अस्कोट आराकोट अभियान 2024: दानपुर से नीती घाटी की ओर

बिर्थी फॉल का आकर्षण स्थानीय अर्थव्यवस्था का रूप से ले रहा है। गाँव में सामुदायिकता की भावना है। आपस में राय-मशविरा कर निर्णय लिए जाते हैं। झरना देखने का शुल्क 20 रुपए रखा गया है। शुल्क लेने का काम महिला समूह कर रहा है। यह राशि युवतियों को दैनिक मानदेय और झरना क्षेत्र के रखरखाव और साफ़-सफाई में खर्च किया जाता है। झरने का पानी नहरों और गूलों में बंटने के बाद भी काफी बच जाता है। इसलिए स्थानीय युवकों ने एक स्वीमिंग पूल बनाया है, जिसका शुल्क 20 रुपए प्रति व्यक्ति है। गाँव में मत्स्य विभाग की एक बड़ी योजना आई है, कुछ महिलाएं उसके निर्माण में लगी हैं। यहाँ ट्राउट मछली का उत्पादन होगा और जिसकी सप्लाई स्थानीय बाजारों में होगी। बिर्थी गाँव में दानू लोग अधिक हैं, जो बिरथ्वाल भी लिखते हैं। और कुछ गड़ोली भी हैं। गड़ोली, माने गढ़वाल से आए लोग। पारंपरिक रूप से दानू लोग चरवाहे रहे हैं। भेड़-पालन अब भी एक प्रमुख व्यवसाय है, मगर समय के साथ पेशों में बदलाव आ रहा है। कुछ युवक कीड़ा-जड़ी की खोज में ऊपर बुग्यालों की ओर गए हैं।

बिर्थी में यात्रियों की संख्या अधिक थी, सो टीम दो दलों में टीम बंट गई। मुख्य दल छुलोरिया खरक, लमतरा खरक, भैंसिया खरक और लाहुर होकर कर्मी के लिए और दूसरा दल डोर-सैणराथी-होकरा के रास्ते लीती के लिए रवाना हुआ। लीती वाले दल को भी अगले दिन कर्मी पहुंचना था। मल्ला डोर में खेतों में महिलाएं धान की गुड़ाई में व्यस्त थीं। यह बारिश पर निर्भर धान की पारंपरिक नस्ल थी। डोर तक जाने का रास्ता भूस्खलन से छलनी हो चुका है। तल्ला डोर में सड़क होने से गाँव वाले अब पुराने गाँव को छोड़कर नीचे की तरफ पलायन कर रहे हैं। यह गाँव ला-झेकला गाँवों के ठीक ऊपर बसा है। 2009 में बादल फटने की घटना से ला-झेकला में 38 लोग काल के गाल में समा गए थे। डोर में भी इस आपदा के कारण चार घर दब गए। जिसमें पाँच बच्चे और एक बुजुर्ग जिंदा दफ्न हो गए थे।

खतरे में सैणराथी

डोर से सैणराथी के रास्ते में एक बड़ा पहाड़ टूटकर गिर रहा है। पूरा रास्ता खतरों से भरा है। इस मार्ग का प्रयोग भी कभी-कभार ही होता होगा। टूटे और फिसलन भरे रास्तों से हम किसी तरह मुख्य गाँव तक पहुंचे। पहले महिलाएं बात करने को तैयार नहीं थीं, फिर इकट्ठा आ गईं। सैणराथी से सक्रिय लैंडस्लाइड अब काफी साफ़ और बड़ा दिखाई देने लगा। हर बारिश में यह बड़ा होता जा रहा है। इसने नीचे तलहटी में स्थित घराट को भी ध्वस्त कर दिया है। गाँव वालों का कहना था कि यह टूटता पहाड़ उन्हें निराशा से भर देता है। सैणराथी गाँव के मध्य भी जमीन धँस रही है। गांव के तीन तरफ लैंडस्लाइड हो रहा है। गाँव का वजूद खतरे में है।

खुदा को पूजने वाले इलाके में

सैणराथी में सात-आठ बड़े मंदिर हैं और इन सबमें खुदा पूजा होती है। यहाँ पूजा को खुदा-पूजा कहा जाता है। यहाँ दानू, कोरंगा और अधिकारी लोग अधिक हैं। भांग की नई किस्म यहाँ मिली। कम लंबी और बिना दानों वाली। यानी जिसका चरस के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है। एक बुजुर्ग जिनके घर पर बैठक रखी गई थी, उन्होंने बताया कि वह वर्षों से दूसरों और अपनी बकरियां लेकर बुग्यालों और भाबर प्रवास पर जाते हैं। दलित परिवार गांव से दूर के तोक में थे, उन तक हम पहुँच नहीं पाए। मगर, सवर्ण परिवारों से उनके मुद्दों पर बात हुई तो उन्होंने स्वीकारा कि अब भी बहुत तरह का भेदभाव है। गाँव में कुछ ही परिवार सरकारी नौकरियों में हैं। सैणराथी के ऊपरी हिस्से में सड़क कटी है। इसका मलबा गाँव में बहकर आया है।

होकरा के घने जंगल में रास्ते की तलाश

होकरा का जंगल बहुत घना है। घने जंगल के बीच से रास्ता तलाश पाना कठिन था। बड़े-बड़े पेड़ गिरे थे। राहत की बात थी कि यह खूबसूरत जंगल आग से बचा था। जंगल के भीतर वनस्पतियों की काफी विविधता है। बड़े-बड़े फर्न और घने मॉस संकेत दे रहे थे कि यह एक स्वस्थ जंगल है। जैसे-जैसे हम गाँव की तरफ बढ़ते हैं, एक विशाल भू-स्खलन नजर आता है। इसका शिकार हमारा पैदल मार्ग भी हुआ था।

