने का रास्ता बता देते हैं। हम उन्हीं के बताई पगडंडियों से गाँव के बीचों-बीच जाकर नीचे सड़क पर पहुँचते हैं। गांव के बीच में कुछ मिट्टी से लीपे पुराने घर दिखते हैं, छोटे मंदिर और नौले भी दिखते हैं। फिर आधा किमी सड़क पर चल कर मुख्य सड़क को छोड़कर नीचे की ओर गयी कच्ची सड़क पर पैदल चलते हैं। यह सड़क भद्रतुंगा मंदिर तक जाती है। भद्रतुंगा तीर्थ तीन नदियों सरयू, खलझुनी गाड़ और खलपट्टा गाड़ के संगम पर है और बैशाख पूर्णिमा पर यहाँ बड़ा मेला लगता है। खलपट्टा गाड़ माधारी खरक से आती है। मंदिर से कुछ पहले एक बड़ा आश्रम है। जिसकी लाल छत पर लिखा, श्री स्वामी रामानंद भद्रतुंगा आश्रम, बैछम की मुख्य सड़क से ही दिखता है। मंदिर से आरती की आवाज और पार्श्व में स्वचालित घंटी बज रही थी। कुछ देर बाद खिड़की से झांकते हुए लंबे कद के एक बाबा गेट खोलते हैं पर बोलते कहते कुछ नहीं। सीढ़ियां चढ़ कर एक बड़े हॉल में प्रवेश करते हैं। वहाँ 5-6 साधु/बाबा पंक्तिवार खड़े होकर आरती/भजन गा रहे होते हैं। हम भी बगल में उसी मुद्रा में खड़े हो गए। आश्रम भव्य था। बहुत बड़ा हॉल, सीलिंग लाइट और पैनल लाइट्स छत पर आगे की ओर लगी थी, मूर्तियाँ चमचमा रही थी। आश्रम के अंदर आकर यह सोच पाना मुश्किल था कि हम किसी दूरस्थ क्षेत्र में हैं। दस मिनट तक उन लोगों को भजनों में तल्लीन देखकर हम वहाँ से निकल जाते हैं। आगे सरयू के किनारे चलकर भद्रतुंगा मंदिर आता है, जिसमें छोटे-छोटे नए-पुराने शैलियों में कई मंदिर/धर्मशाला हैं। कुछ मूर्तियाँ मन्दिर के प्रांगण में पेड़ों के पास पड़ी हैं, जो पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण होंगी।

मंदिर के सामने सरयू पार खलपट्टा की नई सड़क दिख रही है जिसका सारा मलबा सरयू में डाला गया है। कुछ जगह तो सरयू का मार्ग पूरा अवरुद्ध दिखाई पड़ता है। सरयू पर बने पुल से सरयू और खलपट्टा गाड़ का संगम नजर आता है।

सड़क का मलबा सरयू जिससे सरयू के बहाव में अवरोध

आमा की विनती, ये शराब बंद करवा दो

जिस मार्ग पर हम चल रहे थे, नक्शे में यह नामिक-खलपट्टा ट्रेल से दर्शाया गया था। पहले जंगल आता है, जिसके बगल में खलपट्टा गाड़ सूसाट करते हुए बह रही थी। रास्ते में हमें गाँव के जोगाराम मिले, जो पतियासार में एक हस्तशिल्प उद्योग की लोकल यूनिट में काम करते हैं। खलपट्टा में एक घर की लिंटर वाली छत पर आठ-दस लोगों को इकट्ठा कर गाँव के हालात का जायजा लेते हैं। सभा में महिलाएं यहाँ भी नदारद थी। सभा के बाद महिलाओं का पक्ष जानने के लिए एक घर के आंगन में बैठते हैं। वहाँ एक आमा, एक अधेड़ महिला और एक युवा महिला बैठी थीं। आमा हमें अनदेखा कर रही थी। युवा महिला भावना का पति बाहर नौकरी करता है। बातचीत के दौरान जब शराब के चलन की बात आ जाती है तो भावना असहज हो जाती है। पर आमा बोलती है, शराब ने पूरा गाँव खत्म कर दिया है, किसी तरह शराब बंद कर दो। बातचीत में पता चला कि, बगल के मिकिला तोक के शौका लोगों को पारंपरिक शराब बनाने की इजाजत है। लेकिन अवैध तरीके से ड्रम के ड्रम यहाँ खलपट्टा के घर घर पहुंचाए जा रहे हैं। गाँव के लोग भी सस्ती शराब (सौ रुपये बोतल) के चक्कर में उसी का उपभोग ज्यादा करते हैं। लोग दिन भर कमाते हैं और शाम को शराब में उड़ा देते हैं। शराब की वजह से हर घर में क्लेश होता है। पिछले कुछ वर्षों में कई आदमी नशे में पहाड़ से गिरे और चोट खा गए। गाँव में एक विकलांग व्यक्ति दिखा, लोगों ने बताया था कि वह शराब के नशे का ही परिणाम है। आमा ने खुद अपना बेटा शराब में खोया था और अब नाती शराब में रम गया है। आमा से विदा लेकर, बैछम की ओर चलते हैं। गांव के जोगाराम का बेटा अर्जुन यूट्यूबर है और यूट्यूब चैनल के माध्यम से गाँव का रहन सहन, संस्कृति आदि को देश विदेश में पहुँचाता है।

खल्पट्टा में शराब-बंदी की मांग करती एक आमा।

समयाभाव के कारण हम बगल के गाँव मिकिला, नींणी, नंगला नहीं जा पाए। सरयू पुल पार कर भद्रतुंगा पर पहुँचे। यहां एक जेसीबी सरयू से मलबा हटा रही थी। बैछम के रास्ते पर एक नौले के ऊपर एक व्यक्ति रिंगाल की चटाई बनाता दिखा। पूछने पर बताता है कि वह मिकिला से है। उसने बताया कि, नौले में पानी अब बहुत कम हो गया है। दोपहर त्रिलोक सिंह के घर भोजन के बाद हमारी 9 सदस्यों वाली टीम पतियासार-तलसार के लिए रवाना हुई

सड़क के मलबे को हटाने की नाकाम कोशिश करती एक मशीन

श्रमदान से बनी बागेश्वर-भराड़ी की सड़क

दोपहर के 12 बज रहे थे और हमें आज पतियासार, सूपी, रिखाड़ी, मुनार होते हुए सौंग पहुँचना था। इसीलिए हम दो टुकड़ियां बनाने का निर्णय लेते हैं। एक टुकड़ी पतियासार-सूपी का सर्वे करेगी और दूसरी टुकड़ी रिखाड़ी-मुनार का। बैछम गाँव की पगडंडी से होते हुए नीचे सड़क किनारे पैदल चलते हैं। यहां खाती के जंगलों से शुरू हुई गौथिलिया गाड़ आती है जो सरयू की सहायक नदी है। लोगों ने बताया कि इस गाड़ का नाम एक चिड़िया गौंत्या के नाम पर पड़ा है। वहाँ से लगभग एक किमी बाद पतियासार गाँव आता है। हम तीन लोग एक घर के आंगन में रुकते हैं और बांकी साथी रिखाड़ी रवाना होते हैं। उस घर में हमें एक बुजुर्ग भागीचंद टाकुली मिले। भागीचंद पुराने दिनों को याद कर कहते हैं कि बागेश्वर से भराड़ी की सड़क लोगों ने श्रमदान से बनाई थी। श्रमदान में वह भी शामिल थे।