बारिश शुरू हो चुकी थी। इसी बीच एक दीदी मिलीं जो इसी पगडंडी से पशु आहार का एक बड़ा बैग पीठ पर लादे चली जा रही थीं। पहाड़ के उस पार से उनका बेटा आवाज दे रहा था। वह अलसुबह पशु आहार लेने घर से निकल गई होंगी। थोड़ा ही आगे बढ़े थे तो गाँव के खेतों को को काटता हुआ लम्बवत भूस्खलन दिखाई दिया। धान की फसल से भरे खेत भूस्खलन में जा समाए थे। होकरा में पंचायत घर में ठहरने का इंतजाम था। खाने का इंतजाम गांव की यह ए.एन.एम. दीदी के किराए के घर में था। उनके यहां मेहमान के रूप में पधारी उनकी माँ नैनीताल के पूर्व डी.एम. धीराज गर्ब्याल की चाची थीं। उन्हें जब पांगू से शुरू हुए अभियान की बात बताई तो वे मन से हमारी सेवा में जुट गईं। उनसे महिलाओं और बालिकाओं के मुद्दों पर विस्तार से बात हुई।

पंचायत घर के पीछे ही इंटर कॉलेज था। यहां इंटर कॉलेज के बच्चों के साथ एक सभा का आयोजन हुआ। युवा शिक्षकों को अस्कोट-आराकोट का विचार काफी पसंद आया। पिछले गांवों की तरह ही यहाँ के लोग भी खुद को दानू कहलवाना पसंद करते हैं, भले ही वह कोरंगा या मेहता कुछ भी सरनेम लिखते हों। गाँव में हाल में सड़क पहुंची है, यहाँ से नामिक ग्लेशियर पास ही है। गाँव के युवक ट्रेकिंग के व्यवसाय में रुचि ले रहे हैं, सो यहाँ छिटपुट स्तर पर होम-स्टे, घोड़ों से ढुलान आदि की संभावना के रूप में प्रकट हो रहा है। उधर, इंटर कॉलेज की सरहद से लगा एक और लैंडस्लाइड सक्रिय हुआ है। विशाल होकरा जंगल की ओर देखा तो मन में थोड़ी आश्वस्ति हुई

होकरा से लीती

होकरा गाँव में इंटर कॉलेज में सभा हुई और बाद हम सब प्रसिद्ध होकरा देवी मंदिर पहुंचे। यह बेहद शांत जगह है। लोगों ने बताया कि, यहाँ प्रसिद्ध सर्वेयर किसन सिंह ने कभी घंटी चढ़ाई थी, जो अब पेड़ में खुद गई है। लेकिन, यहाँ ऐसी कई घंटियाँ पेड़ में खुदी पड़ी थीं। बहुत प्रयास के बाद पुजारी एक पेड़ और घंटी की पहचान करा पाए जो किसन सिंह ने चढ़ाई थी। मंदिर में गर्भवती स्त्रियों, रजस्वला स्त्रियों का प्रवेश और चमड़े की बेल्ट पहनकर जाना मना है। मंदिर के पुजारी वानरों के आतंक से त्रस्त दिखे। आगे हम प्राइमरी स्कूल के बच्चों से मिले। वहां शिक्षिका का काम आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ही देख ले रही थीं। थोड़ा उतार के बाद रामगंगा के दर्शन हुए। नदी पर बना वैली ब्रिज आकर्षक था। रामगंगा नदी का वैली ब्रिज पार कर खड़ी उदास चढ़ाई के बाद बागेश्वर जनपद में प्रवेश किया। बीच में एक छोटा गाँव मिला, हमारा पानी ख़त्म हो गया था। हमने पानी माँगने के बहाने महिलाओं से बातचीत शुरू की। गाँव में इस समय कोई पुरुष नहीं था। जब हमने पूछा कि क्या पुरुष बुग्यालों में किसी चीज की खोज को गए हैं तो हमारी बात पर एक युवती ने मौन सहमति जताई। युवती ने बताया कि स्कूल दूर होने से उसकी पढ़ाई नहीं हो पाई।

होकरा से हम छहेक किलोमीटर तो उतरे थे, मगर आगे चढ़ाई थी। तीखी चढ़ाई के बाद एक छोटा सा गाँव आया, शायद घंघास। थोड़ी देर में तेज फुहारें शुरू हो गईं। यहाँ जोंक बहुत हैं। चीड़ के जंगल पीछे छूट गए थे, अब बाँज और बुरांश का मनभावन जंगल था। यहाँ सीढ़ीदार रास्ता कठोर चट्टानों को काटकर बनाया गया है। नीचे रामगंगा घाटी की छटा और नामिक की तरफ निहारते हुए डर लगता है, क्यूंकि रास्ता बेहद संकरा है। जब भी, जिन भी हाथों से ये खड़ंजे बने होंगे, वे आज के दिन तो करिश्माई ही कहे जाएंगे। अँधेरा होने से पहले हम नामिक जाने वाली सड़क तक पहुँच गए। पॉइंट का नाम था घुग्तीगोल। यहाँ से नामिक ग्लेशियर 16 किलोमीटर दूर था।

तीन चार किलोमीटर आगे हम्टी कापड़ी गाँव आया। कुछ साथी यहाँ सर्वे कार्य में लग गए तो कुछ को मालूम पड़ा कि लीती अब भी 11 किलोमीटर है। रात आठ बजे लक्ष्य तक पहुँच गए। लीती में ग्रामीण आगंतुकों का इन्तजार कर रहे थे। यहां हमें परंपरागत बीजों का संग्रह दिखाया गया।

सुबह आँख खुली तो पता चला हम जन्नत में हैं। सामने हिमाद्रि की विस्तृत श्रृंखला। आस-पास के खेतों में कीवी की लड़ियाँ झूल रही थीं। पीठ पीछे लंबवत लोईधुरा बुग्याल। यहाँ ट्राउट मछली के दो बड़े सेंटर दिखे, जिन्हें लेकर ग्रामीण बहुत उत्साहित थे। कफनी और गोगिना का सड़क मार्ग होने और घने बाँज वनों की संपदा के कारण आने वाले दिनों में यहाँ पर्यटन गतिविधियाँ काफी जोर मारेंगी। यहाँ एक बड़ा कारपोरेट होटल भी कुछ समय पहले बना था। शक्ति हिमालयाज नामक कंपनी ने ‘लीती 360’ नाम का रिसोर्ट बनाया था। रिसोर्ट के लिए अपेक्षित एकांत अधिक लोगों की आवाजाही से प्रभावित हुआ तो अब इसका रेडीमेड ढांचा रमाड़ी के जंगल में शिफ्ट हो गया है। हालाँकि, ऐसे बड़े होटल स्थानीय लोगों के लिए लाभप्रद नहीं होंगे। इस होटल का शेफ तक तो सिंगापुर से आता है।