पतियासार, पतियासार-तलसार ग्राम पंचायत का तोक है। इसका अन्य तोक तलसार सड़क के ऊपर है। गाँव का बुग्याल कुटेला धुरा है जहाँ लोग भेड़ बकरी लेकर जाते हैं। निकटतम पोस्ट आफिस सूपी (3 किमी) और ग्रामीण बैंक सोंग (15 किमी) में है। तलसार में एक प्राइमरी स्कूल है, उससे आगे की शिक्षा के लिए सूपी में विद्यालय है। घराट पहले चलते थे, अब नहीं है। हमें एक युवा मिला जो अग्निवीर की तैयारी कर रहा है। उसने कहा कि, अग्निवीर से पहले वाले फौज की नौकरी बढ़िया थी। गाँव के ही एक व्यक्ति तारा सिंह के बारे में बताता है जो गाँव में रहकर युवाओं को अग्निवीर, नवोदय स्कूल आदि परीक्षाओं की तैयारियां करवाते हैं।ढाई बज गया था और फिर हम सड़क पर न जाकर सीधा गाँव के पैदल रास्ते से ही आगे बढ़ते है। आगे हमें सूपी गाँव जाना था। पतियासार से सूपी के रास्ते में हमें कई ऐसे घर मिले जिनकी चौखटों पर बेहतरीन नक्काशी की गई थी। दो किमी चलने के बाद सूपी की सीमा शुरू हो जाती है। सरयू पार लाहुर गाँव है। नीचे सरयू पर बने सड़क पुल और पैदल पुल नजर आते हैं। सूपी सरयू के इस ओर का सबसे बड़ा गाँव है तो उस ओर वही स्थिति लाहुर की है। आगे प्रेम सिंह टाकुली की चाय की दुकान पर बैठते हैं।

बैछम धार से दानपुर के दूरस्थ गाँव

नौ सौ नाकुरी, पांच सौ सूपी !

प्रेम सिंह बताते हैं कि, नौ सौ नाकुरी, पांच सौ सूपी, एक किस्सा है जो सूपी के पांच सौ से ऊपर परिवारों की संख्या को बताता है। मल्ला सूपी, तल्ला सूपी और तलाई इसके तीन तोक है। टाकुली लोगों का मूल गाँव सूपी ही है, जो टाकुली अन्यत्र आसपास के गांवों में फैले वह सब सूपी से ही गये हैं। मल्ला सूपी में ठाकुर लोग रहते हैं तो तल्ला सूपी में शिल्पकार। शिल्पकारों में दास, लोहार आदि हैं। विकास के लिहाज से इसकी स्थिति पहले मिले गांवों से बेहतर है। तीन प्राइमरी स्कूल, छह आंगनबाड़ी हैं। सीबीएसई बोर्ड वाला इंटर कॉलेज यहीं मल्ला सूपी में है। एक प्राइवेट हॉस्पिटल है जिसमें एक डॉक्टर बागेश्वर से है। एक छोटा सरकारी अस्पताल है जिसमें एक डॉक्टर बैठता है। एएनएम सेंटर और पशु अस्पताल भी यहां है। अधिकतर लोग पलायन कर चुके हैं जो हल्द्वानी, बागेश्वर, शांतिपुरी में बस गए हैं।

स्वतंत्रता सेनानी चंद्रसिंह अधिकारी सूपी के ही थे, जिनके नाम से सूपी का इंटर कॉलेज है। इस गाँव से सेना में बहुत लोग रहे हैं और कई युद्धों में भाग ले चुके हैं। गांव के सैनिकों को वीरता पुरस्कार भी मिल चुके हैं। कारगिल युद्ध में सूपी निवासी एक सैनिक का हाथ कट गया था।

देवी नंदा के इलाके में

लिंगधार नदी पर पेयजल के लिए 1।5 करोड़ का प्रोजेक्ट लगा है। गाँव के ऊपर चिल्ठा टॉप है जो यहाँ का ऊंचा शिखर है। वहाँ चिल्ठा माता का मंदिर है। उसी नाम से एक मंदिर गाँव में भी है। इस मंदिर के बाएं दीवार पर गाँव के गोरखा युद्ध आदि में शामिल लोगों के नाम एवम उनकी वंशावली लिखी है। एक नंदा जात इसी मंदिर से होकर बैछम, झूनी होते हुए ब्रह्मकुंड/नंदाकुंड जाती है और फिर वहाँ से जल एवं ब्रह्मकमल लेकर आती है। कई वर्षों बाद यह जात होती है। इसके समय का आंकलन चार सिंगी मेमने (भेड़ के बच्चे) जिसे खाडू कहते हैं,़ के जन्म से होता है। इसके अलावा बदियाकोट के रहने वाले एक शिल्पकार को सपना होता है, वह लोगों को इस बारे में बताता है। वह दाणू देवताओं के नाम से रिंगाल की छत्यूर बनाता है। फिर भाद्रपद के महीने में यह जात निकलती है। विडंबना यह है कि वह शिल्पकार इस यात्रा में नहीं जा सकता। आगे धामी (पुजारी) होते हैं, फिर छत्यूर ओढ़े देवडांगर, ढोल वादक और फिर पीछे सभी गाँव वाले। चौसिंगिया खाडू भी साथ चलता है। जात सूपी के इस मंदिर से होकर बैछम धार के नंदा देवी मंदिर में कुछ घंटों के लिए रुकती है। बैछम तक छोड़ने सूपी एवं आसपास के गांवों के सभी लोग आते हैं। फिर यहाँ से भीगी आंखों से नंदा को विदा करते हैं। यहां भी मुख्य नंदा राजजात की तरह ही नंदा को ससुराल विदा करने की परंपरा है। बैछम के बाद पहला पड़ाव झुनी में नंदा देवी मंदिर में। फिर अगले दो दिन में ब्रह्मकुंड/नंदकुण्ड से वापस आकर सप्तमी को सूपी के मंदिर में ब्रह्मकमल से पूजा होती है। ऐसा कहते हैं कि जुड़वा ब्रह्मकमल ही तोड़े जाते हैं, जिसमें एक सूपी की नंदा (चिल्ठा) के लिए और दूसरा ब्रह्मकमल लीती से आये लोग अपने गाँव की जात के लिए तोड़ते हैं।

सूपी से आगे तलाई आता है जो सूपी ग्राम पंचायत का ही एक तोक है। तलाई से एक सड़क ऊपर को हरकोट के लिए जाती है। मील-पत्थर पर हरकोट की दूरी 5 किमी लिखा था। हरकोट शौका लोगों का पुराना गाँव है। थोड़ा आगे जाकर सड़क के किनारे एक बड़ी हुनमान की मूर्ति दिखती है और उसके साथ लगा गुलाबी रंग से रंगा छोटा मंदिर। पहाड़ में मुख्यधारा के हिन्दू देवताओं के मंदिर बहुत कम हैं। दूरस्थ क्षेत्रों में तो लगभग नहीं। गाँव वालों ने बताया था कि यह मूर्तियाँ आश्रम (भद्रतुंगा, सरमूल) वालों के सौजन्य से मिली हैं। सरयू पार बरमाती का जंगल दिखता है और उसके बाएं किनारे से आने वाला बरमाती गधेरा जो सरयू में मिलता है। आगे सरयू के किनारे कुछ पुराने पनबिजली संबंधित निर्माण दिखते हैं। लगभग पांच बजे रिखाड़ी पहुँचे।

दलितों के अलग देवता

हमारे साथियों ने रिखाड़ी गांव से जो जानकारी एकत्रित की उसके मुख्य बिंदु यह है कि रिखाड़ी गाँव ठाकुरों और शिल्पकारों का गाँव है। शिल्पकारों के घर सड़क के नीचे हैं। हमारे साथियों ने ज्यादातर उनसे ही बात की। शिल्पकारों के मुख्य देवताओं में भूम्याल में लाल बाण, काला बाण हैं। वह अलखनाथ को भी पूजते हैं और आँछरी को भी मानते हैं। ठाकुरों में लोग नंदा देवी को मानते हैं। गाँव में पलायन है, शिक्षा एवं रोजगार इसके प्रमुख कारण लोगों ने गिनाए। कुछ लोग बागेश्वर-कपकोट में रहकर बच्चों को पढा रहे हैं। रोजगार के लिए अधिकर लोग होटलों में काम करने राज्य से बाहर गए हैं। गाँव के अधिकतर युवा 12वीं के बाद पढ़ाई करने में फायदा नहीं समझते, क्योंकि नौकरी मिलना मुश्किल है, इसीलिए 12वीं के बाद ही होटलों में नौकरी करना मजबूरी है। शिल्पकारों का कहना है कि आरक्षित जाति होने के बावजूद उनको आरक्षण का फायदा नहीं मिल रहा है। ढाई सौ रुपये रोजाना मजदूरी में पत्थर ढो रही एक महिला कहती है, सड़क बनाने के लिए सैकड़ों पेड़ काट दिए हैं, इसलिए मौसम और ज्यादा गर्म हो गया है। अब बारिश का मौसम आएगा तो भूस्खलन की वजह से घर बहने का डर पूरे चौमास सताता रहेगा।

रिखाड़ी में महिलों से बात करते दल के साथी

मुनार में कश्मीरी लाल बिजली प्रोजेक्ट

रिखाड़ी से चीड़ के जंगल शुरू हो गए। नीचे मुनार में सरयू पर बनी लघुविद्युत परियोजना दिख रही है। 5 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता वाली यह परियोजना पर्वतीय पावर लिमिटेड कंपनी संचालित करती है। इस कंपनी के एक डायरेक्टर कश्मीरी लाल अग्रवाल हैं। इसलिए गाँवों में लोग इस परियोजना को कश्मीरीलाल के नाम से जानते हैं। हम परियोजना के ही बगल से होते हुए नीचे सड़क पर 1500 मीटर की ऊंचाई पर पहुँचते हैं। यह मुनार-सोंग से कपकोट को जाने वाली सड़क है। एक अनाम गधेरा पार कर बाजार में पहुँचते हैं। मैं एक दुकान पर बैठे कुछ लोगों से बात करता हूँ, जिनमें से कुछ सरयू पार गासी गाँव के थे। यहां मुनार परियोजना में कार्य कर रहे एक इंजीनियर से भी बात हुई, वे रानीखेत से थे। वह हमें कपकोट घाटी में चल रहे पनबिजली परियोजनाओं के बारे में काफी कुछ बताते हैं। लगभग आधे घंटे बाद हम दो लोग सौंग के लिए रवाना होते हैं। सरयू में मिलने वाला एक और अनाम गधेरा पार करते हैं। सौंग पहुँच चुके साथियों ने बताया कि, ठहरने के लिए वहाँ सिर्फ एक ही कमरा है और खाने पीने की भी व्यवस्था मुश्किल है। हम तय करते हैं कि, सौंग में व्यवस्था नहीं हो पाई तो गाड़ी बुक कर भराड़ी/कपकोट चले जाएंगे और कल सुबह वापस आकर गाँव के लोगों से बातचीत, सर्वे करेंगे। लेकिन सौंग में एक और कमरे का इंतजाम हो गया। साथ ही चाय की दुकान वाले को रात का खाना बनाने के लिए मना लिया।

8 जून 2024, सुबह 7 बजे 4-5 लोग बाजार के ऊपर दिख रहे कुछ घरों की ओर निकल लेते हैं। सौंग छोटा सा कस्बा है। सौ मीटर से भी कम दायरे में सड़क के दोनों ओर दुकानें। सड़क के ऊपर कुछ खेतों की पंक्तियाँ और उससे ऊपर लगभग 6-8 मकान और एक लावारिस सा दिखने वाला रेस्ट हाउस। इसके अलावा कपकोट जाने वाली सड़क पर बाजार से आधा किमी दूर एक इंटर कॉलेज और उससे पहले इक्का-दुक्का मकान। सौंग से ही एक सड़क ऊपर की ओर लोहारखेत होते हुए चौड़ा, कर्मी और बदियाकोट को जाती है। हम दुकानों के पीछे से जाकर, खेतों की पंक्तियों से ऊपर चलते हुए एक घर में पहुँचते हैं, जहाँ हमें बुजुर्ग भूपाल सिंह धानिक और उनकी बहू मिलती हैं। कुछ घरों में ताले जड़े मिलते हैं। भूपाल सिंह बताते हैं कि, सौंग, सुडिंग-लोहारखेत ग्राम सभा का ही एक तोक है। धानिक, टाकुली और मटियानी लोग यहां रहते हैं। अधिकतर लोग सुडिंग से हैं और जमीनें भी उनकी ही हैं, इसीलिए इन लोगों का सुडिंग आना जाना लगा रहता है। खेत, जंगल, मंदिर, बिरादरी सब सुडिंग में ही है। अस्सी के दशक में रोड सोंग पहुँची और तब से यहाँ मकान बनने शुरू हुए। हालांकि यहाँ का प्राइमरी स्कूल सन 1872 का बना हुआ था जो सन 2018-2019 में बंद हो गया। पहले मल्ला दानपुर के सभी गाँव वाले प्राइमरी तक यहीं पढ़ने आते थे और जो आगे पढ़ने की हैसियत रखते थे वह कांडा जाते थे। बाजार में जो दुकानें हैं, वह भी आधी सुडिंग वालों की और आधे अन्य जगह से आये लोगों की। नौले-धारे में पहले बारो मास पानी रहता था, अब तो कभी कभी बरसात में ही पानी दिखता है। पहले रोपाई भी होती थी। पोस्ट आफिस और एएनएम सेंटर लोहारखेत (3किमी) है। एक के।एम।वी।एन का रेस्ट हाउस भी है जो लावारिस पड़ा है। रेस्ट हाउस के प्रांगण में गाज्यो (सूखी घास) के ढेर देखने को मिले।