लीती से कर्मी

लीती से कर्मी के लिए पैदल रास्ते से बागे बढ़े। कुछ आगे बढ़े तो सामा दिखाई दे रहा था लेकिन सड़क पर इतने मोड़ थे कि बकरियों वाला रास्ता चुनने का फैसला लिया। जवाहरलाल नेहरु इंटर कॉलेज में 480 बच्चों के साथ कार्यक्रम शुरू हुआ। यहाँ बच्चे सवाल-जवाब को तत्पर थे। बच्चों ने भविष्य की ऐसी योजनाएं बतायीं, जो इतने दूरस्थ स्थानों में सुनने को कम ही मिलता है। कोई शेफ बनना चाहता है, कोई ट्रेकिंग व्यवसाय का एक्सपर्ट तो कोई अपना उद्यान लगाना चाहता है। बच्चों ने बताया कि अग्निवीर योजना के बाद सेना में जाना बेकार है। शायद, गाँव-घरों में इस विषय पर चर्चा होती रही होगी। यह सैन्यप्रधान इलाका है। पहाड़ के युवाओं का सेना से मोहभंग भी अच्छी निशानी तो नहीं।

भराड़ी तक रास्ता ठीक था और भराड़ी के धार पर सरयू को देखकर काफी मायूसी हुई। यहाँ हरसिंग्याबगड़ और सोंग में बन रहीं जल विद्युत् परियोजना के कारण सरयू को टनल डाल दिया गया है। देर शाम कर्मी पहुंचे। कर्मी से पहले हमें पुराना कर्मी गाँव दिखाया गया, जो 84 की आपदा में पूरा का पूरा रगड़कर नीचे आ गया था। यह भी दानू गाँव है और यहाँ से भी बहुत सारे युवा कीड़ा जड़ी की चाह में ऊपर बुग्यालों में गए थे। कर्मी विशाल गाँव है, यहाँ का इंटर कॉलेज एक बुग्याल नुमा मैदान में बनाया गया है। बच्चों के लिए रोज-रोज चढ़-उतरकर स्कूल आना भारी मशक्कत का काम है। हालांकि, शिक्षकों ने बताया कि यह स्कूल एक बहुत बड़े क्षेत्र को कवर करता है। कर्मी में यात्रियों की संख्या में इजाफा हुआ तो एक दल को सरयू यात्रा के लिए रवाना किया गया।

कर्मी से बदियाकोट

बदियाकोट में युवा ग्राम प्रधान खिलाफ सिंह और उनकी टीम अगुवानी को मुस्तैद थी। बदियाकोट को कुमाऊं-गढ़वाल या कहें ग्रेट दानूलैंड का केंद्र बिंदु कह सकते हैं। यहाँ साल में एक बड़ा नंदा देवी मेला लगता है, जिसमें दोनों तरफ के दानपुरवासी शिरकत करते हैं। गाँव के शिखर पर स्थित नंदा देवी का भव्य मंदिर इस क्षेत्र की संपन्नता और वास्तु ज्ञान का द्योतक है। मंदिर में सुन्दर नक्काशी हुई है। मंदिर का गर्भगृह दुमंजिले में, जबकि मुख्य मंदिर नीचे है। यहाँ मुख्य द्वार का निर्माण लोहार लोगों द्वारा निर्मित है। शायद, मंदिर तक पहुँचाने वाली सीढ़ियों की रेलिंग भी। आम तौर पर मुख्य द्वार सवर्णों की मिल्कियत में होते हैं। बाद में गाँव में बात करने पर पता चला कि 80 के दशक में गाँव ठाकुरों और दलितों के बीच विवाद हो पड़ा, तब से दोनों की पूजा अलग-अलग समय होती हैं। पहले दलितों का जिम्मा मंदिर की पूजा के लिए लकड़ी के इंतजाम का होता था। किसी बात पर एक दिन विवाद हो गया और दलित अलग हो गए। गाँव में एक उन्नत किस्म का घराट भी देखने को मिला। मगर, गाँव कि तलहटी में स्थित लघु जल विद्युत परियोजना अब बंद पड़ी है। बदियाकोट के प्राथमिक विद्यालय और इंटर कॉलेज में सभाएं आयोजित हुईं। गाँव का पंचायत घर काफी आरामदेह लगा।

बदियाकोट से सोराग से बोरबलड़ा

बदियाकोट से अगली सुबह हम बहुत ऊँचाई पर दिख रही विनायक धार को लक्ष्य कर चले। विनायक के बाद पिंडर का क्षेत्र शुरू होता है। हालाँकि, पिंडर तक पहुंचने के लिए काफी नीचे उतरना होगा। बदियाकोट को समदर से जोड़ने वाली सड़क पर काम चल रहा है। यहाँ बीच-बीच में छोटे-बड़े कई बुगयाल आते हैं। सड़क कटान से पुराना रास्ता नेस्तनाबूत हो चुका है। अंततः शंभू गाड़ किनारे एक बड़े खरीक में उतरे। खरीक में झोपड़ियाँ तो बनी थीं, मगर वहां कोई नहीं था। शंभू गाड़ के दाई तरफ से कुछ साथी समदर को निकले, जहाँ पहले से एक सभा तय थी। वहीं हमारा दल बोरबलड़ा की चढ़ाई चढ़ने लगा। बागेश्वर की ओर से समदर, सड़क का अंतिम छोर है जो पुल बनने के बाद बोरबलड़ा तक आ जाएगी। सड़क को लेकर ग्रामीणों का उत्साह चरम पर है, इसलिए बोरबलड़ा की तरफ से पहले ही पक्की सड़क तैयार है। यहाँ से भरड़कांडे भी जुड़ जाएगा। इन गाँवों और समदर के लिए यहाँ से पिंडारी वैली और सुंदरढुंगा ग्लेशियर एक बड़ा आकर्षण होगा। तब खाती और समदर दो तरफ से वैली में जाया जा सकेगा, जहाँ दो प्रमुख ग्लेशियरों के अलावा ढेरों बुग्याल भी हैं। बोरबलड़ा में शुरुआत में लोगों को यात्रियों को लेकर उत्साह नहीं था, लेकिन रात होते-होते पूरा गाँव यात्रियों पर न्योछावर हो गया। यहाँ के युवक भी बुग्यालों की तरफ गए थे। घरों में कुछ किशोर, महिलाएं और बुजुर्ग ही थे। भोजन की तैयारी के साथ ही महिलाएं और पुरुष दोनों संग-संग हुड़के की ताल पर नाचने लगे।