सौंग के दोनों ओर खड़ी चट्टानें हैं जो इसे भूस्खलन के लिए बेहद संवेदनशील बनाती हैं। भूपाल सिंह ने बताया कि, गाँव की सबसे बड़ी समस्या भूस्खलन है। सरयू के किनारे तो चौमास में भूस्खलन आम है। घरों की जमीन भी हर साल बैठ रही है। बारिश के वक्त तो घर हिलने लगते हैं। सड़क भी चौमास में लगभग बंद रहती है।

सौंग, मल्ला दानपुर की जातियों और नीचे के क्षेत्रों की जातियों के बीच का विभाजक है। ऊपर के क्षेत्रों में दाणू, टाकुली आदि लोगों का वर्चस्व है तो सौंग से आगे अन्य उपनामों का। ऊपर के क्षेत्रों में ब्राह्मण नगण्य हैं तो नीचे सुमगढ़, उत्तरोड़ा, हरशिला ब्राह्मण बहुल्य गाँव हैं। सुमगढ़ एक तरह से क्षेत्र में ब्राह्मणों का आखिरी गाँव है। मल्ला दानपुर के ऊपरी क्षेत्रों एवं नीचे के क्षेत्रों में बोली का अंतर साफ पहचाना जाता है। मनुष्यों के अलावा देवता भी अलग अलग हैं। ऊपरी क्षेत्र नंदा, कालिका, अलखनाथ आदि के मंदिर हैं तो नीचे के क्षेत्र नौलिंग, छुरमल, ग्वल आदि देवताओं के।

सोंग के भूपाल सिंह धानिक से गाँव की समस्याएं सुनते हुए

सुमगढ़ में 18 मासूमों का स्मृति स्थल

सौंग से कुछ आगे सुमगढ़ की बाजार आती है। हम वहाँ एक दुकान पर खाना तैयार करने का बोलकर सरयू के तट पर स्थित तप्तकुंड मंदिर में गए। यह छोटा कुंड है, जिसके बारे में कहते हैं कि जाड़ों के दिनों में पानी गर्म होता है। कुंड के पास ही कुछ मंदिरों का समूह है जो अधिकतर पुरानी शैली में बने हैं। सरयू का पाट यहाँ चौड़ा है। तप्तकुंड के पास ही एक बाखली दिखती है, और उसके बाद एक पैदल पुल। पुल पार कर एक बगीचा मिलता है जिसे शहीद स्थल नाम दिया है। 18 अगस्त 2010 को एक भूस्खलन, सुमगढ़ के शिशु मंदिर में पढ़ने वाले 18 बच्चों को निगल गया था, उन्हीं बच्चों की स्मृति में उस जगह यह स्थल बनाया गया है। वहाँ मैंने सुमगढ़ में अपने रिश्तेदारी के ही एक लड़के पवन जोशी को बुला लिया था, जिसने इस विषय पर और जानकारी दी।

सुमगढ़ का स्मृति पट

यहां से आगे हम फिर दो टुकड़ियों में बंट गए। हम चार लोग सलिंग गाँव के भ्रमण पर और बाकी सुमगढ़ गांव में बातचीत, सर्वे आदि के लिए रुक गए। एक किमी चलने के बाद गाँव आया। घरों में इक्का दुक्का महिलाएं दिखती हैं। वे बताती हैं कि, अधिकतर मर्द सलिंग के मंदिर में पूजा में गए हैं। सुमगढ़ बाजार से थोड़ा पहले शिशु मंदिर है जो सुमगढ़ में हुए हादसे के बाद यहाँ सलिंग में बना है।

सलिंग ग्रामसभा सलिंग, सलिंग उडयार, मेहलचौड़ और भैंसखाली से मिलकर बनी है। मेहलचौड़ में कुछ शिल्पकारों के परिवार रहते हैं, बाकी अन्य तोकों में ठाकुरों के परिवार। मोबाइल नेटवर्क में वोडाफोन के ही सिग्नल आते हैं। धान, गेहूँ, जौ, मडुवा, आलू, राजमा, मसूर, भट्ट यहा मुख्य उपज हैं। भैसों के मुकाबले गाएं ज्यादा हैं। गांव में बंदरों का आतंक है। गांव में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। गाँव में नौलिंग, छुरमल, ग्वल के मुख्य मंदिर और एक शिवालय है, जो भूस्खलन में टूट गया। पहले यहां के लोग धाकुड़ी के जंगलों में छाने बनाते थे और चौमास के दिनों में मवेशियों को ले जाते थे। अब वह परम्परा खत्म हो गई है। हालांकि चौड़ा और सुडिंग वाले अब भी मवेशियों को लेकर वहां ले जाते हैं।

सुमगढ़ की बाजार से निकलते-निकलते दिन के 2 बज गए। हम सरयू के साथ साथ आगे बढ़ते हैं। सुमगढ़ गाँव और कफलानी के बीच एक गधेरा बहता है जो सरयू में मिलता है। इससे आगे सरयू पर पानी रोकने के लिए बनाया बांध जैसा कुछ दिखता है, शायद विद्युत परियोजना प्रोजेक्ट है और सरयू के किनारे क्रेन भी खड़ी दिखती है। पहाड़ को उधेड़ कर बनाई गई सर्पीली सड़क नीचे से ऊपर को जाती दिखती है। बरसात में मलबा गिरने के खतरे का बोर्ड भी लगा है। आगे सरयू पर बने मोटर पुल को पार किया। झुनी से लेकर अब तक जो सरयू नदी हमारे दाहिने और बह रही थी, वह अब हमारे बायीं ओर है। पुल से आधा किमी बाद एक सुरंग है, जिसे कुछ फ़ीट अंदर जाकर एक अस्थायी दीवार से बंद किया गया है। दीवार में कुछ ईंटों की जगह खाली होने से सुरंग के अंदर का नजारा साफ दिखता है। अब जिस क्षेत्र में हम हैं, यहाँ आसपास की पहाड़ियां वृक्षविहीन हैं, बड़े-बड़े पत्थर चट्टानें हैं और उनके बीच में घास दिखती है। समय को देखते हुए हम फिर दो टुकड़ियों में बंट गए। एक दल बासे औ दूसरा दुलम के लिए रवाना हुआ।

शिल्पकारों का गाँव बासे, सुमगढ़ ग्रामसभा का ही एक तोक है। गाँव के 33 परिवारों में 28 शिल्पकार परिवार (लोहार) हैं और शेष ठाकुर परिवार। गाँव की विडंबना ही यह है कि यह सुमगढ़ का तोक है, जो यहाँ से काफी दूर है। कोई भी सरकारी स्कीम, बजट, आरक्षण आदि का फायदा सुमगढ़ के गिने चुने शिल्पकार परिवारों को मिल जाता है। महिलाओं का कहना है कि सरकारी राशन में जो चावल मिलते हैं वह घटिया और प्लास्टिक जैसे लगते हैं। ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। बारिश के समय डर सताता है। ऊपर पहाड़ और नीचे नदी। लोग कहते हैं, जब से सलिंग और बासे के बीच लघुविद्युत परियोजना बनी है तब से गाँव में पानी की बहुत दिक्कत है। परियोजना की सुरंग से गधेरे सूख गए हैं और अब खेती सिर्फ बारिश पर निर्भर है। सरकार ने पाइपलाइन डाली है, पर उसमें भी पानी कम ही आता है। गाँव के जो नौले धारे थे, वह भी सूख गए हैं।

तप्तकुंड मंदिर एवं आश्रम

मरणासन्न रेवती नदी

हमारी टुकड़ी दुलम के लिए सड़क से ही आगे रवाना हुई। सरयू पार (अब हम सरयू के पूर्व में हैं) खेतों की कतार दिखती है और उसके ऊपर एक पैदल मार्ग। फिर सरयू पार एक सुंदर गाँव दिखता है, जो कुनेड़ी है। उसी से थोड़ा आगे दुलम गाँव भी दिखता है। एक महिला बताती है, दुलम के सारे लोग आज सड़क के इस ओर शिखर पर बने ऐजंडी देवता के मंदिर में गए हैं। बातचीत के लिए वहीं मिल जायेंगे। मंदिर को गंतव्य मान, सड़क छोड़ पिरूल बिछे रास्ते पर ऊपर चढ़ते हैं। जिस जगह यह मंदिर है, वह नाचती ग्रामसभा के अंतर्गत आता है। मंदिर के बगल में नाचती का इंटरकॉलेज है। यह मंदिर एक शिखर पर है, जहाँ से आसपास चारों तरफ का दृश्य दिखता है। एक ओर दूर दुलम गाँव के तोकों की बसासत दिख रही है, सरयू के बगड़ के पास में मत्स्य पालन हेतु तालाब नजर आते हैं। फिर सरयू नदी और उसके ऊपर कपकोट को जाने वाली सड़क। वहीं विपरीत दिशा में इस शिखर की तलहटी में जलविहीन रेवती नदी है। रेवती का पाट सरयू से चौड़ा है पर मरणासन्न है। मंदिर में लगभग हजार लोग मौजूद रहे होंगे। शुरू में लोगों का रवैया ठीक नहीं लगता, शायद घूँट भी लगाए थे। पर इसके बाद ठीक ठाक बातचीत हुई। बातचीत खत्म होने पर वे हमसे भोजन का निवेदन भी करते हैं पर समय की कमी के कारण हम सिर्फ प्रसाद पैक करने को कहते हैं। जाने से पहले वह लोग कपकोट के सरयू होटल में रहने की व्यवस्था के लिए वहाँ के मालिक को फोन पर कह देते हैं

सरयू पार का दुलम गाँव

एजेंडी बुबु के मंदिर से सीधे कंक्रीट के रास्ते हम नीचे उतरते हैं। कुछ देर बाद कंक्रीट का मार्ग छोड़ सड़क पर पहुँचे। यह सड़क शामा धुरा – बिनायक से बड़ेत क्षेत्र को कवर करते हुए कपकोट की सड़क से मिलती है। थोड़ी देर में बासे गए टीम के अन्य सदस्य भी बारिश में निझूत हो कर पहुँच गए। लेकिन हमें कपकोट पहुँचना है। कुछ आगे चलने पर एक गाड़ी हमें देख रुकती है। उनसे कपकोट छोड़ने को कहते हैं। हम चार लोग रुक कर बाकियों को कपकोट सरयू होटल पहुँचने को कहते हैं। सभी के गाड़ी में ना जाने का कारण था कि आज के दिन के अभी पूर्व निर्धारित गांवों के सर्वे बचे थे।

हम समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊँचाई पर थे। फुलवारी गाँव दिखता है और उससे पहले सरयू के पश्चिम से गासौं गाड़ सरयू में मिलती दिखती है। गासौं गाड़ के किनारे एक सड़क कर्मी बदियाकोट को जाती हैं। सड़क के ऊपरी पहाड़ी से पत्थर गिरते भी महसूस होते हैं तो हम ध्यानपूर्वक आगे चलते हैं। आगे शामा धुरा से आ रही रेवती नदी पर बने पुल को पार करते हैं। वहीं से एक सड़क कर्मी गाँव को जा रही सड़क को भी जोड़ती है। यहीं से मल्ला दानपुर का इलाका खत्म होता है और हम बिचला दानपुर में प्रवेश करते हैं। पीछे से एक युवक दौड़ते हुए आ जाता है। वह हमें दुलम के मंदिर में मिला था। अस्कोट आराकोट अभियान के बारे में उसे पहले से जानकारी थी और इस विषय में हमसे बात करता है। शाम के साढ़े सात बज रहा था और घाटी इलाका होने के कारण अंधेरा हो गया था। कुछ देर बाद दुकानें आ गईं। यहां चीराबगड़ के लोग मिले।

चीराबगड़ की व्युत्पत्ति चिरपाट कोट मंदिर से है और बगड़ का अर्थ नदी का किनारा। सरयू के किनारे बसे चीराबगड़, तिमिलाबगड़, तल्ला फुलवारी, मल्ला फुलवारी, परमाती गाँवों से मिलकर बनी है चीराबगड़ ग्रामसभा। तिमिलाबगड़ में शिल्पकारों के परिवार रहते हैं और बाकी तोकों में बिष्ट, कपकोटी, गढ़िया लोग। 10-12 परिवार शौकाओं लोगों के भी हैं। मुख्य समस्या लोग मोबाइल नेटवर्क की बताते हैं। वीर चक्र प्राप्त नंदन सिंह बिष्ट इसी गाँव से थे। पोस्ट ऑफिस, बैंक आदि सुविधाएं 4 किमी दूर कपकोट में है। परमाती में एक प्राइमरी और एक मिडिल स्कूल है। उससे आगे की शिक्षा के लिए 4 किमी दूर कपकोट जाना पड़ता है। तिमिलाबगड़ में एक लघुविद्युत परियोजना जिससे गाँव के कुछ लोगों को रोजगार मिला है। खेती से गुजारा नहीं होता है। कुछ मत्स्य पालन कर रहे हैं। गाँवों के कुछ परिवारों ने ब्रॉडबैंड भी लगा रखा है।

बातचीत के बाद हम एक कार में चार किमी दूर कपकोट के लिए निकलते हैं। एक किमी बाद भराड़ी आता है जहाँ दानपुर के पश्चिम के जंगलों से निकलने वाली नापती बेलंग गाड़ सरयू में मिलती है। साढ़े आठ बजे कपकोट के होटल में पहुंचे। होटल के किनारे ही सरयू नदी बहती है।