बोरबलड़ा से हिमनी

बोरबलड़ा के बाद रास्ता बहुत खूबसूरत हो चला था। बुग्याल दर बुग्याल। एक खड़ी चढ़ाई के बाद मातोली (मानातोली) बुग्याल आता है। इस मार्ग में दुलाम खरक भी कम आकर्षक नहीं। दुलाम से एक भैंस यात्रा दल के साथ लग गई। आगे बहुत दूर हिमनी गाँव था, उससे पहले कोई बसासत नहीं थी। भैंस शायद मिन्सिन टॉप से ही साथ आ गई थी लेकिन दुलाम के ढलान भरे बुग्याल में इसका यात्रियों को पता चला। मिन्सिंग से दुलाम तक का मार्ग बेहद खूबसूरत मगर डरावना है। पहली धार पर बनी महीन पगडण्डी से पैर फिसला तो खायी में जाना तय था। हर मोड़ भ्रम देता हिमनी के दिखाई देने का, मगर जितना चलते उतना ही दूर लगता। सबसे बड़ा संकट था पानी का। मार्ग में कहीं भी पानी का स्रोत नहीं था। ऊपर बुग्याल और हिमशिखर मगर नीचे निपट सूखा। दुलाम बुग्याल की तीखी ढलान मुश्किल से पार हुई तो घना-अँधेरा जंगल शुरू हुआ। यहाँ भी पानी नहीं। थुनेर के बड़े पेड़ों के साथ नई पौध भी यहाँ देखने को मिली। बुग्याल के तलहटी में झोपड़ियाँ दिखीं तो आस जगी मगर करीब पहुंचे तो वहां कोई नहीं था।

हिमनी में सबसे पहले विशाल चारागाह का आगाज हुआ। फिर सेब के बगीचे, फिर कुटी और कुटकी की विशाल श्रृंखला। उसके बाद आलुओं का संसार। आगे गेहूं के बड़े-बड़े खेत। यकीन करना मुश्किल था। कौन हैं ये हिमनी वाले, ये नहीं भागे मैदानों को? खेती-किसानी की इतनी विपुल संपदा कहीं और है पहाड़ में? एक पल को लगा ये कारपोरेट फार्मिंग है लेकिन अँधेरे से झाँकते चेहरों से बात हुई तो पता चला यह साधारण किसानों की ही करामात है। चौलाई और किवी के भी प्रयोग यहाँ हो रहे। बुरांश का जूस बनता है। लहसुन काफी बड़े आकर की। अन्य पारंपरिक फसलें सभी।

हिमनी के प्राथमिक विद्यालय में हमारे आने का दिन भर इंतजार हो रहा था। जिस उत्साह में बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग यहाँ आँख टिकाए खड़े थे ऐसा आभास देता था कि गाँव में दूर से आ रही किसी बारात को देरी हो गई। और अब बारातियों की हर तरह खिदमत करनी है।

सुबह हमारी टीमें अलग-अलग टीमों में बंट गईं। कुछ खेत देखने गए, किसानों से भी बातें कीं। कुछ दलित परिवारों की स्थिति जानने निकले और कुछ ने घेस इंटर कॉलेज में कार्यक्रम किया। यहाँ हमें हल्द्वानी से लाई गई एश-ब्रिक्स खूब देखने को मिलीं। हल्की होने के कारण यहाँ इफ़रात में लाई जा रही हैं। एक काश्तकार ने बताया, इनसे घर जल्दी बना पाते हैं, पत्थर को तराशने में समय लगता है। यहाँ हमें रिंगाल कि तीन प्रजातियाँ और उनसे बने उत्पाद भी देखने को मिले। कुटकी को खरीदने हिमानी कंपनी के लोग यहाँ आते हैं।

नई-नवेली सड़क ने पुराने मार्ग ध्वस्त कर दिए हैं, ऐसे में निर्णय हुआ कि आगे की यात्रा सड़क मार्ग से होगी। पैदल मार्ग से कनोल और बाण पहुंचना आसान था लेकिन पैदल मार्ग ध्वस्त हो जाने से कठिन पहाड़ों से चढ़ना-उतरना नामुमकिन हो गया था। दल सड़क और पैदल मार्गों का मिश्रित इस्तेमाल करते हुए सायंकाल वाण में एकत्र हुआ। जबकि, एक छोटा दल हिमनी से आली और बेदिनी बुग्याल की तरफ चला गया। क्योंकि आली में रात्रि विश्राम की अब मनाही है, ऐसे में वहां बड़ा दल ले जा पाना संभव नहीं था।

वाण में बदला माहौल

वाण प्राथमिक विद्यालय में देर सायं शुरू हुई सभा में शुरू में बड़ी अराजकता दिखी लेकिन जब प्रो. शेखर पाठक ने तल्ख़ अंदाज में अपनी बात रखी तो लोगों ने बैठक को गंभीरता से लेना शुरू किया. गाँव के लोगों ने बताया कि, बेदिनी और अन्य बुग्यालों में लागू हुई हाईकोर्ट की नई गाइडलाइन्स के बाद स्थानीय लोगों के सामने समस्या खड़ी हो चुकी है। गाँव के लोग इसकी रिट लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। ग्रामीणों ने बताया कि रूपकुंड और बेदिनी-आली की जड़ में बसे होने पर भी वे उससे लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। पिछले दशकों में युवकों ने बड़ी मुश्किल से पर्यटन उद्योग को यहाँ स्थापित किया लेकिन अब बहुत निराशा है। वाण में 20 साल पहले दो चार दुकानें थीं लेकिन अब यह कस्बे का आकार ले चुका है। कस्बे में घर दुकान और मकान के साथ होम स्टे और होटल जुड़ चुके हैं। यहाँ सस्ते में रहने और खाने की व्यवस्था है। मगर, पानी का संकट बढ़ रहा है। बाकी जगह की तरह ही यहाँ के युवक भी कीड़ा जड़ी की खोज में ऊंचे बुग्यालों की तरफ गए हैं। कीड़ा जड़ी को पर्यटन गतिविधियाँ कम होने से अधिक बढ़ावा मिला है। बाण में भी कई जगह सक्रिय भू-स्खलन उद्घाटित हुए हैं। सड़कों के अनियोजित कटान ने आग में घी का काम किया है।