अगली सुबह आठ बजे तक सभी तैयार मिलते हैं। आज के दिन हमें बागेश्वर से आगे पहुँचना था, ताकि, कल सेराघाट में यात्रा समाप्त कर सकें। कपकोट से बागेश्वर की दूरी 25 किमी है। घाटी के इलाके में जेठ की गर्मी चलना मुश्किल कर देगी, इसलिए हमने बागेश्वर तक गाड़ी बुक करने और बीच में आने वाले गांवों में रुककर बातचीत करने का फैसला लिया।

9 जून 2024, सुबह 8 बजे कपकोट से गाड़ी में बैठ हम आगे बढे। सरयू हमारे दाहिने ओर बह रही है। कपकोट से नदी का पानी मटमैला दिखाई पड़ता है। पता चलता है कि रेत-पत्थर निकालने की वजह से पानी का रंग ऐसा है। आगे सरयू की सहायक खीरगंगा और स्वजगाड़ पर बने पुल आते हैं। यहीं कहीं से तल्ला दानपुर का क्षेत्र शुरू होता है। आगे असौं की बाजार में रुकते हैं। यहां हमारा एक दल असौं और दूसरा उत्तरोड़ा के लिए रवाना हुआ। उत्तरोड़ा गाँव सरयू पार था, इसीलिए सरयू पर बने झूला पुल को पार किया। सरयू का पाट यहाँ बहुत चौड़ा हैं। पुल पार करके, सरयू के समानांतर बनी एक सड़क पर पहुँचते हैं। उसी सड़क पर आगे चलते हैं।

उत्तरोड़ा तल्ला दानपुर पट्टी में दो तोकों उत्तरोड़ा और पनोड़ा से मिलकर बनी ग्रामसभा है। ब्राह्मण (जोशी, पांडे, पाठक) बाहुल्य गाँव है, कुछ ठाकुर परिवार हाल के वर्षों में आये हैं। शिल्पकारों के भी कुछ परिवार हैं। लगभग 70 प्रतिशत परिवार पलायन कर हल्द्वानी, दिल्ली, रुद्रपुर आदि में बसे हैं। पानी की इफरात है। सड़क आये 50 साल से ऊपर हो गया है। गाँव में सरकारी हाईस्कूल है और कुछ प्राइवेट स्कूल भी है और नवोदय विद्यालय भी। इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज असौं में एक किमी दूर है। अस्पताल कपकोट में है। मोबाइल और इंटरनेट की यहां कोई दिक्कत नहीं है। शराब का प्रचलन कम है। गाँव की मुख्य समस्या बंदरों की है। बंदरों की वजह से लोगों ने सब्जियाँ उगाना बंद कर दिया है। महिलाएं बताती हैं कि अब बंदर काटने भी लग गए हैं।

उत्तरोड़ा के बाद गैनर गाड़ सरयू में मिलती है। इसके आधा किमी बाबद फालदा गधेरे पर बना पुल आता है। सरयू पार शिल्पकारों का गाँव पोलिंग दिखाई देता है। कुछ आगे सरयू पार का ग़ैरखेत गाँव दिखता है। ग़ैरखेत में अधिकतर लोग कपकोटी उपनाम लगाते हैं। हमारा ड्राइवर बताता है कि, पोलिंग और ग़ैरखेत एक ही ग्रामसभा में आते हैं। एक पुल आता है, जहाँ से कपकोट तहसील की सीमा समाप्त होती है और बागेश्वर तहसील शुरू होती है। आगे अनर्सा की बाजार है। हमारा एक दल यहीं उतर जाता है। इन्हें अनरसा और हरसिला का सर्वे करना था। जबकि, हम एक किमी आगे देवलचौरा की बाजार में गाड़ी से उतरते हैं।

देवलचौरा कुकरौली और चिनौली राजस्व गाँवों की ग्रामसभा है। पट्टी का नाम दुग है। अभी तक जितने गाँव मिले थे सभी दानपुर पट्टी में सम्मिलित थे, यह पहली गैर दानपुर पट्टी मिली थी। नगरकोटी, मेहता, गढ़िया लोग यहां रहते हैं। चिनौली में खेतवाल और डसीला भी रहते हैं। 15 परिवार लोहार लोगों के हैं। यहां भी मुख्य समस्या बंदरों की ही है। सरपंच बताते हैं कि, अगर बंदरों का आतंक नहीं होता तो खेती से ही सभी का गुजारा हो जाता। यहां गाँव की सीमा से निकलने वाले दो गधेरे बिजोरिया और तनसेरा यहां सरयू में मिलते हैं।

सरयू पार हरसिला की तरफ से कनेला गाड़ सरयू में मिलती है। पहले झटक्वाली गाँव आता है और फिर एक पुल पार करते हैं। पुल पार करने के बाद फिर से सरयू हमारे बाएं ओर बह रही होती है। यहां गोस्वामी लोगों का गाँव मणीखेत और फिर बालीघाट है। बालीघाट से एक सड़क दोफाड़ होते हुए धरमघर को जाती है। यहीं पर कमस्यार घाटी से निकलने वाली पुंगर गाड़ सरयू में मिलती है। कुछ दूरी पर पश्चिम से आ रही लहुर नदी सरयू में मिलती है। लहुर नदी के किनारे किनारे एक सड़क दाड़िमखेत को जाती है। फिर आगे घिरौली गाँव आता है जो द्वारसों ग्रामसभा का तोक है। आगे आरे का पुल आता है और हम पुल पार गाड़ी रोकते हैं।

सड़क के लिए पूरा पहाड़ उधेड़ दिया

आरे में मुख्य समस्या पानी की है। सरयू पास होने के बावजूद गर्मियों में पानी पर्याप्त नहीं होता। पीने का पानी दूर धारे से लाना पड़ता है। हालांकि हैंडपंप भी लगे हैं पर इनका पानी कपड़े धोने आदि कार्यों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। यहां भी बंदरों की बड़ी समस्या है। सर्वे करने के बाद हम मण्डलसेरा पहुंचते हैं। यहीं से एक बायपास सड़क कांडा के लिए जाती है।

बालीघाट में सरयू (हरे रंग) और पुंगर (मटमैली) का संगम

कठायत बाड़ा से बागेश्वर का आगाज

कठायत बाड़ा से बागेश्वर कस्बा शुरू होता है। सड़क के दोनों किनारों पर क्रमवार दुकानें हैं। सरयू पुल के पास गाड़ी से उतर कर हम अभियान के गीत गाते, बागेश्वर बाजार से पैदल बागनाथ मंदिर परिसर में पहुँचते हैं। बागनाथ मंदिर में पत्रकारों को अपनी यात्रा के अनुभव बताए। इसके बाद गोमती पुल पार कर, एक मैक्स वाले से बात करते हैं जो हमें पगना से आगे शक्तेश्वर तक छोड़ेगा।