कनोल में दिन का भोजन हुआ और सभा हुई। यहाँ हमें शिक्षक होशियार सिंह बिष्ट और ग्राम विकास अधिकारी हुकुम सिंह बिष्ट का उत्साहजनक साथ मिला। गाँव में लाटू के साथ गोल्ज्यू का भी मंदिर है। गोल्ज्यू के कुमाऊं से यहाँ पहुँचने की रोचक कहानी है। होशियार सिंह ने बताया कि 30 साल पहले तक कुमाऊं के साथ उनके इलाके का जीवंत व्यापार होता था। एक बार बैजनाथ के पास चरवाहों की भेड़ें गायब हो गयीं। चरवाहे न्याय देवता गोल्ज्यू के पास पहुंचे और गुहार लगाई। बाद में उनकी भेड़ें वापस दल के साथ आ जुड़ी और उनके साथ एक भैंस भी थीं। यह भैस बाद में कनोल पहुंची। तभी से यहाँ गोल्ज्यू का मंदिर है।

बाण से पेरी

बाण से गेरी और फिर पेरी गाँव की पदयात्रा कष्टों से भरी रही। एक दल सुतोल भी गया। कनोल और सुतोल के बीच आए दिन युद्ध की स्थिति है। बीच में कीड़ा जड़ी आ गई है। दोनों गाँव में एक ही जाति और परिवारों के लोग होने पर भी यह स्थिति है। अब तक की यात्रा में इसी गाँव में सबसे अधिक हताशा दिखी। घाटी में नदी पर ऐसे पुल के दर्शन हुए जो नदी को पसंद नहीं आया। नदी एक तरफ बहती है, दूसरी तरफ पुल। यह पुल निर्माण में हुई लापरवाही का एक साक्षात उदाहरण है। कैल नदी किनारे कैल के जंगल जलते हुए देखना बहुत पीड़ादायी था। पेरी की तरफ जाने वाला रास्ता ध्वस्त होने की वजह से हमें गेरी की तरफ से लम्बा रास्ता लेकर आना पड़ा। इसी बीच मजदूरों को ले जा रहा एक ट्रेकर पीछे से आ रहा था। ड्राइवर ने बताया कि, इस अज्ञात सड़क में वह पहली बार आ रहा है। किसी तरह वह हमें ले जाने के लिए राजी हो गया। यह सड़क इतनी डरावनी थी कि नीचे नदी की तरफ देखकर आत्मा काँप उठी। ड्राइवर भी भयभीत था लेकिन उसका संयम और कौशल काम दे रहा था। वह धीरे धीरे चला और अँधेरा कटता रहा। हम पेरी के तलहटी तक आ गए। गाँव सड़क के ऊपर था। अँधेरे में जितने मोबाइल और टॉर्च थे निकल आए। मोबाइल पर नेटवर्क नहीं थे सो ड्राईवर को निर्जन सड़क पर अकेला छोड़ना पड़ा। ड्राइवर ने हमें इतना आश्वस्त किया कि वह रात यहीं सड़क पर बिताएगा। सुबह ठेकेदार के मजदूरों को ढूंढ लेने के बाद ही वापस जाएगा।

पेरी में नाम के तीन चार युवक थे, बाकी बुग्यालों में गए थे। गाँव के पंचायत अध्यक्ष खिलाफ सिंह ने दुखी मन से कहा कि, सच में हमारे गाँव के लोग आज भी वनमानुष हैं। यहाँ सभा में डिग्री कॉलेज घाट में पढ़ने वाली लक्ष्मी ने जोरदार तरीके से अपनी बात रखी।

पेरी से रामड़ी

हम कर्जन रूट पर थे। करीब 120 साल पहले इस अंग्रेज अधिकारी के लिए इस मार्ग को तैयार किया गया था। इन उच्च हिमालयी बसासतों में लोगों के बीच पहले से गहरे संबंध थे। व्यापार था और रोटी-बेटी के संबंध थे। कर्जन के आने से आपसी मार्ग जुड़कर एक महामार्ग बन गए। इन्हीं रास्तों में सैकड़ों साल से भेड़ें और भेड़पालक तो आते-जाते ही थे। उपनिवेशवाद के दौर में बड़े अंग्रेज अधिकारी के आने से इन जगहों को पहचाना गया, उन्हें पहचान मिली। कर्जन को ढाक तपोवन तक जाना था मगर वह रामड़ी से लौट गया। काठगोदाम से रामड़ी तक वह जहाँ जहाँ गया, उन गाँवों का जिक्र ब्रिटिश रिकार्ड्स में आया है। छठी बार अस्कोट- आराकोट का यात्री दल यहाँ से गुजर रहा था। 2004 में एक दूसरा दल तो पूरे ही कर्जन रूट पर चला था। जिला पंचायत के मद से जिस मार्ग को राजमार्ग बनाया गया था, वह आज चिंदी- चिंदी है। कुछ मार्ग सुधार के काम न होने से और कुछ नासमझी से भरी सड़कें काटने से। सड़कों के मलवे ने अधिकांश जगह पुराने मार्ग को गायब ही कर दिया है। चरवाहों ने उनके इर्द-गिर्द कामचलाऊ मार्ग तो बनाए हैं मगर यह खतरे से खाली नहीं। बारिश में तो ये बंद ही हो जाते हैं। पुराने पुल दम तोड़ रहे हैं, नए बने नहीं हैं।

पेरी में ग्रामीणों ने सलाह दी कि हम पुराने रास्ते से थोड़ा डायवर्जन लेते हुए अखरतोली धार के पाषाणों में अंकित प्राकृतिक आकारों को जरूर देखें। बड़ा दल तो गेरी से सड़क मार्ग से पहले निकल गया, जबकि हमारा छोटा दल इस मार्ग पर आ गया। करीब चार किलोमीटर खड़ी चढ़ाई के बाद हम उन पाषाणों तक पहुंचे। हम यह देखना चाहते थे कि ये कप मार्क के शेप हैं या सामान्य तरह के गड्ढे। मगर, इनका आकार इतना छोटा और बिना पैटर्न का था कि कुछ भी तय करना मुश्किल था।

दो एक जगह मार्ग में डायवर्जन थे मगर यहाँ सही मार्ग पूछें किससे। हमारे साथी बम्फाल जी ने कहा, दोस्तो कोई भी रास्ता बुरा नहीं। दोनों पर हमारे पूर्वजों के पैर पड़े हैं। यहाँ से सड़क और दूर के गाँव दिखने बंद हो गए। एक मोड़ के बाद बहुत ऊंचे से हमें नीचे छानियों की एक कतार दिखी मगर हमारी आवाज वहां तक नहीं पहुँच सकती थी। खैर, हम दुपहरी के विदा होते-होते सीक गाँव पहुँच गए। सीक गाँव में सबसे पहले सूखी नदी मिली। ऊपर एक ढलान पर स्कूल और उस पार पानी का नल। आबादी शुरू हो गई लेकिन यहाँ भयानक किस्म की वीरानी थी। पानी पीते-पीते हमें वहां एक नेगी जी मिल गए, चोट के कारण उनके माथे पर पट्टी बंधी पड़ी थी। उनसे पता चला कि गांव के लोग कल ही ऊपर बुग्याल की तरफ गए हैं। अपने जानवर भी ले गए हैं।

गाँव के ठीक ऊपर तक सड़क पहुँच गई थी। इसी सड़क को गेरी से आ रही सड़क से जुड़ना था। पुल का काम चल रहा था। हम गाँव से ऊपर की ओर बढ़े तो आशंका हुई कि कहीं हमारा मार्ग मलवे की चपेट में तो नहीं आ गया। इसी बीच घाट से आए शिक्षक साथी सोहन के एक परिचित कुँवर सिंह नेगी रास्ते में मिल गए। वह किसी दूसरे गाँव के थे मगर सड़क बना रहे जेसीबी कर्मियों के लिए भोजन बनाने का काम करते थे। वह आला गाँव में 2014 के अभियान में यात्रा दल से मिल चुके थे। उन्होंने आश्वस्त किया कि पैदल मार्ग का कुछ हिस्सा टूटा है लेकिन हम उससे निकल जाएँ। आधा किलोमीटर ऊपर चढ़े होंगे कि ताजा कटी चट्टानों और मलवे ने भयभीत कर दिया। पुराना रास्ता छोड़ कफ्फर की तरफ से उतरने का असफल प्रयास किया। वापस पुराने रास्ते में आए मगर यहाँ मलवा अभी सैटल ही हो रहा था। दूसरा विकल्प नहीं था। यात्रा को आगे बढ़ाना है तो इन्हीं फिसलती चट्टानों में पैर रखकर ऊपर चढ़ना था। मौत का जो मंजर उन पलों में आँखों में आया, उसका वर्णन संभव नहीं। हमारे साथियों की जेसीबी ड्राईवर से झड़प भी हो गई। मगर, वह किसी बड़े ठेकेदार-नेता का नाम लेने लगा। खैर किसी तरह सड़क पर आ गए तो साँस में साँस आई। दूर कहीं तलहटी में बसे सीक गाँव के खेतों में गिर रहे भारी मलबे को हम देख रहे थे। पुराने को दबना है, आहुति देनी है। विकास होकर रहेगा। यहाँ सड़क पर जगह-जगह जिलेटिन की पेटियाँ बेखौफ पड़ी हुई थीं।

करीब चार पांच किलोमीटर निर्माणाधीन सड़क पर चलते हुए राह में आता हुआ एक डम्फर दिखा। हमने उसे रोककर आला गाँव की दूरी पूछी। पता चला यह अभी छह सात किलोमीटर है। जो डम्फर पीछे सामान अनलोड करने गया था, वह फिर लौट आया। ड्राईवर ने खुद हमें साथ चलने का न्योता दिया।

रामड़ी अभी भी 18-20 किलोमीटर था। इस बीच साथी सोहन ने एक स्थानीय टैक्सी चालक को रामड़ी चलने के लिए मना लिया। बीस साल बाद रामड़ी को पहचानना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। मैं यकीन कर पाता अगर 2014 में आता। मुझे ऐसा धक्का न लगता। मैं जब आया था तब यहाँ कोई पक्का मकान नहीं था, आजादी से पुराना एक पोस्ट ऑफिस था, जिसका अब भग्नावेश बचा है। पहले छानियां/खरीक थीं। मोबाइल नेटवर्क नहीं था। सड़क तो कल्पना के बाहर की बात थी। और इतने सारे होम स्टे, कौन इसकी कल्पना कर सकता था? रामड़ी एकदम बदल गई थी। और इसे कोई रमणीय कहे तो कैसे? मैं सामुदायिक केंद्र तक जाकर यह देखने का प्रयास कर रहा था कि 20 साल पहले किस छानी में रहा था, वह कहां है। तब हम लोग मिलाप सिंह जी के घर रुके थे।

गांव में सभा शानदार रही। शेखर सर ने कर्जन मार्ग की परियोजना और 1980-81 में यहाँ पधारे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.पी. सिंह और उनके द्वारा शुरू की गयी सौर विद्युत परिजयोजना, पुराने यात्राओं और पुराने रहवासियों का जिक्र किया। इसके बाद महिलाओं के नृत्य और गीत शुरू हुए।

300 मवासों और 1300 की आबादी वाली रामड़ी बदल गई है। रामड़ी तेजी से बदल रही है। सड़क बन जाने से इसकी ख्याति सुन चुके लोग यहाँ पहुँचने लगे हैं। लोगों का व्यवहार भी बदल रहा है। सड़क से सरकारी शराब भी आ रही और दूसरी सामग्री भी।