गोमती पुल से सरयू किनारे पगना की ओर बढ़ते हैं। सरयू के किनारे इस ओर बड़े बड़े सेरे दिखते हैं और उनके बीच कहीं कहीं छोटे लिंटर वाले मकान। बागेश्वर से लगभग 5 किमी बाद बिलोनसेरा आता है और यहाँ से अल्मोड़ा नेशनल हाईवे सड़क को छोड़ पगना वाली सड़क पर बढ़ते हैं। बिलोनासेरा पर एक अनाम गधेरा दक्षिण-पश्चिम दिशा से सरयू में मिलता है। इसके बाद चढ़ाई शुरु होती है और चीड़ के सघन वनों के बीचों बीच गुजरते हैं। बीते हफ्तों लगी आग की निशानी चीड़ के पेड़ बखूबी बता रहे थे। इस तरफ चिड़खेती गाँव आता है और सरयू के उस तरफ जंगल है। कुछ आगे जंगलं में खड़िया की खान और एक ट्रॉली नजर आती है, जो उस ओर से खड़िया निकाल कर यहाँ पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जाती है। खड़िया खनन के लिए यहां पूरे पहाड़ को उधेड़ दिया गया है। आगे इस ओर पहले फाउन और फिर खोला गांव है। आगे एक और खड़िया की खान है। ड्राइवर बताता है कि, यह पगना की खड़िया की खान है। पगना गाँव में एक पैदल पुल के किनारे गाड़ी से उतरते हैं। पुल पार शक्तेश्वर मंदिर है। शक्तेश्वर में धपोलासेरा से निकलने वाली भदर गाड़ (भद्रपति नदी) और सरयू का संगम है। सरयू के उद्गम से गिनें तो हमें यह पांचवा बड़ा मंदिर/तीर्थ मिलता है। लोगों ने बताया कि, यहाँ से आगे सरयू के किनारे कोई गाँव नहीं है। जो गाँव है वह भी पहाड़ के ऊपरी भाग में हैं और उनकी संख्या बहुत कम है। इसलिए हम हम बनकोट होते हुए सेराघाट जाने का निर्णय लेते हैं। जिस मार्ग पर हम पैदल चल रहे हैं, यह सरयू के पनढाल वाले पहाड़ों का पृष्ठ भाग है।

सरयू पार पगना की खड़ियाखान

शक्तेश्वर से पिथौरागढ़ जिला शुरू हो जाता है और यहाँ सरयू एवं भद्रपति के बीच का क्षेत्र पिथौरागढ़ जिले में आता है। गणाई-गंगोली से बनकोट आ रही एक सड़क यहीं पर खत्म होती है। विडंबना यह है कि नदी पर सड़क पुल ना होने के कारण, यह क्षेत्र बागेश्वर जिला मुख्यालय से कटा है और इस वजह से इस पिथौरागढ़ के बॉर्डर इलाके के गाँवों को बड़ी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। आज रात रुकने की व्यवस्था बनकोट में रविन्द्र सिंह बनकोटी जी के घर की गई थी। रास्ते में एक व्यक्ति मिले, उन्होंने सड़क के बजाय गाँव की पगडण्डी से जाने की सलाह दी। कहा कि, इससे दूरी भी कम होगी और समय भी बचेगा। शाम के छह बजे सड़क के किनारे एक छप्पर वाली दुकान पर रुके। यह दुकान कृष्णचंद्र पांडे की है। पहले इनका गरमपानी में ढाबा था। कोविड महामारी के दौरान घर आये और फिर यहीं यह दुकान खोल ली।

बटगेरी गाँव

जिस गाँव में हम हैं, उसका नाम बटगेरी है जो गंगोली परगने में वल्ला अठीगाँव पट्टी में आता है। यहां पचास से अधिक ठाकुरों, दस लोहारों और तीन भट्ट ब्राह्मण परिवार हैं जो अपने को जागेश्वर से आना बताते हैं। हरु-सैम यहाँ के मुख्य देवता हैं। दुकानदार कृष्णचंद्र पांडे बताते हैं कि, यहां ना जंगल है, ना पानी। रोड बनी पर गरीब आदमी के खेत दबे, उसका कोई पैसा नहीं मिला। मलबा खेत में डाला उसका भी कुछ नहीं मिला। रोड को बने कई वर्ष हो गए। डामर उखड़ा पड़ा है। गाँव में पानी की दिक्कत बहुत है। गाँव में प्राइमरी और हाईस्कूल है, इंटरकॉलेज, अस्पताल, बैंक आदि छह किमी दूर बनकोट में है।

इतिहास की धरोहर बणकोट

लगभग दो किमी बाद चीड़ का वन शुरू हो जाता है। साढ़े सात बज चुका था। हमारे आज के मेजबान रविन्द्र सिंह बनकोटी जी हमें लेने के लिए गाड़ी भिजवा देते हैं। बनकोट गाँव की सीमा पर चमकता हरु-सैम का मंदिर दिखता है। बनकोट गाँव अभी तक मिले गाँवों से भिन्न लगता है और इसकी पुष्टि अगले दिन सुबह लोगों से बात कर हो जाती है। गाड़ी हमें बनकोटी जी के घर पर ही उतारती है। बनकोटी जी का परिवार गर्मजोशी से स्वागत करता है।

10 जून सोमवार, सुबह 6 बजे तैयार होकर रविंद्र बनकोटी जी अपने पिता से बात करवाने ले ले गए। रविंद्र जी के पिता 90 वर्षीय चंचल सिंह बनकोटी सेवानिवृत प्रधानाचार्य हैं और उन्होंने बनकोट के इतिहास, भूगोल और सामाजिक आयामों को लेखों में पिरोकर बेहतरीन किताब के रूप में संकलित किया है। अपने सेवाकाल में बनकोट के एक विद्यालय निर्माण की खुदाई में उनको कुछ ताम्र आकृतियाँ एवं युद्ध में प्रयोग होने वाला भाला मिला। कान कम सुनने के बावजूद, वह बड़े जोश से हमें यह आकृतियाँ दिखाते हैं। उनसे हम बात कर ही रहे होते हैं कि उनके छोटे भाई भी आ जाते हैं और वह बनकोट के इतिहास संबंधी और भी जानकारियाँ देते हैं। रविंद्र जी हरु सैम मंदिर तक एक गाँव भ्रमण करने की सलाह देते हैं। हम सभी, उनके पिता, चाचा संग सड़क पर चलते हैं। रास्ते में कुछ लोग और जुड़ जाते हैं। हमें पता चलता है कि यहाँ अमूमन बुजुर्ग लोग मॉर्निंग वॉक की तरह सुबह नहा धोकर एक चक्कर मंदिर का लगा कर फिर वापस घर आते हैं। 1200 आबादी वाला यह गाँव 90 के दशक में ही साक्षर बन चुका था। यहाँ कई लोग प्रधानाचार्य, इंजीनियर, प्रशासनिक सेवा आदि से रिटायर हुए हैं और उनमें से बहुत लोगों ने गाँव नहीं छोड़ा है।