रामड़ी से झिंझी

रामड़ी से सुबह चलकर हमें रामड़ी के पहले आकाश को छूना था। यह खड़ी चढ़ाई थी। झिंझी के रास्ते में छोटे-छोटे कई बुग्याल आए। गाँव में जिस बाखली में हम पहुंचे, वहां पहले से ही खिचड़ी उबल रही थी। पहले आ गए साथी सुस्ता रहे थे। शाम को गाँव की महिलाएं एकत्र होने लगीं और घर के पीछे मंदिर में हमारे रात के भोजन का इंतजाम होने लगा। गाँव काफी संपन्न है, हालाँकि, यहाँ से भी युवक सब ऊपर बुगयालों में गए हैं। कुछ किशोर-किशोरियां जो बाहर पढ़ते हैं, गांव में आए हैं। हमारी होस्ट और गाँव के स्कूल में शिक्षिका ने हमें पाणा- इराणी और आस-पास के दूसरे गांवों की कहानी बताई। सबसे रोचक कहानी नीचे बह रही वीर गंगा यानी विरही नदी की सुनाई। वीरांगना, जिसने सूझ-बूझ से दुश्मन की पूरी सेना को नदी में कुदवा दिया।

झिंझी से पाणा

बनती हुई सड़क और कर्जन ट्रेल की दुर्दशा देखते हुए और गिरते पत्थरों से खुद को बचाते हुए हम ऊपर चढ़ते रहे। आज पहला दिन है, जब हम सूरज की रोशनी में मंजिल पर पहुंचेंगे। गाँव से ठीक पहले एक आकर्षक झरना मिला। पाणा में 3 प्राइमरी स्कूल और एक जूनियर है। कक्षा 9 और बाद की शिक्षा के लिए बच्चों को 6 किमी दूर इराणी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। इससे कई बालिकाओं की शिक्षा आगे नहीं बढ़ पाती। दो एससी शिक्षक स्कूल में ही रहते हैं। तीसरे शिक्षक सवर्ण हैं तो वह गाँव में रहते हैं।

गाँव में भारी बेरोजगारी है। शराब, चरस के अलावा गाँव में स्मैक की धमक है। गाँव के लोगों को स्कूल में हो रही सभा के लिए किसी तरह मनाया गया। सभा में पुरुष एक तरफ मजा करते रहे, जबकि महिलाओं ने सौहार्दपूर्वक गीत गाए। इराणी के साथ इस गाँव के लोगों ने भी हालिया लोक सभा चुनाव का पूर्ण बहिष्कार किया लेकिन उनके बहिष्कार से किसी के कान में जूँ नहीं रेंगी।

पाणा/इराणी से करछी (वाया क्वारी पास)

पाणा से करछी को निकले। सड़क पर नए पुल के नीचे पुराने कर्जन पुल के ध्वनसावेश देखे। बेअक्ल विभाग ने धरोहर पुल को संरक्षित करने की बजाय उसी जगह पर नए पुल का काम शुरू कर दिया। पुल की पेमेंट ठेकदार को हो चुकी है, लेकिन अगले एक साल तक भी शायद पुल बन पाए। बीच में फल्च्या, दक्वानी, क्वाणी, गैरगढ़, खुलारी, मोटला आदि छोटी-छोटी जगहें आती हैं लेकिन पूरा क्षेत्र मानव शून्य है। आज का विशेष आकर्षण है क्वारी पास। यह पास पूरे ही रास्ते चर्चा का विषय बना रहा। ‘क्या क्वारी चढ़़ पाओगे?’, ‘क्वारी चढ़ना ही सपना है’ या ‘क्या मैं क्वारी कर पाऊंगा?’ ऐसे सद्वाक्य रास्ते भर ही सुनने को मिले। आज का रास्ता दुर्गम ही नहीं लंबा भी है।

मार्ग में डूमबिट्ठा वॉटरफॉल काफी बड़ा और आकर्षक है। मार्ग में मिले तमाम झरनों को तुलना में यह काफी बड़ा और वैभवशाली था। बिर्थी की लंबाई जरूर अधिक होगी लेकिन इसके सामने वो पानी भरेगा।

रास्ते में हमें भेड़ों का बड़ा दल भी मिला। कम से कम पांच हज़ार भेड़ें तो रही होंगी। उनकी वजह से रास्ता जाम हो गया। डूमबिट्ठा फाल से पहले हमें एक भेड़पालक युवा मिला, जो बीमार था। उसने बताया कि कुछ दिन से उसकी पेशाब नहीं निकल रही और बहुत जलन हो रही है। हमारे साथियों के पास जो भी दवाएं थीं, उसे दीं और कुछ खाने के लिए भी दिया।

क्वारी पास से पहले की करीब तीन या चार किलोमीटर ही चढ़ाई बेहद ही विकट थी। जगह-जगह भेड़ों और चरवाहों के डेरे थे। एक गंजी पहाड़ी पर धुआं बता रहा था कि मनुष्य कहीं भी जा और जी सकता है।

मार्ग पर ऑक्सीजन लेवल का कम था। करीब दो बजे सभी यात्री क्वारी पास के विशाल वक्षस्थल पर पहुंचे। तीन किलोमीटर मखमली बुग्याल पर सोने, रेंगने और नाचने के बाद जब ख़याल आया कि अभी दूरी के हिसाब से मंजिल इतनी भी करीब नहीं। दो छोटे दल रवाना हो गए। तीसरा छोटा दल हमारा था।

हमने तीन चरवाहों से अलग-अलग जगह करछी का रास्ता पूछा, फिर भी एक जगह दुबटिया पर चूक हो गई। हम लंबे और दुरूह रास्ते पर थे। पूरा ही उतार था। 4500 मीटर से उतरना था करीब 800 मीटर पर। 75 डिग्री से 80 डिग्री पर तलुवे झुकाने थे। कुछ चले, कुछ और चले, चलते रहे लेकिन रास्ता कठिन से कठिनतर होता चला गया। बुग्याल का मजा काफूर हो गया था। किसी तरह अँधेरा होने तक हम गाँव की सीमा तक आ पहुंचे।

हम गाँव में पैर रख ही पाए थे हमारे पीछे से धूल का एक विशाल गुब्बारा उठा, मानो कि पीछे का पहाड़ पूरी तरह धरासाई हो गया हो। पास के खेत से आ रही एक अम्मा से पूछा, यह क्या है अम्मा? जंगल की ओर देखते हुए बोली, अरे भेड़ें उतर रहीं। भेड़ें निचले क्षेत्रों से क्वारी पास होते हुए अब नीती घाटी की ओर जा रही हैं।

करछी से रैणी, क्वासा और जोशीमठ

रैणी में चिपको आंदोलन का कोई असर नहीं दिखा। यहाँ के लोग विस्थापन का इंतज़ार कर रहे हैं। मगर, बिना संघर्ष किए शायद ही कुछ मिले। भविष्यबद्री गाँव में पुनर्वास की योजना बनाकर दोनों गाँवों को भिड़ा दिया गया है। रैणी गाँव एक ढालदार चट्टान पर अटका है और इसका एक तरफ से स्खलन शुरू हो चुका है। बारिश के दिनों में लोग सारी रात जागते रहते हैं। यहाँ लोगों में ढाक तपोवन योजना को लेकर कोई रोष नहीं दिखा। लोग परियोजना के खिलाफ नहीं बोले। इसी दिन यहाँ एक विद्युत परियोजना में काम कर रहे युवक का शव आया था। तपोवन में उसका शवदाह हो रहा था, शोक में तपोवन बाजार बंद था। लेकिन, कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था। रुद्रप्रयाग में निर्माणाधीन एक विद्युत् परियोजना की टनल ब्लास्टिंग में युवक की जान चली गई थी। ऐसा प्रतीत हुआ यहाँ सब कंपनी राज में रह रहे हैं। गौरा देवी के पुत्र चंद्र सिंह उखड़े-उखड़े से लगे। उन्हें ऐसा लगता है कि गौरा देवी के परिवार को जितना सम्मान मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिला। तपोवन और रैणी दोनों जल विद्युत् परियोजना से प्रभावित क्षेत्र हैं लेकिन सरकार ने दोनों जगह अलग-अलग मुआवजा राशि तय की है। जोशीमठ से आए सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती ने बताया कि जोशीमठ ब्लॉक के 33 गाँव ऐसे हैं जिनका विस्थापन होना है। मगर, गाँवों के लोग खुद अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते। राज्य के दूसरे क्षेत्रों से भी आवाज उठनी चाहिए।

रैणी से सड़क मार्ग से पर्यावरण चेतना के बड़े कार्यकर्ता कामरेड गोविंद सिंह रावत के गाँव पहुंचे। हमारे सहयात्री बम्फाल जी पहले से तैयारी को क्वासा पहुँच चुके थे। गाँव में होने जा रही बैठक के लिए कामरेड गोविंद सिंह की पत्नी पुष्पा देवी भी गोपेश्वर से आई थीं। कामरेड रावत के संघर्षों की साथी इंदिरा देवी, ग्राम प्रधान लक्ष्मन सिंह रावत, कुलदीप सिंह बम्फाल, अतुल सती आदि ने उनके योगदान को याद किया। गाँव के युवा व्यवसाई युवक दीपक रावत, इंडियन ऑइल के सेवानिवृत कर्मी डी.एस. रावत आदि ने हमें गाँव की प्राचीनता के बारे में जानकारियां दीं। यहाँ कुछ एस.सी. परिवार भी हैं। वह भी आर्थिक और शैक्षणिक रूप से समान रूप से सक्षम हैं। हालाँकि, सामाजिक दूरियां ख़त्म नहीं हुई हैं।

गाँव में हुई सभा के बाद हम वापस जोशीमठ को चले और देर शाम जोशीमठ आई.टी.बी.पी. कैम्प के बैरक में हमें पनाह मिली। सैनिकों ने स्नेह के साथ यात्री दल को भोजन कराया।

जोशीमठ से गोपेश्वर

अगली सुबह हम जोशीमठ भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों को देखने निकले। जगह जगह घरों पर क्रॉस के निशान देखना दुखदाई था। एक मठ में आयोजित सभा में स्थानीय लोगों को सुनते हुए महसूस हुआ कि प्रशासन ने पुनर्वास का मुद्दा उलझा और लटका दिया है। तीर्थ यात्रा मार्ग में स्थित जोशीमठ नगर लोगों की आजीविका का भी साधन है, ऐसे में इसे छोड़ने का निर्णय करना भी भूस्खलन प्रभावित परिवारों के लिए आसान फैसला नहीं है। लोग एक अनिश्चय की धार पर लटके हुए हैं। भोजन के बाद यात्री गोपेश्वर की ओर बढ़ चले। एक दल हेलंग और पीपलकोटी में आन्दोलनकारी महिलाओं से मिला तो दूसरा दल गरुड़ गंगा (पाखी) में राज्य आंदोलनकारी कमल किशोर डिमरी के रेस्त्रां में। देर शाम यात्रा दल गोपेश्वर नगर में प्रविष्ठ हुआ। यह यात्रा मार्ग में आया पहला जिला मुख्यालय और बड़ा कस्बा था। कई दिनों बाद बड़ा नगर देखकर मन उचक सा गया था। यहाँ हमने मुखी चौक से गोपेश्वर मंदिर तक रैली निकाली। दशौली ग्राम स्वराज मंडल में महिला मंच के कार्यकर्ता और अन्य नागरिकों के सहयोग से सभा हुई और रात को यात्रा की समीक्षा की गई। अगली सुबह चंडी प्रसाद भट्ट जी की उपस्थिति में यात्रा के गीत गाए गए। दिन में पूर्व पालिका अध्यक्ष और चिपको कार्यकर्ता मुरारी लाल जी के गाँव पहुंचे और वहां एक विस्तृत सभा हुई। दोपहर में फिर चिपको के प्रयोग देखने संरक्षित/ निर्मित जंगल देखने का काम हुआ। अगला दिन मेरे लिए विशाल चमोली जिले और यात्रा को विदा कहने का था। जबकि, बाकी साथियों को मंडल के घने वन से गुजरते हुए रुद्रप्रयाग जिले में प्रवेश का। यात्रा के अंतिम पड़ाव में मैं फिर से त्युणी में बिछड़े हुए साथियों से मिला। एक सहस्राब्दी पहले अफगानिस्तान से आव्रजन करते हुए यहाँ आ पधारे चल्दा और बैठा महासू नामक भाइयों से मुलाक़ात हुई। आराकोट इंटर कॉलेज में उत्साही छात्र-छात्राओं संग अस्कोट से आराकोट यात्रा का सुखद समापन हुआ।

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