बनकोट बागेश्वर-पिथौरागढ़ बॉर्डर पर पिथौरागढ़ जिले में वल्ला अठीगांव पट्टी में बसा एक ऐतिहासिक गाँव है। ऐतिहासिक इसलिए, क्योंकि यहाँ पास ही बणकोट नाम का पुरातन किला है और उसी के नाम पर गाँव का नाम बनकोट पड़ा है। यहाँ से प्राप्त ताम्र आकृतियाँ को शोधकर्ता 15वी सदी ईसा पूर्व का बताते हैं। यहाँ के निवासियों में मुख्यतः बनकोटी लोग हैं। उसके अलावा मेहता, लोहार, टम्टा लोगों के परिवार भी रहते हैं। सन 1955 से ही यहाँ इन्टरकॉलेज है और प्राइमरी स्कूल तो उससे बहुत पहले से है। एक प्राइवेट स्कूल और एक शिशु मंदिर आठवीं तक है। सन 1962 से यहाँ एलोपैथी अस्पताल है। लोग कहते हैं समस्या डिग्री कॉलेज का ना होना है, जिसकी माँग उत्तर प्रदेश के समय से की जा रही है। डिग्री कॉलेज निकटतम गणाई (15किमी) है। लोग कहते हैं कि, बागेश्वर के इतना पास होते हुए भी बनकोट, बागेश्वर जिले में नहीं है। इस वजह से कई कठिनाइयाँ लोग गिनाते हैं। गाँव में शराब का प्रचलन कम है।

बनकोट में खुदाई में मिली पुरातन ताम्र आकृतियाँ

नाश्ता करने के बाद बनकोटी परिवार से विदा ले, हम सड़क मार्ग से ही आगे बढ़ते हैं। आज हमें सेराघाट में यात्रा समाप्त करनी थी इसीलिए पुराने पैदल मार्ग से ही आगे बढ़े।

आगे रुगड़ी गांव आया। यहाँ से एक सड़क गणाई को और दूसरी कलों की तरफ गई है। हम कलों वाली सड़क पर पैदल आगे बढ़ते हैं। यह पुराना पैदल मार्ग अब ना के बराबर प्रयोग में आता है। यहाँ सड़क के किनारे आम के पेड़ दिखाई देते हैं। कुछ औरतें हाथ में जरकीन बाल्टी लिए दिखती हैं। वे बताती हैं कि, पानी भरने के लिए दूर धारे में जा रही हैं। गाँव में पानी की बहुत किल्लत है। सड़क के दोनों और बंजर खेत हैं। बायीं ओर दूर पहाड़ी पर यहाँ की पूर्व विधायक मीना गंगोला का गाँव टुपरोली दिखाई देता है।

रास्ते में मिला दुपकेरी सात-आठ मवासों का छोटा सा गाँव है। यहाँ डसीला लोग रहते हैं। स्कूल से लेकर अस्पताल तक सारी मूलभूत सुविधाओं के लिए गांव 5 किमी दूर बनकोट पर निर्भर है। यहां से अब हम एक पतली पगडण्डी पर चलते हैं। सामने दूर पहाड़ी पर एक मोटर सड़क दिखती है और उसके ऊपर नायल गाँव। हमारे और उस पहाड़ के बीच में एक नदी फल्यांती गाड़ बह रही है। हम और नीचे उतरते हैं तो नीचे नदी पार एक चौड़ा घोड़िया रास्ता मिला। मार्ग से थोड़ा नीचे सरयू और फल्यांती गाड़ का संगम है। जिस सरयू को हमने कल शक्तेश्वर में छोड़ा था, वह आज हमें यहाँ चौनापाटल में मिली है। लगभग दो किमी दूर शेराघाट का मोटर पुल इस स्थान से अब दिखाई देने लगता है। लगभग पाँच बजे सेराघाट बाजार में पहुँचे। सेराघाट पुल से अल्मोड़ा जिला शुरू हो जाता है और पुल से पहले सरयू, बागेश्वर एवं पिथौरागढ़ जिले की विभाजक सीमा है। हम सभी को अब यहाँ से अलग अलग स्थानों को जाना था, पर शाम होने के कारण यह संभव नहीं था, इसीलिए आज रात एक साथ चौकोड़ी रुकने का निर्णय लिया था।

सेराघाट बाजार से नीचे सरयू एवं जैगण नदी का संगम है। हम संगम पर पहुँच अपनी अस्कोट आराकोट अभियान – स्रोत से संगम यात्रा का औपचारिक समापन करते हैं। इसके बाद गणाई, बेरीनाग के रास्ते लगभग 8 बजे चौकोड़ी में मनीष पाठक के होमस्टे पहुँचते हैं। भोजन करने के उपरांत काफी देर बैठकर बातचीत करते हैं। अगले दिन अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं।

स्रोत से संगम टीम में ये साथ रहे शामिल

बागनाथ में सरयू की किनारे हमारा दल
  1. देवेंद्र कैंथोलाः मूलतः गढ़वाल के रहने वाले हैं। मैरीन इंजीनियर के रूप में कई दशकों तक विदेश में कार्यरत रहे। बहुभाषी जानकार और किसी भी विषय पर घंटों बात रखने में माहिर हैं।
  2. डॉ. मंजूषाः मूलतः कुमाऊं से हैं। वह रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं। पिछले कुछ वर्षों से भीमताल में रहकर पहाड़ एवं गांवों को लेकर काम कर रही हैं।
  3. संतोष जोशीः पिथौरागढ़ निवासी जोशी बागेश्वर के कांडा में इंटरकॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक हैं। नवाचार गतिविधियों के द्वारा छात्रों को रंगमंच आदि क्षेत्रों में शिक्षित कर रहे हैं।
  4. हिमांशु रिस्की पाठकः मूलतः पिथौरागढ़ जिले के रहने वाले हैं। पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और हल्द्वानी में रहते हैं।
  5. प्रकृति मुखर्जीः रानीखेत की रहने वाली और मूलतः बंगाल से हैं।, दिल्ली में पली बढ़ी। कुछ वर्षों पहले पहाड़ के पारंपरिक खाद्यान पर काम कर रही हैं और कनाडा की एक यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं।
  6. दीपानीः मेरठ की रहने वाली दीपानी डिज़ाइन रिसर्चर और इलस्ट्रेटर के रूप में कई वर्ष काम कर चुकी हैं। आजकल ऑस्ट्रलिया के तस्मानिया यूनिवर्सिटी से पारंपरिक वास्तुकला विषय में शोध कर रही हैं।
  7. आकाश बिष्टः गढ़वाल के रहने वाले आकाश दिल्ली में पले बढ़े। वे ट्रेकर हैं और छात्रों को पर्वतारोहण का प्रशिक्षण देते हैं।
  8. गुंजिता पंतः बेरीनाग निवासी गुंजिता ने नैनीताल से स्नातक किया है। वह कंटेंट राइटर हैं और सामाजिक कार्य एवं शिक्षा को कैरियर बनाना चाहती हैं
  9. सपना जोशीः बनबसा ही रहने वाली सपना नैनीताल में स्नातक तृतीय वर्ष की छात्रा हैं। सोशल साइंस में कैरियर बनाने का इरादा है।

कुछ कहना चाहते हैं?

पहाड़ के बारे में कुछ!